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महात्मा और महापुरुष
इस पोस्ट को लिखने से अपने आपको बहुत रोका, फिर सोचा कि लिखकर कुछ समय बाद डिलीट कर दूँगा।
प्रायः रात्रि में तीन बजे नींद खुल जाती है। पता नहीं कि क्या इसका कोई विशेष कारण होता है या यह बस एक संयोग ही है। बरसों से ऐसा है इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। और इस पर भी कभी ध्यान नहीं दिया कि नींद से जागते ही लघुशंका के लिए जाना होता है। क्या मेरे साथ ही ऐसा है? या कि दूसरे सभी के साथ भी ऐसा होता है, इस पर भी कभी ध्यान नहीं गया।
वर्ष 1991 में जब नर्मदा किनारे रहता था और जब भी नहाने के लिए नदी में उतरता था तो भी यही होता था। अचानक लघुशंका का वेग जाग्रत हो उठता था। नदी या जलाशय में ऐसा करना शास्त्र के अनुसार भी निषिद्ध है यह भी बहुत पहले से पता था इसलिए मैंने नदी में स्नान करने ही बंद कर दिया। फिर सोचा पहले नदी से बाहर कुछ लोटा जल शरीर पर उँडेल कर नदी से कुछ दूर इस वेग से मुक्त होकर फिर नदी में प्रवेश किया जाए। किन्तु यह भी कभी कभी इसलिए संभव न हो पाता था क्योंकि आसपास बहुत से दूसरे लोग हो सकते थे। तब से अब तक कभी नदी में स्नान ही नहीं किया। एक बार नदी से इस बारे में मन ही मन प्रश्न किया तो वह बोली - सभी प्राणी मेरे लिए वैसे ही हैं जैसे किसी माता का नवजात शिशु उसके लिए होता है। पर मैं इस तर्क को स्वीकार न कर पाया। अभी कुछ समय पहले एक स्थान पर किन्हीं महात्मा जी के द्वारा इन स्थितियों का उल्लेख किए जाने पर मेरा ध्यान इस ओर गया। ऐसे ही एक और महापुरुष का स्मरण हुआ जो बचपन में कुएँ में उतरकर नहाते थे, जिसका उल्लेख उन्होंने स्वयं ही किया था।
हो सकता है कि शरीर-मनोविज्ञान की दृष्टि से यह घटना किसी विशेष महत्वपूर्ण तथ्य की सूचक होती है। शायद इसलिए भी क्योंकि इस प्रकार से शीतल या उष्ण पानी से स्नान करते समय मन में न चाहते हुए भी अनायास ही एकत्र हुए अनेक दबावों और कुंठाओं से भी क्षण भर में ही मुक्ति हो जाने होने से मन एकाएक ही बहुत हल्का और प्रफुल्ल भी हो जाता है। और महात्मा जी ने इसका भी उल्लेख किया था।
किन्तु यह भी लगा कि सनातन धर्म में विभिन्न मुहूर्तों पर तीर्थों में स्नान को इतना महत्वपूर्ण क्यों कहा गया होगा। जिन देशों में नदियाँ और तालाब आदि नहीं हैं वहाँ पर भी समुद्रों के तट पर लोग प्रसन्न होकर जलक्रीड़ा करना चाहते हैं!
स्पष्ट है कि इस प्रकार से मन अनायास ही उस अवस्था में चला जाता है जिसे प्राप्त करने के लिए बड़े बड़े योगी, तपस्वी जप तप, उपासना और व्रतों आदि अनेक कठिन तरीकों का प्रयोग करते हैं।
क्षण भर के लिए मन निर्भर हो जाता है और निर्विचार अवस्था में स्वभावस्थ हो जाता है। स्वभाव कोई वृत्ति न होकर वह अवस्था है जब अपने आपके दृष्टा-मात्र होने की वास्तविकता स्वयं पर अनायास प्रकट / उद्घाटित हो उठती है।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।
फिर अचानक यह बोध भी उत्पन्न हुआ कि प्राणिमात्र में काम के प्रति इतना प्रबल और स्वाभाविक आकर्षण क्यों होता है?
काम-कृत्य की चरम पूर्णता में मुक्ति प्राप्त होने का जो परम आनन्द मन को क्षण भर के लिए अनुभव होता है, क्या उसकी ही स्थायी प्राप्ति के लिए मन हमेशा ही लालायित नहीं रहता?
क्या तुरंत ही कोई वृत्ति आकर उस अनुभव को आवरित नहीं कर लेती है?
संभोग से समाधि की ओर
के दर्शन को प्रस्तुत करनेवाले महापुरुष शायद इसी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते थे।
सिद्धान्ततः इससे इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु इस दर्शन की गहराई को समझनेवाले इने गिने लोग ही हो सकते हैं। और शायद इसीलिए किसी में इतना साहस नहीं हो सका कि सरलता से उन महापुरुष के दर्शन को खुले आम स्वीकार कर सकें। और यदि किसी में ऐसा साहस था भी तो वे कुछ भोगवादी पाश्चात्य विचार के समर्थक जिन्हें सतत और अंतहीन भोग में ही जीवन की चरम सार्थकता प्रतीत होती थी।
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