अष्टावक्र गीता
अध्याय १५
श्लोक १४
यस्त्वं पश्यसि तत्रैकस्त्वमेव प्रतिभाससे।।
किं पृथक्भासते स्वर्णात्कटकङ्गदनूपुरम्।।१४।।
(यः त्वं पश्यसि तत्र एकः त्वं एव प्रतिभाससे। किं पृथक् भासते स्वर्णात् कटक -अङ्गद -नुपुरम्।।)
अर्थ : तुम जो कुछ भी, और जिसे भी देखते हो, स्वयं तुम्हारा अपना ही प्रतिभास (प्रतिबिम्ब) है। क्या स्वर्ण से निर्मित कटक -कंगन, अङ्गद - केयूर -भुजबन्ध, और नूपुर आदि का स्वर्ण से पृथक् और भिन्न अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है?
सद्दर्शनम् --
सत्यश्चिदात्मा विविधाकृतिश्चित्
सिध्येत्पृथक्सत्यचितो न भिन्ना।।
भूषाविकाराः किमु सन्ति सत्यं
विना सुवर्णं पृथगत्र लोके||१३||
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೫
ಶ್ಲೋಕ ೧೪
ಯಸ್ತ್ವಂ ಪಶ್ಯಸಿ ತತ್ರೈಕಸ್-
ತ್ವಮೇವ ಪ್ರತಿಭಾಸಸೇ||
ಕಿಂ ಪೃಥಕ್ ಭಾಸತೇ ಸ್ವರ್ಣಾತ್-
ಕಟಕಾಙ್ಗದನೂಪುರಮ್||೧೪||
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Ashtavakra Gita
Chapter 15
Stanza 14
In whatever you perceive you alone appear. Do bracelets, armletsand anklets appear different from gold!
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Superimposition : अध्यारोप --
जैसे स्वर्ण से बने आभूषण भिन्न भिन्न नामों और आकृतियों के होने पर भी स्वर्ण ही होते हैं, नाम-आकृतियाँ प्रातिभासिक, और स्वर्ण पर आरोपित होते हैं।
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