Thursday, 30 March 2023

कुत्रापि खेदः कायस्य

अष्टावक्र गीता

अध्याय १३

श्लोक २

कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खिद्यते।।

मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थेस्थितः सुखम्।।२।।

(कुत्र अपि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्र अपि खिद्यते। मनः कुत्र अपि त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम्।।)

अर्थ : कहीं पर शरीर का कष्ट होता है, कहीं जिह्वा (वाणी या भोजन आदि) का, और कहीं मन खिन्न होता है। शरीर, जिह्वा और मन तीनों ही से उदासीन रहते हुए चौथे पुरुषार्थ में स्थित रहना ही सुख है।

(शरीर धर्म का द्योतक है, जिह्वा अर्थ -भोग, और मन काम का, -द्वन्द्व का, यही तीन पुरुषार्थ हैं जो बन्धन और बाध्यता हैं, इनसे उदासीन होना, -मोक्ष अर्थात् चौथा पुरुषार्थ है।)

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ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೩

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಕುತ್ರಾಪಿ ಖೇದಃ ಕಾಯಸ್ಯ

ಜಿಹ್ವಾ ಕುತ್ರಾಪಿ ಖಿದ್ಯತೇ ||

ಮನಃ ಕುತ್ರಾಪಿ ತತ್ ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ

ಪುರುಷಾರ್ಥೇ ಸ್ಥಿತಃ ಸುಖಮ್||೨||

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There is trouble of the body somewhere, trouble of the tongue somewhere, and trouble of the mind somewhere.  Having renounced these, I live happily in life's supreme goal.

(Without identification with the body, tongue and mind, I keep attention focused / fixed in the understanding that I am none of them.)

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