अष्टावक्र गीता
अध्याय ७
श्लोक ४
नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरञ्जने।।
इत्यसक्तोऽस्पृहःशान्त एतदेवाहमास्थितः।।४।।
(न आत्मा भावेषु न उ भावः तत्र अनन्ते निरञ्जने। इति असक्तः अस्पृहः शान्तः एतत् एव अहं आस्थितं।।)
अर्थ : आत्मा न तो किसी विषय, भाव आदि तक सीमित है, न उस पर आश्रित है, और न ही वहाँ उस अनन्त निरञ्जन आत्मा में कोई विषय भाव आदि है। इस तरह वह आत्मा ही, और वही आत्मा मैं, आसक्ति-रहित, निःस्पृह, शान्त होकर आत्मा में ही नित्य अवस्थित है।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९ :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।४।।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।५।।
समस्त भूतमात्र आत्मा पर ही आश्रित और आत्मा / परमात्मा में ही अवस्थित हैं, जबकि भूतमात्र के भीतर अपनी कोई स्वतंत्र आत्मा नहीं है।)
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೭
ಶ್ಲೋಕ ೪
ಆತ್ಮಾ ಭಾವೇಷು ನೂ ಭಾವಸ್ತತ್ರಾನನ್ತೇ ನಿರಞ್ಜನೇ||
ಇತ್ಯಸಕ್ತೋऽಸ್ಪೃಹಃ ಶಾನ್ತ ಎತದೇವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||೪||
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Ashtavakra Gita
Chapter 7
Stanza 4
The Self Is not in the objects nor the object in That which is Infinite and Stainless. Thus It is free from attachment and desire and is tranquil. In this alone I do abide.
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