Sunday, 27 November 2022

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता...

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १४

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम्।।

अज्ञानाद्भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरञ्जनः।।१५।।

अर्थ :

ज्ञान (ज्ञात), ज्ञेय (विषय) तथा ज्ञाता इन तीनों रूपों में जिसका वर्गीकरण किया जाता है, वैसी सत्य वस्तु कोई नहीं होती। यह तीनों जहाँ जिस अधिष्ठान में अज्ञान से ही भासित होते हैं और सत्य को आवरित कर सत्य प्रतीत होते हैं, वह अधिष्ठान आत्मा (मैं) ही एकमात्र वास्तविकता है। 

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इसकी तुलना श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १८ के निम्न श्लोक से की जा सकती है :

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।१८।।

चूँकि कर्म जड अर्थात् असत् है : 

कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम्।।

कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।१।।

(महर्षि श्री रमणकृत उपदेश-सारः) इसलिए भी कर्म की प्रेरणा देनेवाले ये तीनों कर्म के कारण भी इसी प्रकार से असत् ही हैं।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೫

ಜ್ಞಾನಂ ಜ್ಜೇಯಂ ತಥಾ ಜ್ಞಾತಾ

ತ್ರಿತಯಂ ನಾಸ್ತಿ ವಾಸ್ತವಮ್||

ಅಜ್ಞಾನಾದ್ಭಾತಿ ಯತ್ರೇದಂ

ಸೋऽಹಮಸ್ಮಿ ನಿರಞಜನಃ||೧೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 15

Knowledge (विषयात्मक इन्द्रियज्ञान), knower (विषयी) and knowable (विषय) -- these three do not in reality exist. I am That Stainless Self (निरञ्जन आत्मन्), in which this triad appears through ignorance.

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