अष्टावक्र गीता
अध्याय १७
श्लोक १
अष्टावक्र उवाच --
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा।।
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु यः।।१।।
(तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योग-अभ्यास-फलं तथा। तृप्तः स्वच्छ - इन्द्रिय नित्यं एकाकी रमते तु यः।।)
अर्थ : अष्टावक्र ने कहा :
जिसकी इन्द्रियाँ शुद्ध अर्थात् निर्मल हो चुकी हैं, और जो नित्य ही एकाकी होते हुए ही आत्मा में ही रमता हुआ प्रसन्न है, ज्ञान और योग दोनों ही का फल प्राप्त कर लेता है।
इस अध्याय में इसकी ही पुष्टि की गई है कि ज्ञान अर्थात् साँख्य और योग अर्थात् अभ्यास दोनों ही प्रकार की निष्ठाओं से एक ही फल की प्राप्ति होती है :
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४ के अनुसार --
श्रीभगवानुवाच :
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंञ्छिन्नसंशयं।।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।४१।।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।४२।।
इति ... ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम / ब्रह्मयज्ञप्रशंसा नाम चतुर्थोऽध्यायः।।
अथ पञ्चमोऽध्यायः
अर्जुन उवाच --
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।
श्रीभगवानुवाच --
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।१।।
कस्मात्? इति आह --
ज्ञेयः स नित्य संन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।२।।
अपि,
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।
योग से रहित संन्यास का फल --
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।।६।।
इस प्रकार साङ्ख 'दर्शन' और विवेक दृष्टि है, जबकि योग कर्म और अभ्यास है। दोनों के संयुक्त होने पर ब्रह्म-प्राप्ति शीघ्र ही हो जाती है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಸಪ್ತದಶಾಧ್ಯಾಯಃ
ಶ್ಲೋಕ ೧
ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ --
ತೇನ ಜ್ಞಾನಫರಂ ಪ್ರಾಪ್ತಂ
ಯೋಗಾಭ್ಯಾಸಫಲಂ ತಥಾ||
ತೃಪ್ತಃ ಸ್ವಚ್ಛೇನ್ದ್ಲಾಯೋ ನಿತ್ಯಮೇಕಾಕೀ
ರಮತೇ ರಮತೇ ತು ಯಃ||೧||
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Ashtavakra Gita
Chapter 17
Stanza 1
He has gained the fruit of knowledge (ज्ञान / साङ्ख) as well as of the practice of Yoga, who, contented and with purified senses, ever enjoys in solitude (one-ness).
Please refer to :
The Chapter 4 verses 41, 42 and the Chapter 5 verses 1, 2, 3, 4, 5, 6, of श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४, and अध्याय ५ - Shrimadbhagvadgita.
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