अष्टावक्र गीता
अध्याय १७
श्लोक ७
वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।।
यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम्।।७।।
(वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषः तस्य च स्थितौ। यथा जीविकया तस्मात् धन्य आस्ते यथासुखम्।।)
अर्थ : (जिस उदार-चित्त, का उल्लेख श्लोक ६ में किया गया) उसे न तो जगत् का विलय या प्रलय हो जाए ऐसी कोई इच्छा होती है, और न ही इसके अस्तित्वमान होने से कोई असंतोष ही होता है। धन्य है वह, येन केन प्रकारेण जिस किसी भी तरह से जीवन उसके जीवन का निर्वाह हो, वह उसी में यथासुख स्थित होता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭
ಶ್ಲೋಕ ೭
ವಾಞ್ಛಾ ನ ವಿಶ್ಶಶಿಲಯೇ
ನ ದ್ವೇಷಸ್ತಸ್ಯ ಚ ಸ್ಥಿತೌ ||
ಯಥಾ ಜೀವಿಕಯಾ ತಸ್ಮಾದ್ನ್ಯ
ಆಸ್ತೇ ಯಥಾಸುಖಮ್||೭||
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Ashtavakra Gita
Chapter 17
Stanza 7
The man of Knowledge (Jnani) does not feel any desire for the dissolution of the universe or aversion to its existence.
The Blessed One, therefore lives happily on whatever subsistence comes of itself.
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