अष्टावक्र गीता
अध्याय १६
श्लोक ९
हातुमिच्छति संसारं रागी दुःखजिहासया।।
वीतरागो हि निर्दुःखस्तस्मिन्नपि न खिद्यति।।९।।
(हातुम् इच्छति संसारं रागी दुःख-जिहासया। वीतरागः हि निर्दुःखः तस्मिन् अपि न खिद्यति।।)
अर्थ : (जिसकी विषयों में सुख प्रतीत होने से उनमें सुख-बुद्धि होने से) उसे संसार के विषयों के प्रति राग होता है, किन्तु जब उसे उनसे दुःख प्राप्त होने लगता है, तो वह रागी संसार को ही त्याग देना चाहता है। किन्तु राग और विराग से उदासीन किसी वीतराग के लिए कोई दुःख नहीं होता, इसलिए वह किसी भी दशा में खिन्न नहीं होता।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೬
ಶ್ಲೋಕ ೯
ಹಾತುಮಿಚ್ಛತಿ ಸಂಹಾರಂ ರಾಗೀ ದುಃಖಜಿಹಾಸಯಾ||
ವೀತರಾಗೋ ಹಿ ನಿರ್ದುಃಖಸ್ತಸ್ಮನ್ನಪಿ ನ ಖಿದ್ಯತಿ||೯||
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Ashtavakra Gita
Chapter 16
Stanza 9
One who is attached to the world wants to renounce it in order to avoid sorrow. But one without attachment is free from sorrow and does not feel miserable even there.
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