अष्टावक्र गीता
अध्याय ६
श्लोक ३
अहं सशुक्तिसङ्काशो रूप्यवद्विश्वकल्पना।।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।
(अहं स-शुक्ति-सङ्काशः रूप्यवत् विश्वकल्पना। इति ज्ञानं तथा एतस्य न त्यागः न ग्रहः लयः।।)
अर्थ : मैं शुक्ति (सीप) सदृश, और विश्वकल्पना शुक्ति में दिखाई दे रही रजत सदृश है। इस प्रकार अपने होने-मात्र का यह बोध, यह सहज, स्वाभाविक और अनायास हो रहा यह भान, जिसे न तो ग्रहण किया जा सकता है, न त्यागा जा सकता है, और न ही जिसका कभी लय हो सकता है, ज्ञान है।
(तर्क, अनुमान, अनुभव और उदाहरण से भी अपने होने के इस भान को असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। यही अहं-स्फूर्ति है जो अपनी नित्य निज आत्मा का प्रत्यक्ष उद्घोष है।)
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೬
ಶ್ಲೋಕ ೩
ಅಹಂ ಸಶುಕ್ತಿ ಸಙ್ಕಾಶೋ ರೂಪ್ಯವದ್ವಿಶ್ಷಕಲ್ಪನಾ||
ಇತಿ ಜ್ಞಾನಂ ತಥೈತಸ್ಯ ನ ತ್ಯಾಗೋ ನ ಗ್ರಹೋ ಲಯಃ||೩||
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(The Knowledge) That I am like the pearl-oyester; and the world-ideation is like silver. This is Knowledge. So it has neither to be renounced nor accepted nor destroyed.
[This is this inherent, spontaneous, natural and obvious knowledge of one's own being in everyone, that is neither newly gained, nor is old, could never be lost or forgotten.
Awakening to this fact is the only insight and the wisdom ultimate.]
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