अष्टावक्र गीता
अध्याय २
श्लोक १४
अहो अहं नमो मह्यं यस्य मे नास्ति किञ्चन।।
अथवा यस्य मे सर्वं यद्वाङ्मानसगोचरम्।।१४।।
अर्थ :
अहो! उस (अद्वय)आत्मा की महिमा को नमस्कार है! जिसके लिए कुछ भी मेरा / अपना इसलिए नहीं है, क्योंकि उससे अन्य कुछ वस्तुतः है ही नहीं! अथवा, मन, वाणी एवं इन्द्रियगम्य, यह सब जो कुछ भी है, आदि सब जिसका अत्यन्त ही अपना निज एवं पूर्णतः एकमात्र वही है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೨
ಶ್ಲೋಕ ೧೪
ಅಹೋ ಅಹಂ ನಮೋ ಮಹ್ಯಂ
ಯಸ್ಯ ಮೇ ನಾಸ್ತಿ ಕಿಞ್ಚನ||
ಅಥವಾ ಯಸ್ಯ ಮೇ ಸರ್ವಂ
ಯದ್ವಾಙ್ಮನಸ-ಗೋಚರಮ್||೧೪||
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Ashtavakra Gita
Chapter 2
Stanza 14
Wonderful am I! Adoration to Myself! Who have nothing or have all that is thought and spoken of!
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ब्रह्मन् / आत्मन् Brahman / Atman is devoid of all the three types of categories!/ distinctions :
सजातीय - Of its own kind,
विजातीय - Of another kind, and,
स्वगत - Of and within as a part of itself.
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