Monday 18 March 2024

भवप्रत्ययो

विदेहप्रकृतिलयानाम्

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पाञ्जल योगसूत्र १/१९

भाष्य -

विदेहानां = देवानां -- भवप्रत्ययः। ते हि स्वसंस्कार मात्रोपयोगेन चित्तेन कैवल्यपदमनुभवन्तः स्वसंस्कारविपाकं तथाजातीयकमतिवाहयन्ति। तथा प्रकृतिलयाः साधिकारे चेतसा प्रकृतिलीने कैवल्यपदमनुभवन्ति यावान्न पुनरावर्ततेऽधिकारवशाच्चित्तमिति।।

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वैदिक देवताओं या श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १० में जिन विभूतियों का उल्लेख किया गया है वे प्रकृतिलय चित्त हैं जो कि अपने अपने संस्कारम2त्र का उपयोग करते हुए उस चित्त से कैवल्य में स्थित रहते हुए भी सापेक्ष दृष्टि से उन उन संस्कारों के परिपाक होने तक उनका अतिक्रमण हो जाने तक उसका निर्वाह करते हैं। अर्थात् इस प्रकार से वे देवता स्वर्लोक में प्रारब्ध होने तक वास करने के बाद पुनः मृत्युलोक में देहधारी होकर जनाम लेते हैं या नित्यमुक्ति में प्रतिष्ठित हो रहते हैं। क्योंकि उन देवताओं ने उस उपाधि की प्राप्ति कामना से की हुई होती है, और उनकी कामना पूर्ण होने पर और प्रारब्ध का क्षय हो जाने पर भी अन्य कामनाओं के पूर्ण होने तक उनका भोग भी उन्हें करना होता है।

कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं कि तीन प्रकारों की अग्नियों में प्रथम तो स्थूल भौतिक और सूर्य आदि में प्रज्वलित हो रही अग्नि है, दूसरी आधिदैविक वह है जो कि नक्षत्रों में प्रकट और वेदविद्या के रूप में वैदिक देवताओं के रूप में प्रकृति में व्यक्त और अव्यक्त होते रहती है जिसकी उपासना से मनुष्य स्वर्ग आदि की प्राप्ति कर सकता है किन्तु अनित्य होने से स्वर्ग आदि के भोग भी काल के प्रभाव से समाप्त हो जाते हैं, जबकि अग्नि का तीसरा प्रकार अपनी आत्मा का आध्यात्मिक ज्ञान है जिसे प्राप्त कर या जिसे उद्घाटित कर लेने पर पुनः मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से अर्थात् "भव" से और "अप्यय" से रहित उस आत्मा में अवस्थित हो रहता है।

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उपरोक्त विवेचना करने का उद्देश्य यह जानना है कि वेदों में वर्णित देवताओं का स्वरूप कैसा है और यद्यपि सभी की उपासना से अंततः परमात्मा को भी जान लिया जा सकता है किन्तु वे सभी देवता भी प्रारब्ध से बँधे होते हैं, और इस दृष्टि से उनकी सीमित शक्ति और क्षमता होती है। दूसरी ओर पौराणिक देवता वे विभूतियाँ हैं जिनका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १० में प्राप्त होता है। --

सिद्धानां कपिलो मुनिः 

के उल्लेख से स्पष्ट है कि देवताओं की एक कोटि वह है जिसे "सिद्ध" कहा जाता है। चूँकि साँख्य सिद्धान्त के अनुसार चेतन पुरुष ही एकमात्र परम तत्व है और वह स्वयं प्रकृति में ही व्यक्त और अव्यक्त होते रहता है, अतः प्रकृति के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, जो कि पुरुष पर ही आश्रित होती है। जिसे इस तत्व का दर्शन हो जाता है उसे "सिद्ध" कहा जाता है और वह भी नित्यमुक्त होने से विभूति और ईश्वरतुल्य ही होता है।

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Monday 11 March 2024

एक हिन्दी कहानी

खूँटी की आत्मकथा

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उस जंगलनुमा वातावरण में जहाँ कभी कभी मैं इधर उधर यूँ ही घूमा करता था, एक वृद्ध संत या साधुनुमा व्यक्ति रहा करते थे। चूँकि यह कथा 30 वर्षों से भी पहले के समय की है इसलिए उनके बारे मेंं इतना भर कह सकता हूँ कि उनका नाम तो मुझे किसी ने कभी नहीं बतलाया, लेकिन उनका कुलनाम था - "पाठक"। नर्मदा तट पर ओंकारेश्वर मन्दिर से चार सम्प्रदाय मठ की दिशा में और आगे गायत्री मन्दिर से आगे, नर्मदा-कावेरी के दूसरे संगम की तरफ जाते हुए जरा पहले बाईं तरफ उनकी कुटिया थी, जहाँ वे निवास करते थे। वे संभवतः किसी सम्प्रदाय-विशेष में दीक्षित नहीं थे और सरल भाव और शुद्ध हृदय से नर्मदा-तट पर निवास करनेमात्र को ही समर्पित और उसमें ही संतुष्ट प्रतीत होते थे।

जैसा कि प्रचलन था, वहाँ अनेक छोटे-बड़े महात्माओं ने अपने अपने आश्रम स्थापित कर रखे हैं जहाँ उनके भक्त उन आश्रमों में उनसे मिलने प्रायः आते रहते थे। किन्तु मुझे याद नहीं आता है कि पाठक जी से मिलने के लिए किसी को आते हुए मैंने शायद ही कभी देखा हो।

मैं जहाँ रहता था वह स्थान इंदौर के एक महात्माजी ने "माता आनन्दमयी तपोभूमि" के नाम से आश्रम के रूप में स्थापित किया था। आज उन महात्मा या उस स्थान के विषय में मैं अधिक कुछ नहीं जानता।

जब वर्ष 1991 की फरवरी 11 की शाम वहाँ पहुँचा था तो जल्दी ही रात्रि का भोजन कर सो गया था। दूसरे ही दिन महाशिवरात्रि होने से मान्धाता नामक उस पर्वत की परिक्रमा पर चला गया जिसके एक ओर से नर्मदा नदी तथा दूसरी ओर से कावेरी नदी आकर परस्पर मिलती हैं और उनका संगम जहाँ होता है, फिर पुनः पर्वत के दोनों ओर दो भागों में बँट जाती हैं, किन्तु आगे चलकर बाद में पुनः दूसरे संगम में आपस में मिल जाती हैं।

उस दूसरे संगम की दिशा में अकसर सुबह शाम घूमने या स्नान के लिए जाया करता था तो उनसे परिचय हो गया था। ऐसे ही एक दिन उन्होंने अपनी कुटिया पर बुलाया तो वहाँ चला गया। एक छोटा साफ सुथरा कमरा और उससे भी छोटा किचन। शौचालय कहीं नहीं। उन दिनों वहाँ किसी भी आश्रम में केवल वी.आई.पी. अतिथियों या महन्तों के लिए ही व्यक्तिगत शौचालय हुआ करते थे। मैंने उनसे पूछा :

"आपने अपने यहाँ शौचालय क्यों नहीं बनाया?"

तब उन्होंने मुझे यह कथा सुनाई :

ऐसे ही किसी स्थान पर एक महात्मा अपनी एक छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे और भजन करते थे। किन्तु उनके जिस निवास स्थान के दरवाजे पर ताला लगाया जाता था वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे चोर चुरा ले जा सकते थे। बहरहाल वहाँ दीवार पर एक खूँटी अवश्य थी जिस पर वे उनकी कुटिया के दरवाजे पर लगनेवाले ताले की चाबी टाँग दिया करते थे।

एक दिन उनसे मिलने के लिए कोई आगन्तुक जिज्ञासु जब आया तो कौतूहलवश उसने उनसे पूछा :

"बाबाजी, यह चाबी आपके किस काम आती है?"

महात्माजी बोले :

"ऐसा है इस उम्र में मेरी याददाश्त बहुत कमजोर होने लगी है और एक बार जब अपनी इस कुटिया से बाहर चला जाता हूँ तो भूल जाता हूँ कि लौट कर कहाँ जाना है। इस चाबी से मुझे यह स्थान याद रहता है और इसका बस इतना ही काम है।"

"और अगर किसी वजह से चाबी खो जाए तो?"

"हाँ,  यह भी हो सकता है, लेकिन इतने समय से यहाँ बार बार आते रहने से अब पैर भी बहुत अभ्यस्त हो गए हैं, और मैं कहीं भी चला जाऊँ मेरे पैर मुझे स्वयं ही यहाँ खींच ले आते हैं।"

"फिर खूँटी का क्या प्रयोजन है?"

"उसका प्रयोजन यह स्मरण कराना है कि शरीर स्वयं ही वह चाबी है जो कि मनरूपी खूँटी पर टँगी रहती है, और मनरूपी यह खूँटी स्वयं भी किसी ठोस दीवार पर न लगी हो तो शरीर और मन दोनों ही भटक जाते हैं।"

"और वह ठोस दीवार क्या है?"

जिज्ञासु ने प्रश्न किया। 

"वह दीवार है नित्य रहनेवाला स्वाभाविक भान जिसे चेतना भी कहा जाता है।"

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