अष्टावक्र गीता
अध्याय १२
श्लोक ७
अचिन्त्यं चिन्त्यमानोपि चिन्तारूपं भजत्यसौ।।
त्यक्त्वा तद्भावनन्तस्मादेवमेवाहमास्थितः।।७।।
(अचिन्त्यं चिन्त्यमानः अपि चिन्तारूपं भजति असौ। त्यक्त्वा तत् भावनं तस्मात् एवं एव अहं आस्थितः।।)
अर्थ : कोई अचिन्त्य तत्त्व का चिन्तन करनेवाला भी उस तत्त्व को चिन्तन / चिन्ता करता हुआ ही प्राप्त करने की चेष्टा करता है। उस प्रकार से की जानेवाली चेष्टा को भी त्यागकर मैं अपने निज नित्य स्वरूप में अधिष्ठित हूँ।
(टिप्पणी : जैसे श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ में 'अहं' पद का प्रयोग दो प्रकार से क्रमशः उत्तम पुरुष एकवचन "मैं" सर्वनाम के रूप में आत्मा के अर्थ में, तथा "वह" के रूप में अन्य पुरुष एकवचन सर्वनाम के रूप में भी "आत्मा" के अर्थ में किया गया है, ठीक वैसे ही यहाँ अध्याय १२ में भी दृष्टव्य है। इन दोनों ही प्रकारों से "अहं" पद का अर्थ ग्रहण कर इस प्रकार से अनायास ही "अहं" पद के वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ के आभासी भेद पर ध्यान आकृष्ट करते हुए उस भेद का निवारण कर दिया गया है।)
ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೨
ಶ್ಲೋಕ ೭
ಅಚಿನ್ತ್ಯಂ ಚಿನ್ತ್ಯಮಾನೋಪಿ ಚಿನ್ತಾರೂಪಂ ಭಜತ್ಯಸೌ||
ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ ತದ್ಭಾವನಂ ತಸ್ಮಾದೇವಮೆವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||೭||
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Ashtavakra Gita
Chapter 12
Stanza 7
Thinking on the Unthinkable One, one betakes oneself only to a form of thought. Therefore giving up that thought, thus I verily do I abide.
Identification with a vritti / thought is the :
"वृत्तिसारूप्यम्"
As is pointed out in the पातञ्जल योग-सूत्र १-४ / Patanjala Yoga-Sutra 1-4 :
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।
Therefore meditating over / Thinking of the अचिन्त्य / Unthinkable is itself an obstruction in the Self-Realization.
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