अध्याय ७
श्लोक १
जनक उवाच :
मय्यनन्तमहाम्भोधौ* विश्वपोत इतस्ततः।।
भ्रमति स्वान्तवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता।।१।।
(मयि अनन्त महा अम्भुधौ / अम्बुधौ विश्वपोतः इतस्ततः। भ्रमति स्वान्त-वातेन न मम अस्ति असहिष्णुता।।)
अर्थ :
मुझ आत्मारूपी महासमुद्र में विश्वरूपी अनेक पोत यहाँ वहाँ उनकी अपनी शक्ति से वायु की भाँति भ्रमण करते हैं। उनके इस कार्य के प्रति मुझमें कोई असहिष्णुता नहीं है।
*पाठान्तर -- महाम्बोधौ।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಸಪ್ತಮಾಧ್ಯಾಯಃ
ಶ್ಲೋಕ ೧
ಜನಕ ಉವಾಚ --
ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ ವಿಶ್ವಪೋತ ಇತಸ್ತತಃ ||
ಭ್ರಮತಿ ಸ್ವಾನ್ತವಾತುನ ನ ಮಮಾಸ್ಯಸಹಿಷ್ಣುತಾ||೧||
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Ashtavakra Gita
Chapter 7
Stanza 1
Janaka said :
In me, -the boundless ocean, the ark of the universe moves hither and thither, impelled by the wind of its own nature. But I am not impatient.
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