अहं प्रत्यय
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"प्रत्यय" का सामान्य तात्पर्य है :
संवेदन और अभिव्यक्ति
(Perception and Expression).
अभिव्यक्ति किसी इन्द्रियगम्य, बुद्धिगम्य, भावगम्य, मनोगम्य या अनुभूतिगम्य विषयों (objects) के संवेदन से उत्पन्न होनेवाली प्रतिक्रिया होती है। समस्त अनुभवों के दो पक्ष क्रमशः अनुभूति का विषय (object) तथा अनुभूति जिसे होती है वह विषयी - (subject) । विषयी सतत अपरिवर्तित रहनेवाला स्थायी चेतन conscious / sentient पक्ष होता है, जबकि विषय उनकी अपेक्षा अस्थायी और परिवर्तनशील insentient या अचेतन पक्ष होता है। विषय (object) पुनः कोई स्थूल या सूक्ष्म वस्तु, व्यक्ति, विचार या अनुभव आदि हो सकता है, जबकि विषयी सदैव आवश्यक और अनिवार्य रूप से चेतन ही होता है। विषय को सदा ही अपने-आप की तरह, अपने से अभिन्न और विषयी को सदैव अपने-आप से भिन्न ही जाना जाता है। जानने-वाला 'विषयी', और जिसे जाना जाता है, वह जानने का 'विषय' होता है। 'जानना' संवेदन है, जिससे उत्पन्न उसकी स्मृति ही संवेदन के अनुभव का रूप लेकर पहचान के रूप में मस्तिष्क में संचित हो जाती है। यह गतिविधि चेतना (consciousnesses) के आश्रय से ही संभव होती है, जो कि स्वयं विषय और विषयी की अचल, अटल और अविकारी (immutable) पृष्ठभूमि होता है। चेतना यद्यपि इन्द्रियगम्य, बुद्धिगम्य, अनुभवगम्य नहीं होती, किन्तु स्वयं ही स्वयं का प्रमाण होती है जबकि विभिन्न विषयों का प्रमाण चेतना के अन्तर्गत होनेवाले उनके अनुभव होते हैं। पातञ्जल योगसूत्र में 'प्रमाण' / evidence को तीन प्रकारों का कहा गया है : प्रत्यक्ष अनुमान और आगम। किन्तु उससे भी पहले 'प्रमाण' को भी वृत्ति (मन की गतिविधि) ही कहा गया है:
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।
प्रत्यक्षानुमानागमाः।।६।।
(समाधिपाद)
विषयों (objects) का प्रमाण प्रत्यक्ष अनुभूति से, अनुमान या निष्कर्ष के रूप में हो सकता है। भूख, निद्रा, थकान, स्वयं ही स्वयं का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जबकि भय, कल्पना पर आधारित अनुमान है। किसी के प्रति उत्पन्न होनेवाला आकर्षण, आसक्ति, विकर्षण, क्रोध, भय आदि निष्कर्ष-जनित प्रतिक्रिया होता है।
आगम का दूसरा अर्थ, ऋषियों और आत्मविदों के द्वारा प्राप्त किया गया निष्कर्ष जो कि शास्त्र-सम्मत शाब्दिक विचार होता है। यह निष्कर्ष पुनः जगत्, संसार के विषय में हो सकता है, या सत्य, आत्मा या परमात्मा के संबंध में भी हो सकता है।
हम अपने आपके बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह उस व्यक्ति से संबंधित वह जानकारी मात्र होता है, जो कि हमारी स्मृति में एकत्र हुई होती है, और जिसे हम अपने आपके होने की तरह सत्य मान लेते हैं। इस प्रकार से हम अपने बारे में अपने आपका जो मानसिक चित्र बना लेते हैं वह हमारी वास्तविकता न होकर कोरी कल्पना ही होता है। फिर भी इसमें सन्देह नहीं हो सकता है कि हमें अपने होने का ज्ञान, भान या बोध अपने ही भीतर से अनायास ही प्राप्त हुआ होता है और वह कोई बनने और मिटने वाली वस्तु नहीं है। यह ज्ञान, भान या बोध ही शुद्ध अहं-प्रत्यय है, जबकि अपने बारे में प्रत्यक्ष, अनुमानित या सुनिश्चित धारणा केवल एक मानसिक चित्र ही होता है।
विवेक-चूडामणि में इसका ही वर्णन एक संकेत की तरह किया गया है :
अस्ति कश्चित्स्वयं नित्यं अहं-प्रत्ययलम्बनः।।
अवस्थात्रयसाक्षी सन् पञ्चकोषविलक्षणः।।१२५।।
अहं-प्रत्यय तो यद्यपि सतत परिवर्तित होते रहनेवाली वस्तु है, किन्तु जिस आधार से इसे सातत्य प्राप्त होता है वह आधार 'अहं', - अपनी निजता, नित्यता अर्थात् अविकारी आत्मा है।
उसे न तो किसी विषय की तरह प्रत्यक्ष, अनुमान, तर्क, निश्चय अर्थात् बुद्धि आदि से जाना जा सकता है, न इंगित ही किया जा सकता है। और यह स्वयं ही हमारे भीतर निरंतर, नित्य स्फुरित अहं-स्फूर्ति है। इस पर ध्यान जाते ही अपने स्वरूप को यह स्वयं ही उद्घाटित कर देता है :
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।।
यमेवैष वृणुते तस्य स आत्मा विवृणुते तनूँस्वाम्।।२३।।
(कठोपनिषद् १-२, मुण्डकोपनिषद् ३-२-३)
उपरोक्त मंत्र में "एषः" पद का प्रयोग दो अर्थों में दृष्टव्य है। और दोनों ही अर्थ स्वतंत्र रूप से भी, और एक दूसरे की पुष्टि के अर्थ में भी ग्राह्य हैं।
संक्षेप में अहं-प्रत्यय का तात्पर्य हुआ :
जैसा हम अपने आपको मानते-समझते हैं, अपने बारे में हमारी वह समझ और मान्यता।
अष्टावक्र गीता (और श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भ में भी) इस पोस्ट का महत्व इसलिए है, इसमें 'अहंं' पद के प्रयोग से कहीं इस पद के वाच्यार्थ को, कहीं इसके लक्ष्यार्थ को, तो कहीं इसके परमार्थ को इंगित किया गया है, यह स्मरण रहे।
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