अष्टावक्र गीता
अध्याय ३
श्लोक १०
चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।।
संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः।।१०।।
(चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यति अन्य शरीरवत्। संस्तवे च अपि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः।।)
अर्थ : (अपनी दिव्य आत्मा के तत्व और तात्पर्य अर्थात्) महान आशय को जाननेवाला मनुष्य विभिन्न चेष्टाएँ करनेवाले अपने इस शरीर को भी दूसरे सभी अन्य शरीरों की तरह ही देखता है। (इसलिए) किसी के द्वारा अपनी स्तुति या निन्दा किए जाने पर उसे क्षोभ कैसे हो सकता है!
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ಚೇಷ್ಟಮಾನಂ ಶರೀರಂ ಸ್ವಂ
ಪಶ್ಯತ್ಯನ್ಯ-ಶರೀರವತ್ ||
ಸಂಸ್ತವೇ ಚಾಪಿ ನಿನ್ದಾಯಾಂ
ಕಥಂ ಕ್ಷುಭ್ಯೇತ್ ಮಹಾಶಯಃ ||೧೦||
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Ashtavakra Gita
Chapter 3
Stanza 10
The high-souled person witnesses his own body acting as if it were another's. As such, how can he be disturbed by praise or blame!
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