Thursday, 10 November 2022

निरपेक्षो निर्विकारो

अष्टावक्र गीता

अध्याय १

श्लोक १६

निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।।

अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः।।१६।।

अर्थ :

तुम अपेक्षारहित, निर्विकार, पूर्ण और स्वतन्त्र, असीम शान्ति से परिपूर्ण, अगाध और अक्षुब्ध-बुद्धियुक्त हो। केवल अपने उसी चित्-स्वरूप तत्व में अधिष्ठित रहने के अभिलाषी रहो!

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(जैसा कि सुश्री वृन्दावनेश्वरी माताजी कहती हैं : श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १२ के श्लोकों १३ से २० तक के निम्नलिखित श्लोकों से इसकी जा सकती है --

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।।

निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।१३।।

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।।

मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।१४।।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।१५।।

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।।

सर्वारम्भपरित्यागी ये मद्भक्तः स मे प्रियः।।१६।।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।१७।।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।१९।।

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।२०।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೬

ನಿರಪೇಕ್ಷೋ ನಿರ್ವಿಕಾರೋ ನಿರ್ಭರಃ ಶೀತಲಾಶಯಃ||

ಅಗಾಧಬುದ್ಧಿರಕ್ಷುಬ್ಧೋ ಭವ ಚಿನ್ಮಾತ್ರಷಾಸನಃ ||೧೬||

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You are Unconditioned, Immutable, Form-less, Unimpassioned, of un-fathomable intelligence and unperturbed.

Desire for Cit (Pure impeccable Immaculate Awareness) alone.

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