अष्टावक्र गीता
अध्याय २
श्लोक १०
मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येवलयमेष्यति।।
मृदि कुम्भोजले वीचिः कनके कटकं यथा।।१०।।
(मत्तः विनिर्गतं विश्वं मयि एव लयं एष्यति। मृदि कुम्भः जले वीचिः कनके कटकं यथा।।)
अर्थ :
जैसे मिट्टी से बना घट टूटकर अंततः मिट्टी ही हो जाता है, जल में उठी तरंग जल में ही विलीन हो जाती है, और स्वर्ण से बना हुआ कंकण या आभूषण, उसकी आकृति बदल जाने पर भी स्वर्ण ही होता है, उसी प्रकार, यह विश्व भी मुझसे ही व्यक्त-रूप ग्रहण करता है एवं पुनः मुझमें ही इसका लय हो जाएगा।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಯಾಯ ೨
ಶ್ಲೋಕ ೧೦
ಮತ್ತೋ ವಿನಿರ್ಗತಂ ವಿಶ್ವಂ
ಮಯ್ಯೇವ ಲಯಮೇಷ್ಯತಿ||
ಮೃದಿ ಕೀಮ್ಭೋ ಜಲದ ವೀಚಿಃ
ಕನಕೇ ಕಟಕಂ ಯಥಾ ||೧೦||
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Ashtavakra Gita
Chapter 2
Stanza 10
Just as a jar dissolves into earth, a wave into water, or a bracelet into gold, even so, the universe which has emanated from Me, will dissolve into Me.
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