अष्टावक्र गीता
अध्याय १४
श्लोक १
जनक उवाच --
प्रकृत्या शून्यचित्तोयः प्रमादाद्भाव भावनः।।
निद्रितो बोधित इव क्षीणसंसरिणो हि सः।।१।।
(प्रकृत्या शून्यचित्तः यः प्रमादात् भाव भावनः। निद्रितः बोधित इव क्षीणसंसरिणः हि सः।।)
अर्थ : वह जो स्वभाव से तो चित्त / चित्तवृत्ति से रहित है, प्रमाद (अनवधानता) के ही कारण कल्पनाएँ करता हुआ भावनाओं से युक्त प्रतीत होता है। जैसे कि सोए हुए मनुष्य से कुछ कहा जाने पर जैसे तैसे उसकी कोई प्रतिक्रिया होती है, इसी प्रकार उसका चित्त अत्यन्त दुर्बल होकर विषयों आदि में संचरित होता हुआ (मानो) भावों और भावकर्ता (विचार और विचारकर्ता) का रूप ग्रहण कर लेता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೪
ಶ್ಲೋಕ ೧
ಜನಕ ಉವಾಚ --
ಪ್ರಕೃತ್ಯಾ ಶೂನ್ಯಚಿತ್ತೋಯಃ ಪ್ರಮಾದಾತ್ಭಾವಭಾವನಃ||
ನಿದ್ರಿತೋ ಬೋಧಿತ ಇವ ಕ್ಷೀಣಸಂಸರಿಣೋ ಹಿ ಸಃ||೧||
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Ashtavakra Gita
Chapter 14
Stanza 1
Janaka said --
He has verily his worldly life exhausted, who has a mind emptied of (worldly) thoughts by nature spontaneously, who thinks of objects through inadvertence, and who is as it were awake though asleep.
(Effortless emptying of mind)
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