अष्टावक्र गीता
अध्याय ५
श्लोक ३
प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वाद्विश्वं नास्त्वमले त्वयि।।
रज्जु सर्प-इव व्यक्तमेवमेवलयं व्रज।।३।।
(प्रत्यक्षं अपि अवस्तुत्वात् विश्वं नास्ति अमले त्वयि । रज्जुः सर्प इव व्यक्तं एवमेव लयं व्रज।।)
अर्थ : रज्जु में सर्प के होने का आभास होने से रज्जु वस्तुतः सर्प नहीं हो जाती, और रज्जु को "यह सर्प नहीं, रज्जु है" इस तरह से जानते ही सर्प (का आभास) विलीन हो जाता है। निर्मल आत्मा में जगत् का आभास भी ऐसी ही मिथ्या प्रतीति है यह भान होते ही आभासी जगत् विलीन हो जाता है। इसी तरह अपने निर्मल स्वरूप को जानकर उसमें निमग्न हो जाओ।
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ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೫
ಶ್ವೇತ ೩
ಪೃತ್ಯಕ್ಷಮಪಿ ವಸ್ತುತ್ವಾದ್ವಿಶ್ವಂ ನಾಸ್ತ್ಯಮಲೇ ತ್ವಯಿ||
ರಜ್ಜುಸರ್ಪ ಇವ ವ್ಯಕ್ತಮೆವಮೇವ ಲಯಂ ವ್ರಜ||೩||
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Ashtavakra Gita
Chapter 5
Stanza 3
The universe being manifested like the snake in the rope, does not exist in you who are pure, even though it is present to the senses; because it is unreal. (Knowing this,) Thus verily do you enter into (the state of) dissolution.
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