अष्टावक्र गीता
अध्याय २
श्लोक ७
आत्माज्ञानाज्जगद्भाति आत्मज्ञानान्न भासते।।
रज्ज्वज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद्भासते नहि।।७।।
अर्थ :
जिस समय रज्जु में सर्प का आभास-रूपी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, उस समय रज्जु का ज्ञान विलुप्त हो जाता है और यह (रज्जु नहीं है, यह) सर्प है, इस प्रकार का आभास-रूपी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इसी तरह जगत् की प्रतीति भी आत्मा के अज्ञान के कारण उत्पन्न होती है, और आत्मा का ज्ञान होते ही जगत् की प्रतीति शेष नहीं रह जाती।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೨
ಶ್ಲೋಕ ೭
ಆತ್ಮಾಜ್ಞಾನಾಜ್ಜಗದ್ಬಾತಿ ಆತ್ಮಜ್ಞಾನವನ್ನು ಭಾಸತೇ||
ರಜ್ಜ್ವಜ್ಞಾನಾದಹಿರ್ಭಾತಿ ತಜ್ ಜ್ಞಾದ್ಭಾಸತೇ ನಹಿ ||೭||
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Ashtavakra Gita
Chapter 2
Stanza
The snake appears from the non-cognition of the rope, and disappears with the cognition. In the same way, the world appears from the ignorance of the Self, and it disappears with the knowledge of the Self.
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