अष्टावक्र गीता
अध्याय ४
श्लोक २
यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवता।।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति।।२।।
(यत् पदं प्रेप्सवः दीनाः शक्र आद्याः सर्वदेवता। अहो तत्र स्थितः योगी न हर्षं उपगच्छति।।)
अर्थ : उस (परम) पद को प्राप्त करने के लिए, जिसे प्राप्त करने के लिए इन्द्र इत्यादि सारे देवता भी लालायित होते हैं, और उसे प्राप्त न कर पाने से दुःखी अनुभव करते हैं, वहाँ पर अनायास ही स्थित हुआ योगी सुख या दुःख आदि से उदासीन रहते हुए, किसी हर्ष आदि से भी रहित होता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೪
ಶ್ಲೋಕ ೨
ಯತ್ಪದಂಪ್ರೇಪ್ಸವೋ ದಿನಾಃ
ಶಕ್ರಾದ್ಯಾಃ ಸರ್ವದೇವತಾಃ||
ಅಹೋ ತತ್ರ ಸ್ಥಿತೋ ಯೋಗೀ
ನ ಹರ್ಷಮುಪಗಚ್ಛತಿ ||೨||
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Oh, the Yogi does not feel elated abiding in that position which Indra and all other gods hanker after and become unhappy.
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