अष्टावक्र गीता
अध्याय १
श्लोक १२
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय।।
आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्।।१२।।
(कूटस्थं बोधं अद्वैतं आत्मानं परिभावय।।
आभासः अहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यं अथ अन्तरम्।।)
अर्थ :
आभासरूपी अहं (अर्थात् अहंकार) को भ्रम जानकर, अन्तर में प्रतीत होने वाले उस बाह्य भ्रम से मुक्त होकर, "आत्मा कूटस्थ है", इस प्रकार से (अपने हृदय में जो आत्मा विद्यमान है, उस) आत्मा के स्वरूप का जो अद्वैत सत्य है, उस अद्वैत सत्य का अनुशीलन (ध्यान / Meditation upon) करो।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧
ಶ್ಲೋಕ ೧೨
ಕೂಟಸ್ಥಂ ಬೋಧಮದ್ವೈತ-
ಮಾತ್ಮಾನಂ ಪರಿಭಾವಯ ||
ಆಭಾಸೋऽಹಂ ಭ್ರಮಂ ಮುಕ್ತವಾ-
ಭಾವಂ ಬಾಹ್ಯಮಥಾನ್ತರಮ್||೧೨||
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Ashtavakra Gita
Chapter 1
Stanza 12
Having given up external and internal self-modifications and the illusion, that you are the reflected self (individual soul), Meditate on the Atman as non-dual and immovable Intelligence only.
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