अष्टावक्र गीता
अध्याय १६
श्लोक ७
हेयोपादेयता तावत्संसारविटपाङ्कुरः।।
स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचारदशास्पदम्।।७।।
(हेय - उपादेयता यावत् तावत् संसार - विटप - अङ्कुरः। स्पृहा जीवति यावत् वै निर्विचार - दशा - आस्पदम्।।)
अर्थ : जब तक किसी से छुटकारा पाना या कुछ प्राप्त करना है, तब तक संसाररूपी वृक्ष का बीज और अङ्कुर विद्यमान रहता है। जब तक कामना विद्यमान रहती है तब तक कुछ प्राप्त करने और कुछ त्याग करने की आवश्यकता अनुभव होती रहती है। इच्छा ही संसार-रूपी वृक्ष का बीजाङ्कुर है । विचार ही संसार का बीजाङ्कुर है। संसाररूपी इस वृक्ष के इस बीज के अंकुरित होने की भूमि विवेक अर्थात् निर्विचार चेतना ही है। विवेक-रूपी इस भूमि को जान लिए जाने तक ही संसार-रूपी इस वृक्ष का इच्छा-रूपी यह बीजाङ्कुर जीवित रहता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೬
ಶ್ಲೋಕ ೭
ಹೇಯೋಪಾದೇಯತಾ ತಾವತ್
ಸಂಸಾರವಿಟಪಾಂಕುರಃ||
ಸ್ಪೃಹಾ ಜೀವತಿ ಯಾವದ್ವೈ
ನಿರ್ವಿಚಾರದಶಾಸ್ಪದಮ್||೬||
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Ashtavakra Gita
Chapter 16
Stanza 7
As long as desire, which is the abode of the state of indiscrimination, continues, there will verily be the sense of attachment and aversion, which is the branch and sprout of (the tree of) Samsara.
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