Wednesday, 11 January 2023

आत्मानमद्वयं कश्चित्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ४

श्लोक ६

आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम्।।

यद्वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्।।६।।

(आत्मानं अद्वयं कश्चित् जानाति जगदीश्वरम्। यत् वेत्ति तत् सः कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्।।) 

अर्थ : अपनी द्वैतरहित निज और नित्य आत्मा को ही जगत् का एकमात्र ईश्वर जाननेवाला कोई ही जगत् के स्वामी को जानता है । जो इस प्रकार तत्त्वतः जानता है, वह इसी विवेक* से प्रेरित होकर समस्त आचरण करता है, उसे भी कहीं भी, किसी से भी  कभी कोई भय नहीं होता।

।। इति चतुर्थोऽध्यायः।।

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*अद्वैत-निष्ठा :

ईश्वरो गुरु आत्मेति मूर्तिभेदाविभागिने। 

व्योमवद्व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः।। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೪

ಶ್ಲೋಕ ೬

ಆತ್ಮಾನಮದ್ವಯಂ ಕಶ್ಚಿ-

ಜ್ಜಾನಾತಿ ಜಗದೀಶ್ವರಂ||

ಯದ್ವೇತ್ತಿ ತತ್ ಸ ಕುರುತೇ

ನ ಭಯಂ ತಸ್ಯ ಕುತ್ರಚಿತ್||೬||

||ಇತಿ ಚತುರ್ಥೊऽಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 4

Stanza 6

Rare is the man who knows himself as one without a second as well as the Lord of the universe. He does what he knows and has no fear from any quarter.

Thus concludes chapter 4 of :

The Ashtavakra Gita.

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