अष्टावक्र गीता
अध्याय १
श्लोक १६
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः।।१६।।
अर्थ :
तुम अपेक्षारहित, निर्विकार, पूर्ण और स्वतन्त्र, असीम शान्ति से परिपूर्ण, अगाध और अक्षुब्ध-बुद्धियुक्त हो। केवल अपने उसी चित्-स्वरूप तत्व में अधिष्ठित रहने के अभिलाषी रहो!
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(जैसा कि सुश्री वृन्दावनेश्वरी माताजी कहती हैं : श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १२ के श्लोकों १३ से २० तक के निम्नलिखित श्लोकों से इसकी जा सकती है --
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।१३।।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।१४।।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।१५।।
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।।
सर्वारम्भपरित्यागी ये मद्भक्तः स मे प्रियः।।१६।।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।१७।।
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।१९।।
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।२०।।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧
ಶ್ಲೋಕ ೧೬
ನಿರಪೇಕ್ಷೋ ನಿರ್ವಿಕಾರೋ ನಿರ್ಭರಃ ಶೀತಲಾಶಯಃ||
ಅಗಾಧಬುದ್ಧಿರಕ್ಷುಬ್ಧೋ ಭವ ಚಿನ್ಮಾತ್ರಷಾಸನಃ ||೧೬||
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You are Unconditioned, Immutable, Form-less, Unimpassioned, of un-fathomable intelligence and unperturbed.
Desire for Cit (Pure impeccable Immaculate Awareness) alone.
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