अष्टावक्र गीता
अध्याय १७
श्लोक ८
कृतार्थोऽनेनज्ञानेनेत्येवं गलितधीःकृती।।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्ननास्ते यथासुखम्।।८।।
(कृतार्थः अनेन ज्ञानेन इति एवं गलितधीःकृती। पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्नन् आस्ते यथासुखम्।।)
अर्थ : इसी (पिछले श्लोक ७ में कहे गए अनुसार ज्ञान को प्राप्त और उस पर आश्रित ज्ञानी) ज्ञान के कारण लौकिक बुद्धि और कर्म आदि के विगलित हो जाने से दूसरों की तरह देखता, छूता, सूँघता, सुनता और खाता पीता हुआ सुख से रहता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭
ಶ್ಲೋಕ ೮
ಕೃತಾರ್ಥೋऽನೇನ ಜ್ಞಾನೇನೇ-
ತ್ಯೇವಂ ಗಲಿತಧೀಃಕೃತೀ||
ಪಶ್ಯನ್ ಶೃಣ್ವನ್ ಸ್ಪೆಶನ್
ಜಿಘೃನ್ನಶ್ನನ್ನ್ನಾಸ್ತೇ ಯಥಾಸುಖಮ್||೮||
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Ashtavakra Gita
Chapter 17
Stanza 8
Being fulfilled by this Knowledge (Jnana, as is described in the last stanza 7) and with his mind absorbed in this Knowledge (JnAna), and contented, the wise one lives happily, seeing, hearing, touching, smelling and eating.
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