Wednesday, 19 April 2023

यस्त्वं पश्यसि तत्रैकस्त्वमेव

अष्टावक्र गीता

अध्याय १५

श्लोक १४

यस्त्वं पश्यसि तत्रैकस्त्वमेव प्रतिभाससे।।

किं पृथक्भासते स्वर्णात्कटकङ्गदनूपुरम्।।१४।।

(यः त्वं पश्यसि तत्र एकः त्वं एव प्रतिभाससे। किं पृथक् भासते स्वर्णात् कटक -अङ्गद -नुपुरम्।।)

अर्थ : तुम जो कुछ भी, और जिसे भी देखते हो, स्वयं तुम्हारा अपना ही प्रतिभास (प्रतिबिम्ब) है। क्या स्वर्ण से निर्मित कटक -कंगन, अङ्गद - केयूर -भुजबन्ध, और नूपुर आदि का स्वर्ण से पृथक् और भिन्न अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है?

सद्दर्शनम् --

सत्यश्चिदात्मा विविधाकृतिश्चित् 

सिध्येत्पृथक्सत्यचितो न भिन्ना।।

भूषाविकाराः किमु सन्ति सत्यं

विना सुवर्णं पृथगत्र लोके||१३||

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೫

ಶ್ಲೋಕ ೧೪

ಯಸ್ತ್ವಂ ಪಶ್ಯಸಿ ತತ್ರೈಕಸ್-

ತ್ವಮೇವ ಪ್ರತಿಭಾಸಸೇ||

ಕಿಂ ಪೃಥಕ್ ಭಾಸತೇ ಸ್ವರ್ಣಾತ್-

ಕಟಕಾಙ್ಗದನೂಪುರಮ್||೧೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 15

Stanza 14

In whatever you perceive you alone appear. Do bracelets,  armletsand anklets appear different from gold!

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Superimposition : अध्यारोप --

जैसे स्वर्ण से बने आभूषण भिन्न भिन्न नामों और आकृतियों के होने पर भी स्वर्ण ही होते हैं, नाम-आकृतियाँ प्रातिभासिक, और स्वर्ण पर आरोपित होते हैं।

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