Monday, 28 November 2022

द्वैतमूलमहोदुःखं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १६

द्वैतमूलमहोदुःखं नान्यस्तस्यास्ति भेषजम्।।

दृश्यमेतन्मृषासर्वं एकोऽहं चिद्रसोऽमलः।।१६।।

(द्वैतमूलं अहो दुःखं न अन्यः तस्य अस्ति भेषजम्। दृश्यं एतत् मृषा सर्वं एकः अहं चित्-रसः अहम्।।)

अर्थ :

(दृक् और दृश्य के बीच, दृष्टा और दृष्ट के बीच का भेद सत्य है, यह कल्पना अर्थात्) द्वैत की कल्पना ही मूलतः एकमात्र दुःख, अर्थात् व्याधि है, जिसकी चिकित्सा कर सके ऐसा कहीं कोई चिकित्सक नहीं है। यह समस्त दृश्यमात्र मिथ्या आभास मात्र ही है, और केवल आत्मा जिसका स्वरूप चैतन्य (चेतनता / चेतना) मात्र है वही चित्-रस एकमात्र सत्यवस्तु है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೬

ದ್ವೈತಮೂಲಮಹೋತುಃಖಂ

ನಾನ್ಯತ್ತಯ್ಯಾಸ್ತಿ ಭೇಷಜಮ್||

ದೃಶ್ಯಮೇತನ್ಮೃಷಾಸರ್ವಂ

ಏಕೋऽಹಂ ಚಿದ್ರಸೋऽಮಲಃ||೧೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 16

Oh!  Duality is the root of misery.

There is no other remedy for it except the realization that all objects of experience are false and that I am One, pure, Intelligence and Bliss.

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