अष्टावक्र गीता
अध्याय १
श्लोक १०
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।।
किंवदन्तीह सत्येयं यामतिस्सा गतिर्भवेत्।।१०।।
(मुक्त-अभिमानी मुक्तः हि, बद्धः बद्ध-अभिमानी अपि।
किं वदन्ति इह सत्य इयं या मतिः सा गतिः भवेत्।।)
अर्थ :
जो आत्मा को अर्थात् अपने आपको (अविकारी, अविनाशी, नित्य, शुद्ध, बुद्ध) मुक्त जानता है, वह वस्तुतः और अवश्य मुक्त ही है, जबकि जो अपने आपके बारे में "मैं बद्ध हूँ" ऐसी मान्यता से ग्रस्त रहता है, वह इसी मान्यता से, इसलिए बद्ध ही होता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಯಾಯ ೧
ಶ್ಲೋಕ ೧೦
ಮಿಕ್ತಾಭಿಮಾನೀ ಮುಕ್ತೋ ಹಿ ಭದ್ಧೇ ಬತ್ಧಾಭಿಮಾನ್ಯಪಿ ||
ಕಿಂ ವದನ್ತೀಹ ಸತ್ಯೇಯಂ ಯಾ ಮತಿಸ್ಸಾ ಗತಿರ್ಭವೇತ್ ||
--೧೦--
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Ashtavakra Gita
Chapter 1
Stanza 10
One who considers oneself free is free indeed and one who considers oneself bound remains bound.
"As one thinks, so one becomes" is a popular saying in this world, which is true.
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