Sunday 21 May 2023

सानुरागांस्त्रियंदृष्ट्वा

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक १४

सानुरागांस्त्रियंदृष्ट्वा मृत्युं वा समुपस्थितम्।।

अविह्वलमनाः स्वस्थो मुक्त एव महाशयः।।१४।।

(स-अनुरागान् स्त्रियं दृष्ट्वा मृत्युं वा समुपस्थितम्। अविह्वलमनाः स्वस्थः मुक्तः एव महाशयः।।१४।।)

अर्थ : उसके प्रति अनुराग से पूर्ण कोई स्त्री या फिर मृत्यु स्वयं ही आकर समक्ष क्यों न उपस्थित हुई हो, उसका मन किसी भी प्रकार से विह्वल या भावाभिभूत नहीं होता, मुक्त उदार-हृदय ही कोई ऐसा होता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೧೪

ಸಾನುರಾಗಾಂಸ್ತ್ರಿಯಂ ದೃಷ್ಟ್ವಾ

ಮೃತ್ಯುಂ ವಾ ಸಮುಪಸ್ಥಿತಂ||

ಅವಿಹ್ವಲಮನಾಃ ಸ್ವಸ್ಥೋ

ಮುಕ್ತ ಏವ ಮಹಾಶಯಃ||೧೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 14

The great-souled one is not perturbed and remains self-poised both at the sight of a woman full of love and of approaching death. He is indeed liberated.

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Saturday 20 May 2023

न निन्दति न च स्तौति

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक १३

न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति।।

न ददाति न गृह्णाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः।।

(न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति। न ददाति न गृह्णाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः।।) 

अर्थ : मुक्त पुरुष न तो किसी की निन्दा करता है और न स्तुति। न वह हर्षित होता है न क्रुद्ध न किसी को कुछ देता है, न किसी से कुछ लेता है। मुक्त पुरुष की रुचि किसी भी विषय में नहीं होती, वह सर्वत्र और सबसे ही उदासीन होता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೧ಯಜ

ನ ನಿನ್ದಾಯಾಂ ನ ಚ ಸ್ತೌತಿ ನ ಹೃಷ್ಯತಿ ನ ಟುಪ್ಯತಿ||

ನ ದದಾತಿ ನ ಗೃಹ್ಣಾತಿ ಮುಕ್ತಃ ಸಲವತ್ಲ ನೀರಸಃ||೧೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 13

The liberated man neither slanders nor praises, neither rejoices nor is angry, neither gives nor takes. He is everywhere free from. attachment.

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Friday 19 May 2023

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक १२

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन् गृह्णन् वदन् व्रजन्।।

ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशयः।।१२।।

(पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्नन् गृह्णन् वदन् व्रजन्। ईहित अनीहितैः मुक्तः मुक्तः एव महाशयः।।)

अर्थ : देखते, सुनते, छूते, सूँघते और खाते हुए, ग्रहण करते हुए, बोलते और चलते हुए इन सभी कार्यों को इच्छा या अनिच्छा से भी करते हुए ऐसा उदार-हृदय मुक्त पुरुष सदैव मुक्त ही है।

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५ के निम्न श्लोकों के संदर्भ में भी इसे देखा जा सकता है :

अर्जुन उवाच --

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

श्रीभगवानुवाच --

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ।।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।

कस्मात्, इति आह --

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।३।।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म चिरेणाधिगच्छति।।६।।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।।

सर्वभूतात्ममभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।७।।

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्।।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्सवपञ्श्वसन् ।।८।।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।९।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೧೨

ಪಶ್ಯನ್ ಶೃಟ್ವನ್ ಸ್ಪೂಶನ್ ಜಿಘೃ-

ನ್ನಶ್ನನ್ ಗೃಹ್ಣನ್ ವದನ್ ವೃಜನ್||

ಈಹಿತಾನೀಹಿತೇರ್ಮುಕ್ತೋ

ಮೀಕ್ತ ಏವ ಮಹಾಶಯಃ||೧೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 12

Seeing, hearing, touching, smelling, eating, taking, speaking and walking, the great-souled one, free from all efforts and non-efforts, is verily emancipated.

(Shrimadbhagvadgita Chapter 5, Verses 1-9)

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Thursday 18 May 2023

सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक ११

सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः।।

समस्तवासनामुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते।।११।।

(सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः। समस्तवासनामुक्तः मुक्तः सर्वत्र राजते।।)

अर्थ : मुक्त पुरुष सर्वत्र ही अपने स्वरूप में स्थित होता है, (वह उस स्थिति से च्युत नहीं होता अतः उसे ही अच्युत कहते हैं।) उसका हृदय सर्वत्र ही शुद्ध, अतः वासना-मात्र से रहित, निर्मल होने से सर्वत्र उसका ही प्रकाश है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೧೧

ಸರ್ವತ್ರ ದೃಶ್ಯತೇ ಸ್ವಸ್ಥಃ

ಸರ್ವತ್ರ ವಿಮಲಾಶಯಃ||

ಸಮಸ್ತವಾಸನಾಮುಕ್ತೋ

ಮುಕ್ತಃ ಸರ್ವತ್ರ ರಾಜತೇ||೧೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 11

The liberated person is found everywhere abiding in Self and pure in heart, and he lives everywhere freed from all desires. 

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Wednesday 17 May 2023

न जागर्ति न निद्राति

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक १०

न जागर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति।।

अहो परदशा क्वापि वर्तते मुक्तचेतसः।।१०।।

(न जागर्ति न निद्रित न उन्मीलति न मीलति। अहो परदशा क्व अपि वर्तते मुक्तचेतसः।।)

अर्थ : जीवन्मुक्त न तो जागता है, न सोता है, न ही नेत्र खोलता अथवा बन्द करता है। अहो! किसी मुक्तचित्त पुरुष की यह परम दशा भी अद्भुत् है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೧೦

ನ ಜಾಗಲ್ತಿ ನ ನಿದ್ತಿರಾ ನೋನ್ಮೀಲತಿ ನ ಮೀಲತಿ||

ಅಹೋ ಪರದಶಾ ಕ್ವಾಪಿ ವರ್ತತೇ ಮುಕ್ತಚೇತಹಃ||೧೦||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 10

The wise one neither keeps awake nor sleeps, neither opens nor closes his eyes.

Oh! The liberated soul anywhere enjoys the Supreme condition.

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शून्यादृष्टिर्वृथाचेष्टा

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक ९

शून्यादृष्टिर्वृथाचेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।।

न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे।।९।।

(शून्यादृष्टिः वृथाचेष्टाः विकलानि इन्द्रियाणि च। न स्पृहा न विरक्तिः वा क्षीण-संसार-सागरे।।)

अर्थ  : (गत दोनों श्लोकों में वर्णित) इस ज्ञान को जो प्राप्त कर कृतार्थ हो चुका, संसार रूपी सागर उसके लिए मानों सूख ही जाता है। उसे संसार में कुछ नहीं दिखलाई देता और कुछ ऐसा भी उसके लिए कर्तव्य नहीं रह जाता जिसे करने या न करने से उसका कोई प्रयोजन होता हो। उसे सभी चेष्टाएँ अर्थहीन प्रतीत होती हैं। और इस संसार के प्रति उसकी न तो कोई कामना होने से इसके प्रति उसे न तो राग और न ही द्वेष होता है।

चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम् --

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।।

नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्वे कः संसारः।।१०।।

भज गोविन्दम् मूढमते।। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೯

ಶೂನ್ಯಾದೃಷ್ಟಿರ್ವೃಥಾಚೇಷ್ಟಾ ವಿಕಲಾನೀನ್ದ್ರಿಯಣಿ  ಚ||

ನ ಸ್ಪೃಹಾ ನ ವಿರಕ್ತಿರ್ವಾಕ್ಷೀಣಸಂಸಾರಸಾಗರೇ||೯||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 9

There is no attachment or non-attachment in one whom the ocean of the world has dried up.

His look is objectless (vacant as if there is no object he could see in the world), action purposeless and the senses inoperative.

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Sunday 14 May 2023

कृतार्थोऽनेन ज्ञानेन

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक ८

कृतार्थोऽनेनज्ञानेनेत्येवं गलितधीःकृती।।

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्ननास्ते यथासुखम्।।८।।

(कृतार्थः अनेन ज्ञानेन इति एवं गलितधीःकृती। पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्नन् आस्ते यथासुखम्।।)

अर्थ : इसी (पिछले श्लोक ७ में कहे गए अनुसार ज्ञान को प्राप्त और उस पर आश्रित ज्ञानी) ज्ञान के कारण लौकिक बुद्धि और कर्म आदि के विगलित हो जाने से दूसरों की तरह देखता, छूता, सूँघता, सुनता और खाता पीता हुआ सुख से रहता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೮

ಕೃತಾರ್ಥೋऽನೇನ ಜ್ಞಾನೇನೇ-

ತ್ಯೇವಂ ಗಲಿತಧೀಃಕೃತೀ||

ಪಶ್ಯನ್ ಶೃಣ್ವನ್ ಸ್ಪೆಶನ್

ಜಿಘೃನ್ನಶ್ನನ್ನ್ನಾಸ್ತೇ ಯಥಾಸುಖಮ್||೮||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 8

Being fulfilled by this Knowledge (Jnana, as is described in the last stanza 7) and with his mind absorbed in this Knowledge (JnAna), and contented,  the wise one lives happily, seeing, hearing, touching, smelling and eating.

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Saturday 13 May 2023

वाञ्छा न विश्वविलये

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक ७

वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।।

यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम्।।७।।

(वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषः तस्य च स्थितौ। यथा जीविकया तस्मात् धन्य आस्ते यथासुखम्।।)

अर्थ : (जिस उदार-चित्त, का उल्लेख श्लोक ६ में किया गया) उसे न तो जगत् का विलय या प्रलय हो जाए ऐसी कोई इच्छा होती है, और न ही इसके अस्तित्वमान होने से कोई असंतोष ही होता है। धन्य है वह, येन केन प्रकारेण जिस किसी भी तरह से जीवन उसके जीवन का निर्वाह हो, वह उसी में यथासुख स्थित होता है। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೭

ವಾಞ್ಛಾ ನ ವಿಶ್ಶಶಿಲಯೇ

ನ ದ್ವೇಷಸ್ತಸ್ಯ ಚ ಸ್ಥಿತೌ ||

ಯಥಾ ಜೀವಿಕಯಾ ತಸ್ಮಾದ್ನ್ಯ

ಆಸ್ತೇ ಯಥಾಸುಖಮ್||೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 7

The man of Knowledge (Jnani) does not feel any desire for the dissolution of the universe or aversion to its existence.

The Blessed One, therefore lives happily on whatever subsistence comes of itself.

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Friday 12 May 2023

धर्मार्थकाममोक्षेषु

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक ६

धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा।।

कस्याप्युदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि।।६।।

(धर्म अर्थ काम मोक्षेषु जीविते मरणे तथा। कस्य अपि उदार-चित्तस्य हेयोपादेयता न हि।।)

अर्थ : किसी उदारचित्त की दृष्टि में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (इन चारों पुरुषार्थों के) तथा जीवन और मृत्यु की भी न हेयता  और न ही उपादेयता होती है। वह इन सबसे उदासीन होता है क्योंकि उसे इन सबसे कोई प्रयोजन ही नहीं होता। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೬

ಧರ್ಮಾರ್ಥಕಾಮಮೋಕ್ಷೇಷು ಜೀವಿತೇಚ್ಛಾ ಮರಣ ತಥಾ||

ಕಸ್ಯಾಪ್ಯುದಾರಚಿತ್ತಸ್ಯ ಹೇಯೋಪಾದೇಯತಾ ನ ಹಿ||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 6

It is only some broad-minded person who has neither attraction for nor aversion to Dharma, Artha, Kama and Moksha as well as life and death.

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बुभुक्षुरिह संसारे

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक ५

बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षरपि दृश्यते।।

भोगमोक्षनिराकाङ्क्षी विरलो हि महाशयः।।५।।

(बुभुक्षुः इह संसारे मुमुक्षुः अपि दृश्यते। भोगमोक्ष-निराकाङ्क्षी विरलः हि महाशयः।।)

अर्थ : यहाँ, इस संसार में भोग की कामना रखनेवाले और मोक्ष की प्राप्ति की कामना रखनेवाले भी दिखलाई पड़ते हैं। किन्तु ऐसा कोई बिरला ही महात्मा होता है, जिसे न तो भोगों की और न ही मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा होती हो।

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माण्डूक्य उपनिषद् गौडपादीय कारिका,

वैतथ्य प्रकरण : ३२

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः।।

न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता।।३२।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಬುಭುಕ್ಷುರಿಹ ಸಂಸಾರೇ

ಮುಮುಕ್ಷುರಪಿ ದೃಶ್ಯತೇ||

ಭೋಗಮೋಕ್ಷನಿರಾಕಾಂಕ್ಷೀ

ವಿರಲೋ ಹಿ ಮಹಾಶಯಃ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 5

One desirous of worldly enjoyments and one desirous of liberation are both found in this world. But rare is the great-souled one who is not desirous of either enjoyment or liberation.

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Wednesday 10 May 2023

यस्तु भोगेषु भुक्तेषु

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक ४

यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता।।

अभुक्तेषु निराकांक्षी तादृशो भवदुर्लभः।।४।।

(यः तु भोगेषु भुक्तेषु न भवति अधिवासिता। अभुक्तेषु निराकांक्षी तादृशः भवदुर्लभः।।)

अर्थ : जिन विषयों का भोग किया गया भोगों को पुनः प्राप्त करने की लालसा, और जिनका भोग नहीं किया गया, उन्हें भी  प्राप्त करने की आकांक्षा जिसे नहीं होती, संसार में ऐसा कोई दुर्लभ ही होता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಯಸ್ತು ಭೋಗೇಷು ಭುಕ್ತೇಷು ನ ಭವತ್ಯಧಿವಾಸಿತಾ||

ಅಭುಕ್ತೇಷು ನಿರಾಕಾಂಕ್ಷೀ ತಾದೃಶೋ ಭವದುರ್ಲಭಃ||೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 4

Rare in the world is one who does not covet things which he has enjoyed or does not desire things which he has not enjoyed.

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Tuesday 9 May 2023

न जातु विषयाः केऽपि

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक ३

न जातु विषयाः केऽपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी।।

सल्लकीपल्लवप्रीतमिवेभं निम्बपल्लवाः।।३।।

(न जातु विषयाः के अपि स्वारामं हर्षयन्ति अमी। सल्लकी पल्लवप्रीतं इव इभं निम्बपल्लवाः।।)

अर्थ : जैसे शल्लकी / सल्लकी (शालवृक्ष) के पत्तों का रुचि से भक्षण करनेवाले हाथियों को नीम के पत्तों से अरुचि होती है, उसी प्रकार अपनी आत्मा में प्रसन्नता से रमण करनेवाले पुरुषों को इन्द्रिय-विषयों में कोई रुचि नहीं होती।

आयुर्वेद के वागभट् रचित ग्रन्थ अष्टाध्यायी में इस वनस्पति का वर्णन इस प्रकार से है :

शल्लकी नामानि --

शल्लकी गजभक्षा च गजप्रिया च ह्लादिनी।।

महारूहा वसामोचा सुरभी सुरभीरसा।।

(वटादिवर्ग)

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೩

ನ ಜಾತು ವಿಷಯಾಃ ಕೇऽಪಿ

ಸ್ವಾರಾಮಂ ಹರ್ಷಯನ್ತ್ಯಮೀ||

ಸಲ್ಲಕೀ ಪಲ್ಲವಪ್ರೀತ-

ಮಿವೇಭಂ ನಿಮ್ಬಪಲ್ಲವಾಃ||೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 3

No sense-objects ever please home who delights in Self even as the leaves of the Neem-tree don't please and elephant who delights in the Sallaki leaves.

(Sallaki : Boswelia Therifera).

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Monday 8 May 2023

न कदाचिज्जगत्यस्मिन्

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक २

न कदाचिज्जगत्यस्मिन् तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति।।

यतेकेन तेकेनेदं पूर्णं ब्रह्माण्डमण्डलम्।।२।।

(न कदाचित् जगति अस्मिन् तत्त्वज्ञः हन्त खिद्यति। यतः एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्माण्ड मण्डलम्।।)

अर्थ : संपूर्ण जगत् चूँकि उसी एक अद्वितीय आत्मा और पूर्ण ब्रह्म-मण्डल से ओत-प्रोत है, उसमें ही व्याप्त है, यह जानकर तत्त्वज्ञ इसलिए कभी खिन्न नहीं होता।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ,

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೭

ಶ್ಲೋಕ ೨

ನ ಕದಾಚಿಜ್ಜಗತ್ಯಸ್ಮಿನ್

ತತ್ತ್ವಜ್ಞೋ ಹನ್ತ ಖಿದ್ಯತಿ||

ಯತ ಏಕೇನ ತೇನೇದಂ

ಪೂರ್ಣಂ ಬ್ರಹ್ಮಾಣ್ಡಮಣ್ಡಲಮ್||೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 2

Oh, the knower of Truth is never miserable in this world, for the whole universe is filled by himself alone.

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Sunday 7 May 2023

सप्तदशाध्यायः

अष्टावक्र गीता

अध्याय १७

श्लोक १

अष्टावक्र उवाच --

तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा।।

तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु यः।।१।।

(तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योग-अभ्यास-फलं तथा। तृप्तः स्वच्छ - इन्द्रिय नित्यं एकाकी रमते तु यः।।)

अर्थ : अष्टावक्र ने कहा :

जिसकी इन्द्रियाँ शुद्ध अर्थात् निर्मल हो चुकी हैं, और जो नित्य ही एकाकी होते हुए ही आत्मा में ही रमता हुआ प्रसन्न है, ज्ञान और योग दोनों ही का फल प्राप्त कर लेता है।

इस अध्याय में इसकी ही पुष्टि की गई है कि ज्ञान अर्थात् साँख्य और योग अर्थात् अभ्यास दोनों ही प्रकार की निष्ठाओं से एक ही फल की प्राप्ति होती है :

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४ के अनुसार --

श्रीभगवानुवाच :

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंञ्छिन्नसंशयं।।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।४१।।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।।

छित्त्वैनं संशयं  योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।४२।।

इति ... ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम / ब्रह्मयज्ञप्रशंसा नाम चतुर्थोऽध्यायः।।

अथ पञ्चमोऽध्यायः 

अर्जुन उवाच --

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

श्रीभगवानुवाच --

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।१।।

कस्मात्?  इति आह --

ज्ञेयः स नित्य संन्यासी  यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।२।।

अपि, 

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

योग से रहित संन्यास का फल --

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।।६।।

इस प्रकार साङ्ख 'दर्शन' और विवेक दृष्टि है, जबकि योग कर्म और अभ्यास है। दोनों के संयुक्त होने पर ब्रह्म-प्राप्ति शीघ्र ही हो जाती है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಸಪ್ತದಶಾಧ್ಯಾಯಃ

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ --

ತೇನ ಜ್ಞಾನಫರಂ ಪ್ರಾಪ್ತಂ

ಯೋಗಾಭ್ಯಾಸಫಲಂ ತಥಾ||

ತೃಪ್ತಃ ಸ್ವಚ್ಛೇನ್ದ್ಲಾಯೋ ನಿತ್ಯಮೇಕಾಕೀ

ರಮತೇ ರಮತೇ ತು ಯಃ||೧|| 

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Ashtavakra Gita

Chapter 17

Stanza 1

He has gained the fruit of knowledge (ज्ञान / साङ्ख) as well as of the practice of Yoga, who, contented and with purified senses, ever enjoys in solitude (one-ness).

Please refer to :

The Chapter 4 verses 41, 42 and the Chapter 5 verses 1, 2, 3, 4, 5, 6, of  श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४, and अध्याय ५ - Shrimadbhagvadgita. 

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Saturday 6 May 2023

हरो यद्युपदेष्टा ते

अष्टावक्र गीता

अध्याय १६

श्लोक ११

हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा।।

तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते।।११।।

(हरः यदि उपदेष्टा ते हरिः अपि कमलात्मजः। तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्व-विस्मरणात् ऋते।।)

अर्थ  : यदि स्वयं भगवान् शङ्कर, भगवान् विष्णु या ब्रह्मा ही तुम्हें उपदेश क्यों न दें, तो भी जब तक तुम, सब कुछ (बौद्धिक ज्ञान) पूरी तरह से विस्मृत नहीं कर देते, तब तक अपने स्वयं के नितान्त विशुद्ध और निज आत्म-स्वरूप में कभी स्थित नहीं हो सकोगे।

।।इति षोडषाध्यायः।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ  ೧೬

ಶ್ಲೋಕ ೧೧

ಹರೋ ಯದ್ಯುಪದೇಷ್ಟಾ ತೇ ಹರಿಃ ಕಮಲಜೋಪಿ ವಾ||

ತಥಾಪಿ ನ ತಮ ಸ್ಮಾಸ್ಥ್ಯಂ ಸರ್ಮಮಿಸ್ಮರಣಾದೃತೇ||೧೧||

||ಇತಿ ಷೋಡಷೋಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 16

Stanza 11

Let even the Lord Hara (Shankara), Lord Hari (Vishnu) or the lotus-born Lied BrahmA be your instructor, but unless you forget all, you cannot be established in the Self.

Thus concludes chapter 16 of the text :

Ashtavakra Gita. 

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Friday 5 May 2023

यस्याभिमानो मोक्षेऽपि

अष्टावक्र गीता

अध्याय १६

श्लोक १०

यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा।।

न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ।।१०।।

(यस्य अभिमानः मोक्षे अपि देहे अपि ममता तथा। न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभाक् असौ।।)

अर्थ : जिसे (मोक्ष प्राप्त कर लिया है, या प्राप्त करना है), इस प्रकार का अभिमान है, तथा जिसे देह में ममत्व है, न तो ज्ञानी, और न योगी होता है, वह तो केवल दुःख का ही भागी होता है।

(सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।

... या कश्चिद्दुःखमाप्नुयात्।।)

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೬

ಶ್ಲೋಕ ೧೦

ಯಸ್ಯಾಭಿಮಾನೋ ಮೋಕ್ಷೇऽಪಿ

ದೇಹೇऽಪಿ ಮಮತಾ ತಥಾ||

ನ ಚ ಜ್ಞಾನೀ ನ ವಾ ಯೋಗೀ

ಕೇವಲಂ ದುಃಖಭಾಗಸೌ||೧೦||

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Ashtavakra Gita

Chapter 16

Stanza 10

He who has an egoistic feeling even towards liberation and considers even the body as his own, is neither a Jnani or a Yogi.

He only suffers misery.

(One who thinks liberation as a goal to be achieved, or feels he has attained this goal.)

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Thursday 4 May 2023

हातुमिच्छति संसारं

अष्टावक्र गीता

अध्याय १६

श्लोक ९

हातुमिच्छति संसारं रागी दुःखजिहासया।।

वीतरागो हि निर्दुःखस्तस्मिन्नपि न खिद्यति।।९।।

(हातुम् इच्छति संसारं रागी दुःख-जिहासया। वीतरागः हि निर्दुःखः तस्मिन् अपि न खिद्यति।।)

अर्थ : (जिसकी विषयों में सुख प्रतीत होने से उनमें सुख-बुद्धि होने से) उसे संसार के विषयों के प्रति राग होता है, किन्तु जब उसे उनसे दुःख प्राप्त होने लगता है, तो वह रागी संसार को ही त्याग देना चाहता है। किन्तु राग और विराग से उदासीन किसी वीतराग के लिए कोई दुःख नहीं होता, इसलिए वह किसी भी दशा में खिन्न नहीं होता।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೬

ಶ್ಲೋಕ ೯

ಹಾತುಮಿಚ್ಛತಿ ಸಂಹಾರಂ ರಾಗೀ ದುಃಖಜಿಹಾಸಯಾ||

ವೀತರಾಗೋ ಹಿ ನಿರ್ದುಃಖಸ್ತಸ್ಮನ್ನಪಿ ನ ಖಿದ್ಯತಿ||೯||

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Ashtavakra Gita

Chapter 16

Stanza 9

One who is attached to the world wants to renounce it in order to avoid sorrow. But one without attachment is free from sorrow and does not feel miserable even there.

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Wednesday 3 May 2023

प्रवृत्तौ जायते रागो

अष्टावक्र गीता

अध्याय १६

श्लोक ८

प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।।

निर्द्वन्द्वो बालवद्धीमानेवमेव व्यवस्थितः।।८।।

(प्रवृत्तौ जायते रागः निवृत्तौ द्वेष एव हि। निर्द्वन्द्वः बालवत् धीमान् एवं एव व्यवस्थितः।।)

अर्थ  : विषयों में प्रवृत्ति होने पर उनके प्रति राग उत्पन्न होता है, और निवृत्ति होने पर उनके प्रति द्वेष, कोई निर्द्वन्द्व और राग-द्वेष से रहित पुरुष किसी बालक की तरह सदा ही सामञ्जस्य रखते हुए राग-द्वेष से दूर ही रहता है।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १४ के श्लोक का सन्दर्भ दृष्टव्य है :

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।। 

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।२२।।

अर्थात् वह राग तथा द्वेष से अछूता रहता है।)

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧಯಾಯ ೧೬

ಶ್ಲೋಕ ೮

ಪ್ರವೃತ್ತೌ ಜಾಯತೇ ರಾಗೋ ನಿವೃತ್ತೌ ದ್ವೇಷ ಏವ ಹಿ ||

ನಿರ್ದ್ವನ್ದ್ವೋ ಬಾಲವದ್ಧೀಮಾನೇವಮೇವ ವ್ಯವಸ್ಥಿತಃ||೮||

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Ashtavakra Gita

Chapter 16

Stanza 8

Involvement / indulgence (in activity) begets attachment, abstention from it aversion. The man of wisdom, like a child; is free from the pairs of opposites and is thus established (in the Self).

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Tuesday 2 May 2023

हेयोपादेयता तावत्

अष्टावक्र गीता

अध्याय १६

श्लोक ७

हेयोपादेयता तावत्संसारविटपाङ्कुरः।।

स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचारदशास्पदम्।।७।।

(हेय - उपादेयता यावत् तावत् संसार - विटप - अङ्कुरः। स्पृहा जीवति यावत् वै निर्विचार - दशा - आस्पदम्।।)

अर्थ : जब तक किसी से छुटकारा पाना या कुछ प्राप्त करना है, तब तक संसाररूपी वृक्ष का बीज और अङ्कुर विद्यमान रहता है। जब तक कामना विद्यमान रहती है तब तक कुछ प्राप्त करने और कुछ त्याग करने की आवश्यकता अनुभव होती रहती है। इच्छा ही संसार-रूपी वृक्ष का बीजाङ्कुर है । विचार ही संसार का बीजाङ्कुर है। संसाररूपी इस वृक्ष के इस बीज के अंकुरित होने की भूमि विवेक अर्थात् निर्विचार चेतना ही है। विवेक-रूपी इस भूमि को जान लिए जाने तक ही संसार-रूपी इस वृक्ष का इच्छा-रूपी यह बीजाङ्कुर जीवित रहता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೬

ಶ್ಲೋಕ ೭

ಹೇಯೋಪಾದೇಯತಾ ತಾವತ್

ಸಂಸಾರವಿಟಪಾಂಕುರಃ||

ಸ್ಪೃಹಾ ಜೀವತಿ ಯಾವದ್ವೈ

ನಿರ್ವಿಚಾರದಶಾಸ್ಪದಮ್||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 16

Stanza 7

As long as desire, which is the abode of the state of indiscrimination, continues, there will verily be the sense of attachment and aversion, which is the branch and sprout of (the tree of) Samsara.

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विरक्तो विषयद्वेष्टा

अष्टावक्र गीता

अध्याय १६

श्लोक ६

विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुपः।।

ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान्।।६।।

(विरक्तः विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुपः। ग्रहमोक्षविहीनः तु न विरक्तः न रागवान्।।)

अर्थ : जिसे विषयों से द्वेष होता है वह विरागयुक्त होता है, उसे विषयों के संपर्क में आने तक से अरुचि होती है। और विषयों में जिसे रस होता है, वह विषयलोलुप होता है अर्थात् विषयों का उपभोग करने के लिए लालायित रहता है। किन्तु जिसे विषयों से न राग और न ही विराग होता है ऐसा वैराग्ययुक्त मनुष्य सभी विषयों से उदासीन अनासक्त होता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೬

ಶ್ಲೋಕ ೬

ವಿರೊರತೋ ವಿಷಯದ್ವೇಷ್ಟಾ

ರಾಗೀ ವಿಷಯಲೋಲುಪಃ||

ಗ್ರಹಮೋಕ್ಷವಿಹೀನಸ್ತು

ನ ವಿರೊಅತೋ ನ ರಾಗವಾನ್||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 16

Stanza 6

One who abhors the sense-objects, avoids them, and one who covets them, becomes attached to them. But he who does not accept or reject, is neither unattached nor attached.

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