Saturday 31 December 2022

धीरस्तु भोज्यमानोऽपि

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ९

धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा।।

आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति।।९।।

(धीरः तु भोज्यमानः अपि पीड्यमानः अपि सर्वदा। आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति।।)

अर्थ : परन्तु धीर पुरुष न तो अनुकूल सेवा और उपहार इत्यादि के प्राप्त होने पर हर्षित होता है और न ही प्रतिकूल पीडा आदि के प्राप्त होने पर उद्विग्न या कुपित होता है।

§ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५ :

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।।

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।।२०।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೯

ಧೀರಸ್ತು ಭೋಜ್ಯಮಾನೋऽಪಿ

ಪೀಡ್ಯಮಾನೋऽಪಿ ಸರ್ವದಾ||

ಆತ್ಮಾನಂ ಕೇವಲಂ ಪಶ್ಯನ್

ನ ತುಷ್ಯತಿ ನ ಕುಪ್ಯತಿ||೯||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 9

But feted and feasted or tormented, the serene ever see the absolute Self and is thus neither gratified nor angry.

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Friday 30 December 2022

इहामुत्रविरक्तस्य

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ८

इहामुत्रविरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः।।

आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।।८।।

(इह-अमुत्र विरक्तस्य नित्य-अनित्य-विवेकिनः। आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षात् एव विभीषिका।।)

अर्थ : यह भी आश्चर्य ही है कि जिसे इस लोक के और इसके बाद के भी समस्त लोकों के सारे पदार्थों से अत्यन्त वैराग्य हो चुका है, और नित्य तथा अनित्य के विवेक की प्राप्ति हो चुकी है, वह मोक्ष-प्राप्ति की कामना और चिन्ता रूपी विभीषिका से ग्रस्त या त्रस्त हो!

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ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೮

ಇಹಾಮುತ್ರವಿರಕ್ತಸ್ಯ

ನಿತ್ಯಾನಿತ್ಯವಿವೇಕಿನಃ||

ಆಶ್ಚರ್ಯಂ ಮೇಕ್ಷಕಾಮಸ್ಯ

ಮೇಕ್ಷಾದೇವ ವಿಭೀಷೀಕಾ ||೮||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 8

It is strange that one who is unattached to the objects of this world and the next, who discriminates the eternal from the non- eternal, and who longs for emancipation, should fear emancipation itself. 

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Thursday 29 December 2022

उद्भूतंज्ञानदुर्मित्रम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ७

उद्भूतंज्ञानदुर्मित्रमवधार्याति दुर्बलः।।

आश्चर्यं काममाकांक्षेत् कालमन्तमनुश्रितः।।७।।

(उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रं अवधार्याति दुर्बलः। आश्चर्यं कामं आकाँक्षेत् कालं अन्तं अनुश्रितः।।)

अर्थ : आश्चर्य की बात है कि कामना (आत्म-)ज्ञान की शत्रु है, और अन्तकाल भी समीप है, इसे ठीक से जानने पर भी, फिर भी कोई अत्यन्त वृद्ध, दुर्बल मनुष्य, विषयों के उपभोग करने की आकांक्षा से लालायित रहे । 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೭

ಉದ್ಭೂತಂ ಜ್ಞಾನದುರ್ಮಿತ್ರ-

ಮವಧಾರ್ಯಾತಿ ದುರ್ಬಲಃ||

ಆಶ್ಚರ್ಯಂ ಕಾಮಮಾಕಾಂಕ್ಷೇತ್ 

ಕಾಲಮನ್ತಮನಾಶ್ರಿತಃ||೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 7

It is strange that knowing lust to be enemy of knowledge, one who has grown extremely weak and reached one's last days, should yet be eager for sensual enjoyments. 

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Wednesday 28 December 2022

The Love is The Alchemy.

प्रेम और भक्ति!

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अपने प्रेम को इतना अधिक परिशुद्ध कर लो कि वह भक्ति में रूपान्तरित हो जाए, या फिर स्वयं को ही प्रेम के हाथों में सौंप दो, ताकि वही तुम्हें पूर्ण परिशुद्ध कर भक्ति से परिपूर्ण कर दे!

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सन्दर्भ :

अष्टावक्र गीता अध्याय ३, श्लोक ६,

तथा,

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३, श्लोक २०

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LOVE AND DEVOTION.

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Either Purify your Love so as to make it the Purest; - the Devotion,

Or let the Love purify you so as to make you the Purest; - the Devotee!

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This refers to :

Ashtavakra Gita - Chapter 3, Stanza 6, and Shrimadbhagvad-gita - Chapter 3, stanza 20.

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आस्थितं परमाद्वैतम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ६

आस्थितं परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः।।

आश्चर्यं कामवशगो विकलः केलिशिक्षया।।६।।

अर्थ : यह आश्चर्य ही है कि कोई परम अद्वैत में प्रतिष्ठित रहते हुए भी और मोक्षप्राप्ति के लिए तत्पर और सुव्यवस्थित होकर भी कामविह्वल होकर शृङ्गार-भावना में पूरी तरह निमग्न हो!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅನ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೬

ಆಸ್ಥಿತಃ ಪರಮಾದ್ವೈತಂ ಮೋಕ್ಷಾರ್ಥೇऽಪಿ ವ್ಯವಸ್ಥಿತಃ||

ಆಶ್ಚರ್ಯಂ ಕಾಮವಶಗೋ ವಿಕಲಃ ಕೆಲಿಶಿಕ್ಷಯಾ ||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 6

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Strange indeed! Abiding in the Supreme non-duality and intent on liberation, one should yet be subject to lust and be unsettled by the practice of amorous pastimes!

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Tuesday 27 December 2022

Turning out a new leaf.

In Between - The Role of Destiny (daivam) :

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The Chapters 3 to 6 of Ashtavakra Gita are a bit difficult to comprehend and understand correctly with no least doubt about the sense and the meaning.

A few days ago through some divine hint, I chanced upon to glance over my old books. There were several like : 

Crumbs From His Table

Day by Day with Bhagawan

Mahayoga of Sri Ramana Maharshi,

And,

Talks with Sri Ramana Maharshi. 

In one of the Books as referred to as above, a devotee asks Sri Ramana :

"Are only the incidences of importance like career, marriage, death and such other chief events chalked out in one's life, or those also  which are just of trivial importance, like the  glass that is there on the table with some or little water in it?"

To this Sri Ramana said:

"Everything is destined to happen the way it has been chalked out."

"Not a leaf stirs without God's Command."

The words said above also bear the same truth.

This is exactly what could be treated as the daiva; as is pointed out in Shrimadbhagvad-gita chapter 18, verse 13,14,19 :

पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।।

प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्रुणु तान्यपि।।१९।।

Along with let us associate the one of chapter 6, verse 34 :

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवान अपि।।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।३४।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ६)

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Then we can perhaps see and understand how a jnaani stays undisturbed aloof and unperturbed though may outwardly seem so to others.

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अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ५

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।।

मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते।।५।।

अर्थ : यह आश्चर्य ही है कि समस्त भूतमात्र में आत्मा (अपने) को ही और आत्मा (अपने) में समस्त भूतमात्र को देखता हुआ मुनि भी अपनी प्रकृति से प्रेरित होकर तदनुसार ही बर्ताव किया करता है।

(और इसलिए लौकिक और सांसारिक नैतिक मूल्यों का पालन करने का बन्धन उस पर लागू नहीं होता।)

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಸರ್ವಭೂತೇಷು  ಚಿತ್ಮಾನಂ ಸರ್ವಭೂತಾನಾ ಚಾತ್ಮನಿ||

ಮುನೆರ್ಜಾನತ ಆಶ್ಚರ್ಯಂ ಮಮತ್ವಮನುವರ್ತತೇ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 5

It is strange that the sense of ownership should continue even in the sage who has realised the Self in all and all in the Self.

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Monday 26 December 2022

श्रुत्वाऽपि शुद्धचैतन्यम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ४

श्रुत्वाऽपि शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्।।

उपस्थेऽत्यन्त संसक्तो मालिन्यमधिगच्छति।।४।।

अर्थ : शास्त्रों और आत्म-ज्ञानियों के मुख से यह सुनकर भी कि अपनी यह आत्मा शुद्ध, चैतन्य-स्वरूप और परम श्रेष्ठ, सुन्दर है, जिस मनुष्य का चित्त इस आत्मा से अन्य अनेक अनित्य और अशुद्ध वस्तुओं की ओर आकर्षित, उनमें संलिप्त और आसक्त है, वह मलिनता और ग्लानि को ही प्राप्त करता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಶ್ರುತ್ವಾऽಪಿ ಶುದ್ಥಚೈತನ್ಯಮಾತ್ಮಾನಮತಿಸುನ್ದರಂ||

ಉಪಸ್ಥೇऽತ್ಯನ್ತ ಸಂಸಕ್ತೋಮಾಲಿನ್ಯಮಧಿಗಚ್ಛತಿ||೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 4

Even after hearing (clearly, and repeatedly from the scriptures and sages) oneself to be pure Intelligence and surpassingly beautiful, how can one become unclean through deep devotion to lust!

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Saturday 24 December 2022

विश्वं स्फुरति यत्रेदम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ३

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्ग इव सागरे।। 

सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि।।

अर्थ : जैसे सागर में (असंख्य) तरंगें उठती हैं, और विश्व उस सागर में उठनेवाली कोई तरंगमात्र है, उस अपनी आत्मारूपी सागर से ही विश्व का उद्भव होता है, - "वह मैं हूँ" इसे ठीक से जान लेने के बाद भी, क्यों दीन की तरह व्याकुल हो इधर-उधर भागते रहते हो!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೩

ವಿಶ್ವಂ ಸೂಸುರತಿ ಯತ್ರೇದಂ ತರಙ್ಗಿ ಇವ ಸಾಗರೇ||

ಸೋऽಹಮಸ್ಮೀತಿ ವಿಜ್ಞಾಯ ಕಿಂ ದೀನ ಇವ ಧಾವಸಿ||೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3 

Stanza 3

Having known yourself to be as I AM THAT in which the universe appears like waves on the sea why do you keep running about here and there, like a miserable being!

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Friday 23 December 2022

आत्माज्ञानादहोप्रीतिर्

अष्टावक्र गीता 

अध्याय ३

श्लोक २

आत्माज्ञानादहोप्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।।

शुक्तेरज्ञानतो लोभोयथारजतविभ्रमे।।२।।

(आत्म-अज्ञानात् अहो प्रीतिः विषयभ्रमगोचरे। शुक्तेः अज्ञानतः लोभः यथा रजतविभ्रमे।।)

अर्थ  : अरे! जिस तरह से शुक्ता (सीप) के स्वरूप से अनभिज्ञ मनुष्य लोभवश उसे रजत (चाँदी) समझ बैठता है, उसी तरह से आत्मा (अपने आप) के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होने से मनुष्य इन्द्रियों आदि विषयों के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले भ्रमपूर्ण ज्ञान को अपना स्वरूप समझ बैठता है और उस विभ्रम के ही कारण उसे विषयों तथा उन विषयों में प्रतीत होनेवाले सुखों से लगाव हो जाता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಆದಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಆತ್ಮಾಚ್ಞಾನಾದಹೋ ಪ್ರೀತಿರ್-

ವಿಷಯಭ್ರಮಗೋಚರೇ||

ಶುಕ್ತೇರಚ್ಞಾನತೋ ಲೋಭೋ

ಯಥಾ ರಜತವಿಭ್ರಮೇ||೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 2

Alas, as from the illusion of silver caused by the ignorance of the pearl-oyester, arises the greed, even so does the attachment to the objects of illusory perception arise from the ignorance of the Self.

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Thursday 22 December 2022

तृतीयोऽध्यायः

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक १

अष्टावक्र उवाच :

अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः।।

तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः।।१।।

अर्थ :

अष्टावक्र ने (राजा जनक से) कहा :

एकमेव अविनाशी आत्मा के स्वरूप को निश्चयपूर्वक जान लेने के बाद फिर तुम जैसे आत्मज्ञ और धीर पुरुष की लालसा धन-संपत्ति के अर्जन में कैसे हो सकती है?

(कथा-क्रम : इस अध्याय ३ से अध्याय ६ के अन्त तक अष्टावक्र ही जनक से वार्तालाप कर रहे हैं।)

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ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ :

ಅವಿನಾಶಿನಮಾತ್ಮಾನಮೇಕಂ ವಿಙ್ಞಾಯ ತತ್ತ್ವತಃ||

ತವಾತ್ಮಜ್ಙಸ್ಯ ಧೀರಸ್ಯ ಕಥಮರ್ಥಾರ್ಜನೇ ರತಿಃ||೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 1

Ashtavakra said :

Having known yourself (the Atman / Self), really indestructible and one, how is it that you, serene and knower of Self, feel attached to the acquisition of wealth!

(From this chapter 3 onwards up-to chapter 6 Ashtavakra speaks to Raja Janaka.)

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Tuesday 20 December 2022

... विनश्वरः... स्वभावतः ...

अष्टावक्र गीता

अध्याय २,

श्लोक २४, २५,

मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवातेप्रशाम्यति।।

अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वरः।।२४।।

मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्यं जीववीचयः।।

उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः।।२५।।

।।इति अष्टावक्र गीतायाम् द्वितीयोऽध्यायः।।

अर्थ :

मुझ असीम महासमुद्र में (जिसमें कि पिछले श्लोक के अनुसार जैसा कहा है), चित्त और वायु (चेतना रूपी व्यक्तिगत मन और प्राण) अन्ततः प्रशमित होते हैं। केवल दुर्भाग्यवश ही जीव, वह मनुष्य जो इस जगतरूपी समुद्र में जहाज पर सवार व्यापारी के समान किसी लक्ष्य को पाना चाहता है, नाश को प्राप्त हो जाता है। २४

यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि मुझ असीम महासमुद्र में निरन्तर असंख्य जीवों-रूपी तरंगें उठती और गिरती, उत्पन्न होती और विनाश को प्राप्त होती रहती हैं, मुझमें ही सतत खेलती और वे पुनः मुझमें ही विलीन हो जाती हैं! २५

।। इति अष्टावक्र गीता - द्वितीय अध्याय संपूर्ण।।

कृपया इस पोस्ट को पिछले पोस्ट के क्रम में आगे पढ़िए। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೪, ೨೫,

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ ಚಿತ್ತವಾತೇ ಪೃಶಾಮ್ಯತಿ||

ಅಭಾಗ್ಯಾಜ್ಜೀವವಣಿಜೋ ಜಗತ್ತೇ ವಿನಶ್ವರಃ ||೨೪||

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋ-

ಧಾವಾಶ್ಚರ್ಯಯಂ ಜೀವವೀಚಯಃ||

ಉತ್ಯನ್ತಿ ಘ್ನನ್ತಿ ಖೇಲನ್ತಿ ಪೃವಿಶನ್ತಿ ಸ್ವಭಾವತಃ||೨೫||

||ಇತಿ ದ್ವಿತೀಯೋಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 24, 25,

24 -With the calming of the wind of the mind in the infinite ocean of Myself, the ark of the universe of Jiva, the trader, unfortunately meets destruction. 24

25 - How Wonderful! In Me, the shoreless ocean, the waves of the individual selves rise, strike (each other), play (for a time) and disappear, each according to its nature. 

Thus concludes the Chapter 2 of Ashtavakra Gita.

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Note : This post should be read with the earlier post, where Stanza 23 has been entered.


अहो भुवनकल्लोलै

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २३

अहो भुवनकल्लोलैर्विचित्रैर्द्राक्समुत्थितम्।।

मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवाते समुद्यते।।२३।।

अर्थ :

अरे! मुझ असीम महासमुद्र में, चित्त और वात, चेतना के और प्राणों के उद्यत और सक्रिय होने से ही विश्वरूपी असंख्य तरंगें  निरंतर उठती और विलीन होती रहती हैं।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೩

ಅಹೋ ಭುವನಕಲ್ಲೋಲೈರ್ರ್ವಿ-

ಚಿಚಿತ್ರೈರ್ದ್ರಾಕ್ಸಮುತ್ಥಿತಮ್||

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ

ಚಿತ್ತವಾತೇ ಸಮುದ್ಯತೇ||೨೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 23

Oh! in Me, the limitless ocean, diverse waves of worlds are produced forthwith on the rising of wind of the mind. 

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Monday 19 December 2022

नाहं देहो न मे देहो

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २२

नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित्।।

अयमेव हि मे बन्ध आसीत् या जीविते स्पृहा।।२२।।

अर्थ :

न मैं देह हूँ, न देह मेरा है, न मैं जीव हूँ, मैं चित् हूँ। मेरा एकमात्र बन्धन यही था कि जीवन के प्रति लालसा थी। 

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ के श्लोक १४ तथा अध्याय १४ के श्लोक १२ को स्पृहा शब्द के संदर्भ में उपरोक्त श्लोक को समझें तो शायद कुछ सहायता होगी --

अध्याय ४

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।१४।।

अध्याय १४

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।।

राजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१२।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೨

ನಾಹಂ ದೇಹೋ ಜೀವೋ

ನಾಹಮಹಂ ಹಿ ಚಿತ್||

ಅಯಮೇವ ಹಿ ಮೇ ಬನ್ದ

ಆಸೀದ್ಯಾ ಜೀವಿತೇಸ್ಪೃಹಾ||೨೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 22

Neither am I this body, nor is the body mine. I am not Jiva (self) I am Chit (Chaitanya Self). This indeed was my bondage that I had thirst for life.

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Saturday 17 December 2022

अहो जनसमूहेऽपि

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २१

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अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।। 

अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम्।।२०।।

अर्थ :

अरे! जनसमूह में होते हुए भी मुझमें द्वैत नहीं दिखाई देता। उस जनसमूह से घिरा होने पर भी मैं उससे वैसा ही असंबद्ध होता हूँ जैसे कि अरण्य असंख्य वृक्षों में होते हुए भी उनसे स्वतंत्र होता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೧

ಅಹೋ ಜನಸಮೂಹೇಪಿ ನ ದ್ವೈತಂ ಪಶ್ಯತೋ ಮಮ||

ಅರಣ್ಯಮಿವ ಸಂವೃತ್ತಂ ಕ್ವ ರತಿಂ ಕರವಾಣ್ಯಹಂ||೨೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 21

O,  I don't find any duality. Therefore, Even for Me, the multitude of human beings, has become like a wilderness. What should I attach myself to?

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Friday 2 December 2022

शरीरं स्वर्गनरकौ

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २०

शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा।।

कल्पनामात्र मे वै तत्किं मे कार्यं चिदात्मनः।।२०।।

अर्थ :

शरीर, स्वर्ग और नरक, बन्धन और मोक्ष, तथा भय इत्यादि तो मेरे लिए कल्पनामात्र हैं। अहं-चैतन्य-आत्मा, जो मेरा स्वरूप है, उसका इन सब से क्या प्रयोजन है!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೦

ಶರೀರಂ ಸ್ವರ್ಗನರಕೌ

ಫನ್ಧಮೋಕ್ಷೌ ಬಯಂ ತಥಾ||

ಕಲ್ಪನಾಮಾತ್ರ ಮೇ ವೈ ತ-

ತ್ಕಿಂ ಮೇ ಕಾರೇಕಾರ್ಯಂ ಚಿದಾತ್ಮಮಲಃ||೨೦||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 20

Body, heaven and hell, bondage, freedom, as also fear, all these are mere imagination. What have I to do with all these I whose nature is Chit (Consciousness)!

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Thursday 1 December 2022

सशरीरमिदं विश्वं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १९

सशरीरमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चितम्।।

शुद्ध चिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन्कल्पनाऽधुना।।१९।।

अर्थ :

इस पूरे शरीर सहित यह विश्व, शुद्ध चिन्मात्र आत्मा ही है, इससे अन्य कुछ नहीं, केवल कल्पना ही है यह निश्चित हुआ, तो अब यह कल्पना किसे आती है ! चूँकि आत्मा से अन्य कुछ नहीं है, इसलिए इस कल्पित उपाधि को व्यर्थ जानकर त्याग दिया जाना ही उचित है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೯

ಸಶರೀರಮಿದಂವಿಶ್ವಂ ನ ಕಿಞ್ಚಿದಿತಿ ನಿಶ್ಚಿತಂ||

ಶುದ್ಧಚಿನ್ಮಾಚ್ರ ಆತ್ಮಾ ಚ ತತ್ಕಸ್ಮಿನ್ಕಲ್ಪನಾऽಧುನಾ||೧೯||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 19

I have known for certain that the body and the universe are nothing and that the Atman is only pure Intelligence. So, on which now can super-imposition be possible!

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