अष्टावक्र गीता
अध्याय ४
श्लोक ५
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।।
विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने।।५।।
(आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे। विज्ञस्य एव हि सामर्थ्यं इच्छा-अनिच्छा-विवर्जने।।)
अर्थ : ब्रह्मा से लेकर तृण तक (उद्भिज्, अण्डज, स्वेदज और जरायुज) जो भी चार प्रकार की जीव-सृष्टियाँ हैं, उनमें से केवल किसी उस आत्मविद् में ही यह सामर्थ्य होता है कि वह इच्छा तथा अनिच्छा से प्रभावित न हो और उन्हें ही अपने वश में रखे।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೪
ಶ್ಲೋಕ ೫
ಆಬ್ರಹ್ಮಸ್ತಮ್ಬಪರ್ಯನ್ತೇ ಭೂತಗ್ರಾಮೆಚತುರ್ವಿಧೇ||
ವಿಜ್ಞಸ್ಯೈವ ಹಿ ಸಾಮರ್ಥ್ಯಮಿಚ್ಛಾನಿಚ್ಛಾವಿವರ್ಜನೇ||೫||
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Ashtavakra Gita
Chapter 4
Stanza 5
From Brahma down to the clump of grass, of the four* kinds of the created life-forms, it is the wise alone who is free from and capable of renouncing desire and aversion.
*the four life-forms or the conscious beings are : Born of water, Born of egg, Born of the placenta with the membrane enveloping the foetus, and Born of sweat.
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