Tuesday, 24 January 2023

जगद्वीचिः स्वभावतः

अष्टावक्र गीता

अध्याय ७

श्लोक २

मय्यनन्तमहाम्भोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः।।

उदेतु वाऽस्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षतिः।।२।।

(मयि अनन्त महा अम्भोधौ / अम्बोधौ जगत् वीचिः स्वभावतः। उदेतु वा अस्तं आयातु न मे वृद्धिः न च क्षतिः।।)

अर्थ : मुझ आत्मारूपी जलयुक्त महासागर में जगत् रूपी तरंग अपने आप ही उठती-गिरती रहती है। उसके उठने या गिरने से न तो मेरी वृद्धि होती है, और न ही क्षति होती है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೭

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ

ಜಗದ್ವೀಚಿಃ ಸ್ವಭಾವತಃ||

ಉದೇತು ವಾऽಸ್ತಮಾಯಾತು

ನ ಮೇ ವೃದ್ಧಿರ್ನ ಚ ಕ್ಷತಿಃ||೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 7

Stanza 2

In Me,  the limitless ocean, let the wave of the world rise or vanish of itself. I neither increase nor decrease thereby.

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