अष्टावक्र गीता
अध्याय १७
श्लोक ९
शून्यादृष्टिर्वृथाचेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे।।९।।
(शून्यादृष्टिः वृथाचेष्टाः विकलानि इन्द्रियाणि च। न स्पृहा न विरक्तिः वा क्षीण-संसार-सागरे।।)
अर्थ : (गत दोनों श्लोकों में वर्णित) इस ज्ञान को जो प्राप्त कर कृतार्थ हो चुका, संसार रूपी सागर उसके लिए मानों सूख ही जाता है। उसे संसार में कुछ नहीं दिखलाई देता और कुछ ऐसा भी उसके लिए कर्तव्य नहीं रह जाता जिसे करने या न करने से उसका कोई प्रयोजन होता हो। उसे सभी चेष्टाएँ अर्थहीन प्रतीत होती हैं। और इस संसार के प्रति उसकी न तो कोई कामना होने से इसके प्रति उसे न तो राग और न ही द्वेष होता है।
चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम् --
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्वे कः संसारः।।१०।।
भज गोविन्दम् मूढमते।।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭
ಶ್ಲೋಕ ೯
ಶೂನ್ಯಾದೃಷ್ಟಿರ್ವೃಥಾಚೇಷ್ಟಾ ವಿಕಲಾನೀನ್ದ್ರಿಯಣಿ ಚ||
ನ ಸ್ಪೃಹಾ ನ ವಿರಕ್ತಿರ್ವಾಕ್ಷೀಣಸಂಸಾರಸಾಗರೇ||೯||
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Ashtavakra Gita
Chapter 17
Stanza 9
There is no attachment or non-attachment in one whom the ocean of the world has dried up.
His look is objectless (vacant as if there is no object he could see in the world), action purposeless and the senses inoperative.
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