Tuesday, 10 January 2023

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते

अष्टावक्र गीता

अध्याय ४

श्लोक ५

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।।

विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने।।५।।

(आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे। विज्ञस्य एव हि सामर्थ्यं इच्छा-अनिच्छा-विवर्जने।।)

अर्थ : ब्रह्मा से लेकर तृण तक (उद्भिज्, अण्डज, स्वेदज और जरायुज) जो भी चार प्रकार की जीव-सृष्टियाँ हैं, उनमें से केवल किसी उस आत्मविद् में ही यह सामर्थ्य होता है कि वह इच्छा तथा अनिच्छा से प्रभावित न हो और उन्हें ही अपने वश में रखे।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೪

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಆಬ್ರಹ್ಮಸ್ತಮ್ಬಪರ್ಯನ್ತೇ ಭೂತಗ್ರಾಮೆಚತುರ್ವಿಧೇ||

ವಿಜ್ಞಸ್ಯೈವ ಹಿ ಸಾಮರ್ಥ್ಯಮಿಚ್ಛಾನಿಚ್ಛಾವಿವರ್ಜನೇ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 4

Stanza 5

From Brahma down to the clump of grass, of the four* kinds of the created life-forms, it is the wise alone who is free from and capable of renouncing desire and aversion.

*the four life-forms or the conscious beings are : Born of water, Born of egg, Born of the  placenta with the membrane enveloping the foetus, and Born of sweat.

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