Tuesday 16 April 2024

What is X?

X

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A very cryptic letter originated from the Sanskrit letter / word क्ष - indicating loss and destruction even annihilation in a way.

Presently this is the well-known icon of the Twitter. Then there is a movement that is gaining momentum in the Islamic World -

The Ex-Muslims.

Again there is the "Facebook" owned by Mark Zuckerberg. No need to comment on him.

The three "Abrahmic Traditions" describe "Exodus" in different ways.

The first was of those who were expelled out of Egypt, when Moses and his tribe namely the Jew were accused of having done two crimes one of killing a cow, and the other stealing Gold from Pharaoh's treasure. Purportedly He was the trying to find out the land of Jehovah / Israel when a luminous  column of Light appeared before him. This column was none other than तेजोलिङ्ग of  ईश्वर / शिव  and the abode of  शिव / ईश्वर  was verily the ईश्वरालय / Israel .

There was a cloud casting it's shadow upon Him and his tribe in the scorching sunlight of the desert. This cloud was none other than  इन्द्र / Indra - The king of heavens where Deva / live.

Then there was The Arch Angel / आर्ष अङ्गिरा / another name / form / epithet of  जाबाल ऋषि / aka Arch-Angel protecting and directing the tribe of Jehovah.

It's no surprise because  Jehovah /  यह्वः is the same as रुद्र / गणेश / स्कन्द / यम / वरुण / बृहस्पति /  सूर्य / इन्द्र  according to the 5 prominant and major अथर्वशीर्ष atharvasheerSha text,  The Father Principle "shiva" Himself. 

He is verily the Conscious Light that was seen by Moses and His tribe. Indra was accompanying them alongwith the sage - JAbAl rShi / जाबाल ऋषि.

Arch-Angel Gabriel is but cognate of  जाबाल ऋषि  only.We can also see how the word - Angel resembles with, and is cognate of the word  अङ्गिरा .

शिव  appeared before Moses in the luminous firm of the तेजोलिङ्ग and in the background was Indra / इन्द्र  protecting them in the form of a big cloud in the sky.

Then there Moses saw a cool fire / light in a bush on their way to  ईश्वरालय / Israel .

जाबाल ऋषि / Arch Angel Gabriel was also there as the medium and the witness, Who told to Moses  :

"Far away from here there is the abode of  शिव / ईश्वर, who you saw in the form of  तेजोलिङ्ग / a luminous column of Light before your very own eyes!

Now listen / read this :

JAbAl rShi recited the sacred mantra of  शिव / Shiva, and asked Moses to repeat the same in voice. As Moses was a complete illiterate, The sage told him : ब्रूहि! 

ब्रूहि in the Sanskrit means : speak! 

There was how the word somehow written by Moses in his own script from - Right to Left.

This was how Hebrew came into existence. 

As  शिव / shiva and skanda are one and the  same --

Supreme Ishwara - the Father Principle, JAbAl rShi gave to Moses the ensignia as  the mark which bears resemblance with two triangles, one placed over another. This is also the mark of  स्कन्द / skanda - as  the Vedika devatA.

It's not just imagination, but there is enough and ample evidence too to think of how the first Abrahmic Tradition might have come in the first place.

This didn't absolve the tribe if Moses from the sacrilege  they had committed and for which had been expelled from Egypt.

These three Abrahmic traditions condemn  collectively the idolaters and call them :

Kafir / Kufra,

The word is again cognate of the Sanskrit word : कुप्रः - pointing out something "Wrong".

It's kind of the proverbial case where :

The kettle calls the pot black!

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So, presently no WWIII is going to take place, even if takes place, the ultimate result will be the same : The End of अधर्म / adharma.

No need to stress the victory of  / धर्म /  Dharma, for Dharma / Sanatana is the only Dharma that always prevails and keeps ever flourishing.

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Monday 1 April 2024

Fluorescence

And The Phosphorescence.

Fluorescence and Phosphorescence are two ways in which there is though one and the same source of Radiation / Light and when the radiation emitted by the source induces secondary Radiation or Light on the object upon which it falls. In the first case as soon as the Radiation  / Light stops falling upon the object, the secondary Radiation / Light emitted by the object is gone, while in the second case, the object keeps emitting Radiation / Light stays for some more time.

Obviously this Radiation / Light is the same as "Energy" of the kind that the Physics deals with. This is therefore the "Material Light". A "Dynamic Principle".

The "Physical Matter" on the other hand, is the material body of the kind, either in with an inertia associated with it.  That means unless an external influence does not work upon it it remains in the same position either in movement or at rest. 

What is "Consciousness"?

In the study of Matter, Mind, and Life, the three attributes namely :

The Inertia (at rest), Inertia in Movement and Knowing are respectively the three interdependent qualities and are called together as "Prakriti".

The above analogy could be explained better by means of the following verse 22 of Gita, Chapter 14 :

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।।

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि निवृत्तानि न काङ्क्षति।।२२।।

However, Gita chapter 14 beautifully narrates the verse 1 onwards as :

श्रीभगवानुवाच  --

परं भूयं प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।।

यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।१।।

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।२।।

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।।

संभव सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।३।।

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।४।।

स्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।५।।

We could compare this phenomenon with Phosphorescence and Fluorescence.

The Prakriti is Life. When the Light of The Supreme falls upon it, this results in animating the Life in two ways. Either as soon as the Light stops falling upon any of the objects - purely a material one or an organism, the Light could stay only for that much time or may continue to shine even when the source had stopped casting it's light on such of any object.

When Consciousness (Light) animates an organism, it turns into the sense "I'm". When Consciousness (Light) falls upon a material object it shines momentarily.

So there is a "Life-span" for an organism but no such thing happens to a material object.

Further :

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्।।

सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।६।।

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।।

तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।७।।

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहन सर्वदेहिनाम्।।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।८।।

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।।

ज्ञानमावृत्त्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत।।९।।

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।।

रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।।१०।।

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते।।

ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।।११।।

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।।

रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१२।।

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।।

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।।१३।।

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।।

तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।।१४।।

रजसि प्रलये गत्त्वा कर्मसङ्गिषु जायते।।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।।१५।।

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्विक निर्मलं फलम्।।

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।।१६।।

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।।

प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।।१७।।

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्यं तिष्ठन्ति राजसाः।।

जघन्यगुणवृत्तिस्थाः अधो गच्छन्ति तामसाः।।१८।।

नान्यं गुणेभ्यः कर्त्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।१९।।

गुणानेतानतीत्त त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।।

जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।२०।।

अर्जुन उवाच --

कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।।

कामचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते।।२१।।

श्री भगवानुवाच --

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।।

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि निवृत्तानि न काङ्क्षति।।२२।।

Was the verse referred to in the beginning. 

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Monday 18 March 2024

भवप्रत्ययो

विदेहप्रकृतिलयानाम्

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पाञ्जल योगसूत्र १/१९

भाष्य -

विदेहानां = देवानां -- भवप्रत्ययः। ते हि स्वसंस्कार मात्रोपयोगेन चित्तेन कैवल्यपदमनुभवन्तः स्वसंस्कारविपाकं तथाजातीयकमतिवाहयन्ति। तथा प्रकृतिलयाः साधिकारे चेतसा प्रकृतिलीने कैवल्यपदमनुभवन्ति यावान्न पुनरावर्ततेऽधिकारवशाच्चित्तमिति।।

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वैदिक देवताओं या श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १० में जिन विभूतियों का उल्लेख किया गया है वे प्रकृतिलय चित्त हैं जो कि अपने अपने संस्कारम2त्र का उपयोग करते हुए उस चित्त से कैवल्य में स्थित रहते हुए भी सापेक्ष दृष्टि से उन उन संस्कारों के परिपाक होने तक उनका अतिक्रमण हो जाने तक उसका निर्वाह करते हैं। अर्थात् इस प्रकार से वे देवता स्वर्लोक में प्रारब्ध होने तक वास करने के बाद पुनः मृत्युलोक में देहधारी होकर जनाम लेते हैं या नित्यमुक्ति में प्रतिष्ठित हो रहते हैं। क्योंकि उन देवताओं ने उस उपाधि की प्राप्ति कामना से की हुई होती है, और उनकी कामना पूर्ण होने पर और प्रारब्ध का क्षय हो जाने पर भी अन्य कामनाओं के पूर्ण होने तक उनका भोग भी उन्हें करना होता है।

कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं कि तीन प्रकारों की अग्नियों में प्रथम तो स्थूल भौतिक और सूर्य आदि में प्रज्वलित हो रही अग्नि है, दूसरी आधिदैविक वह है जो कि नक्षत्रों में प्रकट और वेदविद्या के रूप में वैदिक देवताओं के रूप में प्रकृति में व्यक्त और अव्यक्त होते रहती है जिसकी उपासना से मनुष्य स्वर्ग आदि की प्राप्ति कर सकता है किन्तु अनित्य होने से स्वर्ग आदि के भोग भी काल के प्रभाव से समाप्त हो जाते हैं, जबकि अग्नि का तीसरा प्रकार अपनी आत्मा का आध्यात्मिक ज्ञान है जिसे प्राप्त कर या जिसे उद्घाटित कर लेने पर पुनः मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से अर्थात् "भव" से और "अप्यय" से रहित उस आत्मा में अवस्थित हो रहता है।

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उपरोक्त विवेचना करने का उद्देश्य यह जानना है कि वेदों में वर्णित देवताओं का स्वरूप कैसा है और यद्यपि सभी की उपासना से अंततः परमात्मा को भी जान लिया जा सकता है किन्तु वे सभी देवता भी प्रारब्ध से बँधे होते हैं, और इस दृष्टि से उनकी सीमित शक्ति और क्षमता होती है। दूसरी ओर पौराणिक देवता वे विभूतियाँ हैं जिनका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १० में प्राप्त होता है। --

सिद्धानां कपिलो मुनिः 

के उल्लेख से स्पष्ट है कि देवताओं की एक कोटि वह है जिसे "सिद्ध" कहा जाता है। चूँकि साँख्य सिद्धान्त के अनुसार चेतन पुरुष ही एकमात्र परम तत्व है और वह स्वयं प्रकृति में ही व्यक्त और अव्यक्त होते रहता है, अतः प्रकृति के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, जो कि पुरुष पर ही आश्रित होती है। जिसे इस तत्व का दर्शन हो जाता है उसे "सिद्ध" कहा जाता है और वह भी नित्यमुक्त होने से विभूति और ईश्वरतुल्य ही होता है।

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Monday 11 March 2024

एक हिन्दी कहानी

खूँटी की आत्मकथा

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उस जंगलनुमा वातावरण में जहाँ कभी कभी मैं इधर उधर यूँ ही घूमा करता था, एक वृद्ध संत या साधुनुमा व्यक्ति रहा करते थे। चूँकि यह कथा 30 वर्षों से भी पहले के समय की है इसलिए उनके बारे मेंं इतना भर कह सकता हूँ कि उनका नाम तो मुझे किसी ने कभी नहीं बतलाया, लेकिन उनका कुलनाम था - "पाठक"। नर्मदा तट पर ओंकारेश्वर मन्दिर से चार सम्प्रदाय मठ की दिशा में और आगे गायत्री मन्दिर से आगे, नर्मदा-कावेरी के दूसरे संगम की तरफ जाते हुए जरा पहले बाईं तरफ उनकी कुटिया थी, जहाँ वे निवास करते थे। वे संभवतः किसी सम्प्रदाय-विशेष में दीक्षित नहीं थे और सरल भाव और शुद्ध हृदय से नर्मदा-तट पर निवास करनेमात्र को ही समर्पित और उसमें ही संतुष्ट प्रतीत होते थे।

जैसा कि प्रचलन था, वहाँ अनेक छोटे-बड़े महात्माओं ने अपने अपने आश्रम स्थापित कर रखे हैं जहाँ उनके भक्त उन आश्रमों में उनसे मिलने प्रायः आते रहते थे। किन्तु मुझे याद नहीं आता है कि पाठक जी से मिलने के लिए किसी को आते हुए मैंने शायद ही कभी देखा हो।

मैं जहाँ रहता था वह स्थान इंदौर के एक महात्माजी ने "माता आनन्दमयी तपोभूमि" के नाम से आश्रम के रूप में स्थापित किया था। आज उन महात्मा या उस स्थान के विषय में मैं अधिक कुछ नहीं जानता।

जब वर्ष 1991 की फरवरी 11 की शाम वहाँ पहुँचा था तो जल्दी ही रात्रि का भोजन कर सो गया था। दूसरे ही दिन महाशिवरात्रि होने से मान्धाता नामक उस पर्वत की परिक्रमा पर चला गया जिसके एक ओर से नर्मदा नदी तथा दूसरी ओर से कावेरी नदी आकर परस्पर मिलती हैं और उनका संगम जहाँ होता है, फिर पुनः पर्वत के दोनों ओर दो भागों में बँट जाती हैं, किन्तु आगे चलकर बाद में पुनः दूसरे संगम में आपस में मिल जाती हैं।

उस दूसरे संगम की दिशा में अकसर सुबह शाम घूमने या स्नान के लिए जाया करता था तो उनसे परिचय हो गया था। ऐसे ही एक दिन उन्होंने अपनी कुटिया पर बुलाया तो वहाँ चला गया। एक छोटा साफ सुथरा कमरा और उससे भी छोटा किचन। शौचालय कहीं नहीं। उन दिनों वहाँ किसी भी आश्रम में केवल वी.आई.पी. अतिथियों या महन्तों के लिए ही व्यक्तिगत शौचालय हुआ करते थे। मैंने उनसे पूछा :

"आपने अपने यहाँ शौचालय क्यों नहीं बनाया?"

तब उन्होंने मुझे यह कथा सुनाई :

ऐसे ही किसी स्थान पर एक महात्मा अपनी एक छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे और भजन करते थे। किन्तु उनके जिस निवास स्थान के दरवाजे पर ताला लगाया जाता था वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे चोर चुरा ले जा सकते थे। बहरहाल वहाँ दीवार पर एक खूँटी अवश्य थी जिस पर वे उनकी कुटिया के दरवाजे पर लगनेवाले ताले की चाबी टाँग दिया करते थे।

एक दिन उनसे मिलने के लिए कोई आगन्तुक जिज्ञासु जब आया तो कौतूहलवश उसने उनसे पूछा :

"बाबाजी, यह चाबी आपके किस काम आती है?"

महात्माजी बोले :

"ऐसा है इस उम्र में मेरी याददाश्त बहुत कमजोर होने लगी है और एक बार जब अपनी इस कुटिया से बाहर चला जाता हूँ तो भूल जाता हूँ कि लौट कर कहाँ जाना है। इस चाबी से मुझे यह स्थान याद रहता है और इसका बस इतना ही काम है।"

"और अगर किसी वजह से चाबी खो जाए तो?"

"हाँ,  यह भी हो सकता है, लेकिन इतने समय से यहाँ बार बार आते रहने से अब पैर भी बहुत अभ्यस्त हो गए हैं, और मैं कहीं भी चला जाऊँ मेरे पैर मुझे स्वयं ही यहाँ खींच ले आते हैं।"

"फिर खूँटी का क्या प्रयोजन है?"

"उसका प्रयोजन यह स्मरण कराना है कि शरीर स्वयं ही वह चाबी है जो कि मनरूपी खूँटी पर टँगी रहती है, और मनरूपी यह खूँटी स्वयं भी किसी ठोस दीवार पर न लगी हो तो शरीर और मन दोनों ही भटक जाते हैं।"

"और वह ठोस दीवार क्या है?"

जिज्ञासु ने प्रश्न किया। 

"वह दीवार है नित्य रहनेवाला स्वाभाविक भान जिसे चेतना भी कहा जाता है।"

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Friday 2 February 2024

अश्व और श्वान

अश्वारोही का दृष्टिपथ

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अश्व मेरा श्वास है और श्वान ही है मेरे प्राण,

श्वास मेरा अश्व है और प्राण ही है मेरा श्वान। 

मैं चिरन्तन यायावर, पथिक जीवन वन में,

वनचर मैं अनियत आश्रय, मैं हूँ तन मन में।

यह वन भी कितना गहन कितना दुर्गम है, 

पर ये दोनों हैं सहचर साथ तो पथ सुगम है।

दोनों का वर्तमान कभी नहीं होता है कल,

अश्व सतत गतिमान, श्वान सतत चञ्चल।

इन वनों को पार कर साथ चलना है अथक,

और भी आयेंगे, साथ रहना है सतत।

श्वास से जब पूछता हूँ, प्राण से भी मैं कभी,

तुम सदा है साथ मेरे, निश्चय ही, नित्य ही।

आशा-निराशा, स्मृति-विस्मृति, चिन्ता या लोभ-भय,

स्वप्न, जागृति, निद्रा, हर्ष, उद्वेग, क्रोध विस्मय।

सभी ये भी वन ही तो हैं, मेरे पथ पर के पड़ाव, 

सतत ही अलगाव इनसे सतत ही तो है जुड़ाव।

कारण-वन, कार्य-वन, अभ्यास-वन, संस्कार-वन,

निमिष, नैमिष-अरण्य, अतीत और भविष्य-वन।

विषय-विषयी वृत्ति-वन, प्रवृत्ति और निवृत्ति-वन,

धारणा ध्यान एकाग्रता निरोध और संयम-वन,

विचार-निर्विचार,विकल्प-निर्विकल्प वन।

पथिक हूँ मैं या पथ, सतत यही मनन-चिन्तन,

अनन्त पथ, अनन्त यात्रा, यह है अनन्त जीवन! 

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Tuesday 23 January 2024

दृष्टिपत्र

संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद 

United Nations Security Council.

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इतिहास साक्षी है कि जब भारत को  UNSC अर्थात् संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाए जाने का प्रस्ताव दिया गया था, भारत के राष्ट्र नियन्ताओं ने People's Republic of China  /  चीन के पक्ष में इसे त्याग दिया था। 

इसके बाद साम्यवादी चीन के विस्तारवाद ने तिब्बत का अपहरण कर लिया और फिर उसकी गिद्ध दृष्टि भारत सहित आसपास के उसकी सीमा से सटे दूसरे भी सभी देशों पर थी। चीन द्वारा तिब्बत पर आधिपत्य कर लेने के बाद भारत और चीन के बीच तथाकथित सीमारेखा स्थापित हो गई जिससे पहले भारत की सीमारेखा केवल तिब्बत से ही मिलती थी।

भारत के विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान और चीन के बीच साँठ-गाँठ के कारण चीन ने पाकिस्तान से मिलकर भारत को आन्तरिक रूप से भी तोड़ना प्रारंभ कर दिया। सुरक्षा परिषद् में चीन ने अपने विशेषाधिकार "वीटो" का प्रयोग अनेक बार अपने भारत-विरोधी कुत्सित प्रयोजनों को पूर्ण करने के लिए भी किया। सभी यूरोपीय राष्ट्र और संयुक्त राज्य अमेरिका चूँकि भारत-विरोधी ईसाई मत से प्रभावित थे और अप्रत्यक्ष रूप से सनातन वैदिक धर्म तथा मूर्तिपूजा विरोधी थे इसलिए यह केवल संयोग नहीं था कि सुरक्षा परिषद में यहूदी, हिन्दू बौद्ध और इस्लाम का प्रतिनिधित्व करनेवाला भी कोई नहीं था। अमरीका ने अपने ईसाई मत को शक्तिशाली बनाने के लिए बहुत चतुराई से यहूदी राष्ट्र इसरायल का निर्माण किया ताकि मुस्लिम अरब विश्व और यहूदी इसरायल परस्पर संघर्ष करते रहें। धर्म के आधार पर स्थापित हुए विभिन्न राष्ट्रों के सानुपातिक प्रतिनिधित्व को आधार बनाकर सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में स्थान दिया जाता तो वह अवश्य ही न्याय की दृष्टि से सुसंगत होता। दुर्भाग्य से भारत इस पूरे कुचक्र का शिकार होकर रह गया। आज जब भारत और धार्मिक, सांस्कृतिक आधार पर सुरक्षा परिषद में भारत और भारत से जुड़े विभिन्न राष्ट्रों जैसे तिब्बत, म्यानमार, वियतनाम, श्रीलंका, (दोनों) कोरिया, (दोनों) वियतनाम, थाइलैंड, लाओस, जापान, मॉरीशस, फिजी और कम्बोडिया आदि सभी देशों का प्रतिनिधित्व करनेवाला कोई नहीं है और केवल चीन, फ्राँस, इंग्लैंड, रूस तथा संयुक्त राज्य अमरीका का ही सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता पर एकाधिकार है तब यह अत्यन्त  आवश्यक है कि धर्म के आधार पर सुरक्षा परिषद की संरचना को फिर से इस प्रकार से सुनिश्चित किया जाए जिसमें संसार के सभी प्रमुख धर्मों के प्रतिनिधि राष्ट्रों को समुचित महत्व प्राप्त हो।

स्पष्ट है कि इस आधार पर ईसाई, यहूदी, मुस्लिम, बौद्ध और हिन्दू धर्म को माननेवाले राष्ट्रों के आधार पर सुरक्षा परिषद की पुनर्रचना की जाए। चीन या उत्तर कोरिया ही तब स्पष्ट रूप से ऐसे राष्ट्र होंगे जिन्हें अपना कोई "धर्म" घोषित करने की बाध्यता होगी। जिस राष्ट्र के पास कोई "धर्म" ही न हो, उसका चरित्र भी क्या होगा? अवश्य ही एक धर्मविरोधी या धर्मनिरपेक्ष वैचारिक और सैद्धांतिक शून्य को भरने के लिए तब तानाशाही, एकाधिकारवादी शक्तियाँ ही सक्रिय हो उठेंगीं।

यह जरूरी है कि संसार की विनाशकारी, विध्वंसकारी और अराजकतावादी शक्तियों का समय रहते उन्मूलन कर दिया जाए।

वैश्विक दृष्टिपत्र - 25 January 2024.

Document of the World Vision -

Released today on the Jan. 25, 2024.

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Sunday 14 January 2024

पञ्चपाशानि

अथ आत्मानुसंधानम्

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कः बध्यते केन बध्यते च।  

कः पश्यति केन पश्यति च?

कः संबंधः पशोः पाशयोः च।।

कः पाशबद्धो पाशमुक्तो वा? 

काया हि कायपाशम् वा देहः।।

भुवनं हि कालपाशम् वा जगत्।। 

मनः हि कामपाशम् वा चित्तम्।।

बुद्धिर्हि यमपाशम् वा वृत्तिः।।

प्रकृतिर्हि धर्मपाशम् वा अहम्।।

एतानि पञ्चपाशानि ताभि बद्धो।।

पशुः यो पश्यति पश्यतेऽपि।।

मनो एव बाधति बाधतेऽपि।।

न कोऽपि पशुः न पाशबद्धो।। 

न कोऽपि बद्धो न मुक्तो वा।।

।।इति फलश्रुतिः।।

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