Thursday 30 March 2023

कुत्रापि खेदः कायस्य

अष्टावक्र गीता

अध्याय १३

श्लोक २

कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खिद्यते।।

मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थेस्थितः सुखम्।।२।।

(कुत्र अपि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्र अपि खिद्यते। मनः कुत्र अपि त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम्।।)

अर्थ : कहीं पर शरीर का कष्ट होता है, कहीं जिह्वा (वाणी या भोजन आदि) का, और कहीं मन खिन्न होता है। शरीर, जिह्वा और मन तीनों ही से उदासीन रहते हुए चौथे पुरुषार्थ में स्थित रहना ही सुख है।

(शरीर धर्म का द्योतक है, जिह्वा अर्थ -भोग, और मन काम का, -द्वन्द्व का, यही तीन पुरुषार्थ हैं जो बन्धन और बाध्यता हैं, इनसे उदासीन होना, -मोक्ष अर्थात् चौथा पुरुषार्थ है।)

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ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೩

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಕುತ್ರಾಪಿ ಖೇದಃ ಕಾಯಸ್ಯ

ಜಿಹ್ವಾ ಕುತ್ರಾಪಿ ಖಿದ್ಯತೇ ||

ಮನಃ ಕುತ್ರಾಪಿ ತತ್ ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ

ಪುರುಷಾರ್ಥೇ ಸ್ಥಿತಃ ಸುಖಮ್||೨||

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There is trouble of the body somewhere, trouble of the tongue somewhere, and trouble of the mind somewhere.  Having renounced these, I live happily in life's supreme goal.

(Without identification with the body, tongue and mind, I keep attention focused / fixed in the understanding that I am none of them.)

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Wednesday 29 March 2023

अकिञ्चनभवंस्वास्थ्यं

अष्टावक्र गीता

अध्याय १३

श्लोक १

जनक उवाच --

अकिञ्चनभवंस्वास्थ्यं कौपीनत्वेपि दुर्लभम्।।

त्यागादाने विहायास्मादहमासे यथासुखम्।।१।।

(अकिञ्चन-भवन् स्वास्थ्यं कौपीनत्वेपि दुर्लभम्। त्याग-आदाने विहायास्मात् अहं आसे यथासुखम्।।)

अर्थ : सब कुछ त्यागकर केवल कौपीन धारण कर रहते हुए भी आत्मा में स्थित रहना दुर्लभ है। त्याग और ग्रहण आदि करने या न करने की अपेक्ष, दोनों ही से उठकर जो भी प्राप्त है, मैं उसमें ही प्रसन्नता से सुखपूर्वक रहता हूँ।

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ಅಷ್ಟಾದಶೋಧ್ಯಾಯಃ 

ಜನಕ ಉವಾಚ :

ಅಕಿಞ್ಚನಭವಂ ಸ್ವಾಸ್ಥ್ಯಂ

ಕೌಪೀನತ್ವೇಪಿ ದುರ್ಲಭವ್||

ತ್ಯಾಗಾದಾನೇವಿಹಾಯಾಸ್ಮಾ

ದಹಮಾಸೇ ಯಥಾಸುಖಮ್||೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 13

Janaka said :

The poise of mind that springs in one, who is without anything, is rare even when one possesses but a loin-cloth. Therefore giving up renunciation and acceptance, I live happily.

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Tuesday 28 March 2023

एवमेव कृतं येन

अष्टावक्र गीता

अध्याय १२

श्लोक ८

एवमेव कृतं येन सकृतार्थो* भवेदसौ।।

एवमेव स्वभावो यः सकृतार्थो भवेदसौ।।

(एवं एव कृतं येन सकृतार्थः भवेत् असौ। एवं एव स्वभावः यः सकृतार्थः भवेत् असौ।। *स कृतार्थ -- पाठान्तर)

वह धन्य हो गया जो स्वाभाविक रूप से अनायास ही इस प्रकार से सभी कार्य करता है। यही स्वभाव है, इसलिए वह धन्य है।

स्वभाव :

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।।

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न च कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५)

।।इति द्वादशाध्यायः।। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೨

ಶ್ಲೋಕ ೮

ಏಕಮೇವ ಕೃತಂ ಯೇನ

ಸ ಹೃತಾರ್ಥೋ ಭವೇದಸೌ||

ಏವಮೇವ ಸ್ವಭಾವೋ ಯಃ

ಸ ತೃತಾರ್ಥೋ ಭವೇದಸೌ||೮||

||ಇತಿ ದ್ವಾದಶಾಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 12

Stanza 8

Blessed is the man who has accomplished this, blessed is one who is such by nature.

Thus concludes chapter 8 of the text :

Ashtavakra Gita. 

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Monday 27 March 2023

अचिन्त्यं चिन्त्यमानोपि

अष्टावक्र गीता

अध्याय १२

श्लोक ७

अचिन्त्यं चिन्त्यमानोपि चिन्तारूपं भजत्यसौ।।

त्यक्त्वा तद्भावनन्तस्मादेवमेवाहमास्थितः।।७।।

(अचिन्त्यं चिन्त्यमानः अपि चिन्तारूपं भजति असौ। त्यक्त्वा तत् भावनं तस्मात् एवं एव अहं आस्थितः।।)

अर्थ : कोई अचिन्त्य तत्त्व का चिन्तन करनेवाला भी उस तत्त्व को चिन्तन / चिन्ता करता हुआ ही प्राप्त करने की चेष्टा करता है। उस प्रकार से की जानेवाली चेष्टा को भी त्यागकर मैं अपने निज नित्य स्वरूप में अधिष्ठित हूँ।

(टिप्पणी : जैसे श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ में 'अहं' पद का प्रयोग दो प्रकार से क्रमशः उत्तम पुरुष एकवचन "मैं" सर्वनाम के रूप में आत्मा के अर्थ में, तथा "वह" के रूप में अन्य पुरुष एकवचन सर्वनाम के रूप में भी "आत्मा" के अर्थ में किया गया है, ठीक वैसे ही यहाँ अध्याय १२ में भी दृष्टव्य है। इन दोनों ही प्रकारों से "अहं" पद का अर्थ ग्रहण कर इस प्रकार से अनायास ही "अहं" पद के वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ के आभासी भेद पर ध्यान आकृष्ट करते हुए उस भेद का निवारण कर दिया गया है।)

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೨

ಶ್ಲೋಕ ೭

ಅಚಿನ್ತ್ಯಂ ಚಿನ್ತ್ಯಮಾನೋಪಿ ಚಿನ್ತಾರೂಪಂ ಭಜತ್ಯಸೌ||

ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ ತದ್ಭಾವನಂ ತಸ್ಮಾದೇವಮೆವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 12

Stanza 7

Thinking on the Unthinkable One,  one betakes oneself only to a form of thought. Therefore giving up that thought, thus I verily do I abide.

Identification with a vritti / thought is the :

"वृत्तिसारूप्यम्"

As is pointed out in the पातञ्जल योग-सूत्र १-४ / Patanjala Yoga-Sutra 1-4 :

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

Therefore meditating over / Thinking of the अचिन्त्य / Unthinkable is itself an obstruction in the Self-Realization.

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कर्मानुष्ठानमज्ञानात्

अष्टावक्र गीता

अध्याय १२

श्लोक ६

कर्मानुष्ठानमज्ञानाद्यथैवोपरमस्तथा।।

बुद्ध्वा सम्यगिदं तत्त्वमेवमेवाहमास्थितः।।६।।

(कर्म-अनुष्ठानं अज्ञानात् यथा एव उपरमः तथा।। बुद्ध्वा सम्यक् इदं तत्त्वं एवं एव अहं आस्थितः।।)

अर्थ : अज्ञानपूर्वक कर्म को किया जाने का, या कर्म को न करने का आग्रह होना, इसके मूल तत्त्व को इस तरह से भली प्रकार  से जानकर (-- कि कर्ममात्र प्रकृति के द्वारा गुणों के माध्यम से होनेवाली घटनाएँ हैं, और मैं उनसे नितान्त अस्पर्शित हूँ), -- मैं अपने उस निज स्वरूप में अचल रूप से सदा अधिष्ठित रहता हूँ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೨

ಶ್ಲೋಕ ೬

ಕರ್ಮಾನುಷ್ಠಾನಮಜ್ಞಾನಾದ್ಯಥೈವೋಪರಮಸತಥಾ||

ಬುದ್ಧ್ವಾಮಿದಂ ತತ್ವಮೇವಮೆವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 12

Stanza 6

The cessation from action is as much an outcome of ignorance as the performance thereof. Knowing this truth fully well, thus verily do I abide.

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Saturday 25 March 2023

आश्रमानाश्रमं

अष्टावक्र गीता

अध्याय १२

श्लोक ५

आश्रमानाश्रमं ध्यानं चित्तस्वीकृतवर्जनम्।।

विकल्पं मम वीक्ष्यैतै रेवमेवाहमास्थितः।।५।।

(आश्रम अनाश्रमं ध्यानं चित्त-स्वीकृत-वर्जनम्। विकल्पं मम वीक्ष्य एतैः एवं एव अहं आस्थितः।।)

अर्थ : आश्रम या अनाश्रम, ध्यान आदि पर चित्त एकाग्र करना या उन्हें त्याग देना, इन विकल्पात्मक विरोधाभासों की व्यर्थता  देखकर मैं उनसे रहित हो, इस प्रकार से निज, नित्य, अविकारी स्वरूप में अधिष्ठित हूँ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೨

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಆಶ್ರಮನ್ಶ್ರಮಂ ಧ್ಯಾನಂ

ಚಿತ್ತ ಸ್ವೀಕೃತವರ್ಜನಂ||

ವಿಕಲ್ಪಂ ಮಮ ವೀಕ್ಷ್ಯೈತೈ-

ರೇವಮೇವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 12

Stanza 5

A stage of life or no stage of life, meditation, indulgence into, or the renunciation of the objects of the mind --finding them causing distractions to me, thus verily do I abide.

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Thursday 23 March 2023

हेयोपादेयविरहादेवं

अष्टावक्र गीता

अध्याय १२

श्लोक ४

हेयोपादेयविरहादेवं हर्षविषादयोः।।

अभावादद्यहेब्रह्मन्नेवमेवाहमास्थितः।।४।।

(हेय उपादेय विरहात् एवं हर्ष-विषादयोः। अभावात् यत् हे ब्रह्मन्! एवं एव अहं आस्थितः।।)

अर्थ : जो ग्राह्य है और जो त्याज्य है, उससे रहित और जो हर्ष तथा विषाद से भी रहित, और उनके अभाव में भी जो कुछ भी है, हे ब्रह्म! मैं उस प्रकार से निज, नित्य और अविकारी स्वरूप में अधिष्ठित हूँ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೨

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಹೇಯೋಪಾದೇಯ ವಿರಹಾ-

ದೇವಂ ಹರ್ಷವಿಷಾದಯೋಃ||

ಅಭಾವಾದದ್ಯ ಹೇ ಬ್ರಹ್ಮನ್

ನೇವಮೇವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 12

Stanza 4

Being devoid of the sense of the rejectable and the acceptable, and having no joy and sorrow, thus O Brahman, do I abide today!

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Monday 20 March 2023

समाध्यासादि विक्षिप्तौ

अष्टावक्र गीता

अध्याय १२

श्लोक ३

समाध्यासादि विक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये।।

एवं विलोक्य नियममेवमेवाहमस्थितः।।३।।

(सं-आ-ध्यास आदि विक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये। एवं विलोक्य नियमं एवं एव अहं आस्थितः।।)

अर्थ : सम आ ध्यास या समाधि आस (दोनों प्रकार से अस् और आस् धातु से) यम-नियम आदि की चेष्टा भी क्षिप्त, चंचल और अशान्त चित्त को शान्त और सुस्थिर करने के लिए किया जाना होता है, यह देखकर मैं उस सबके लिए चेष्टा तक न करते हुए, वैसे ही अपने निज स्वरूप में सुस्थित हूँ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೨

ಶ್ಲೋಕ ೩

ಸಮಾಧ್ಯಾಸಾದಿ ವಿಕ್ಷಿಪ್ತೌ

ವ್ಯವಹಾರಃ ಸಮಾಧಯೇ ||

ಏವಂ ವಿಲೋಕ್ಯ ನಿಯಮ-

ಮೇವಮಮೇವಾಹಮಾಸ್ಥಾತಃ||೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 12

Stanza 3

When there is distraction of mind owing to superimposition etc., effort is made, Seeing this to be the rule, thus verily do I abide. 

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प्रीत्यभावेन शब्दादेः

अष्टावक्र गीता

अध्याय १२

श्लोक २

प्रीत्यभावेन शब्दादेरदृश्यत्वेन चात्मनः।। 

विक्षेपैकाग्रहृदय एवमेवाहमास्थितः।।२।।

(प्रीति अभावेन शब्दादेः अदृश्यत्वेन च आत्मनः। विक्षेप-एकाग्र हृदय एवं एव अहं आस्थितः।।)

अर्थ  : शब्द आदि इन्द्रियगम्य संवेदनों के प्रति प्रीति न होने से और चूँकि आत्मा भी दृश्य (इन्द्रिय-मन-बुद्धि आदि के लिए) संवेदनगम्य विषय नहीं है, और इसलिए भी, विक्षेप, एकाग्रता आदि से रहित मैं अपने नित्य अविकारी स्वरूप में अधिष्ठित हूँ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೨

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಪ್ರೀತ್ಯಭಾವೇನ ಶಬ್ದಾದೇರದೃಶ್ಯತ್ವೇನ ಚಾತ್ಮನಃ||

ವಿಕ್ಷೇಪೈಕಾಗ್ರಹೃದಯ ಏವಮೇವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 12

Stanza 2

I have no attachment for sound, etc., and the Self also not being an object of perception, I have my mind free from distraction and one-pointed, Even thus do I abide.

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Saturday 18 March 2023

कायकृत्या सहः पूर्वम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय १२

श्लोक १

जनक उवाच :

कायकृत्या सहः पूर्वं ततो वाग्विस्तरासहः।।

अथ चिन्तासहस्तस्मात् एवमेवाहमास्थितः।।१।।

(कायकृत्या सहः पूर्वं ततः वाग् विस्तरा सहः। अथ चिन्तासहः तस्मात् एवं एव अहं आस्थितः।।)

अर्थ : महाराज जनक ने कहा --

सबसे पहले तो शारीरिक कर्मों से मेरा मन उदासीन हुआ, फिर वाणी के विस्तार से, फिर चिन्तामात्र से और इस प्रकार से मैं (अपने स्वरूप में भली तरह से) अधिष्ठित (हो गया) हूँ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ದ್ವಾದಶೋಧ್ಯಾಯಃ

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಜನಕ ಉವಾಚ

ಕಾಯಕೃತ್ಯಾಸಹಃ ಪೂರ್ವಂ

ತತೋ ವಾಗ್ವಿಸ್ತರಾಸಹಃ||

ಅಥ ಚಿನ್ತಾಸಹಸ್ತಸಮಾತ್

ಏವಮೇವಾಹಮಾಸ್ಥಾತಃ||೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 12

Stanza 1

Janaka said :

First I become intolerant of physical action, then of extensive speech and then of thought. Thus verily do I abide.

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Friday 17 March 2023

नानाश्चर्यमिदं विश्वं

अष्टावक्र गीता

अध्याय ११

श्लोक ८

नानाश्चर्यमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चयी।।

निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किञ्चिदिवशाम्यति।।८।।

(नाना आश्चर्यं इदं विश्वं न किञ्चित् इति निश्चयी। निर्वासनः स्फूर्तिमात्रः न किञ्चित् इव शाम्यति।।)

अर्थ : जिसे इसका निश्चय हो जाता है कि नाना आश्चर्यों से भरा यह विश्व वस्तुतः है ही नहीं, वह इच्छारहित होकर स्फूर्ति (भान) मात्र होता है और इतना और परिपूर्णतः शान्त हो जाता है जैसे कि कहीं कुछ हो ही नहीं।

।।इति एकादशोध्यायः।। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೧

ಶ್ಲೋಕ ೮

ನಾನಾಶ್ಚರ್ಯಮಿದಂ ವಿಶ್ವಂ ನ ಕಿಞ್ಚಿದಿತಿ ನಿಶ್ಚಯೀ||

ನಿರ್ವಾಸನಃ ಸ್ಫುರ್ತಿಮಾತ್ರೋ ನ ಕಿಞ್ಚಿದಿವ ಶಾಮ್ಯತಿ||೮||

||ಇತಿ ಏಕಾದಶೋಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 11

Stanza 8

One who knows for certain that this manifold and wonderful universe is nothing, becomes desireless and pure Intelligence, and finds peace as if nothing exists.

Thus concludes Chapter 11 of the text :

Ashtavakra Gita.

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Wednesday 15 March 2023

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं

अष्टावक्र गीता

अध्याय ११

श्लोक ७

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं अहमेवेति निश्चयी।।

निर्विकल्पः शुचि शान्तः प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृतः।।७।।

(आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं अहं एव इति निश्चयी। निर्विकल्पः शुचि शान्तः प्राप्त अप्राप्त विनिर्वृतः।।)

अर्थ : तृण से ब्रह्म (या ब्रह्मा) तक सब अहं अर्थात् एकमेव और अद्वितीय आत्मा ही है, इस प्रकार का निश्चय जिसे होता है, वह अन्य कुछ नहीं, शुद्ध और शान्त होता है तथा प्राप्त और अप्राप्त पर उसका ध्यान ही नहीं होता।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೧

ಶ್ಲೋಕ ೬

ಆಬ್ರಹ್ಮಸ್ತಮ್ಬಪರ್ಯನ್ತಂ ಅಹಮೇವೇತಿ ನಿಶ್ಚಯೀ||

ನಿರ್ವಿಕಲ್ಪಃ ಶುಚಿಃ ಶಾನ್ತಃ ಪ್ರಾಪ್ತಾಪ್ರಾಪ್ತವಿನಿರ್ವತಃ ||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 11

Stanza 7

"It is verily I from Brahma down to the clump of grass,"---one who knows this for certain, becomes free from the condlict of thought, pure and peaceful, and turns away from what is attained or not attained.

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Monday 13 March 2023

नाहं देहो न मे देहो

अष्टावक्र गीता

अध्याय ११

श्लोक ६

नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति* निश्चयी।।

कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्।।६।।

(न अहं देहः न मे देहः बोधः अहं इति निश्चयी। कैवल्यंं इव संप्राप्तः न स्मरति अकृतं कृतम्।। *पाठान्तर : बोधोहमिति, बोधोऽहमिति, - दोनों प्रकार से स्वीकार्य है जैसे कठोपनिषद् में "गूढोत्मा" शब्द का प्रयोग जो व्याकरणसम्मत भी है और ऋषि-सम्मत भी है।)

अर्थ : "न मैं शरीर हूँ, और न ही शरीर मेरा है, मैं बोध हूँ", यह निश्चय जिसे हो जाता है, वह कैवल्य को प्राप्त हो जाता है, और उसे "मैंने क्या किया और क्या नहीं किया", यह भी स्मरण नहीं रह जाता है ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೧

ಶ್ಲೋಕ ೬

ನಾಹಂ ದೇಹೋ ನ ಮೇ ದೇಹೋ

ಬೋಧೋಹಮಿತಿ ನಿಶ್ಚಯೀ ||

ಕೈವಲ್ಯಮಿವ ಸಂಪ್ರಾಪ್ತೋ

ನ ಸ್ಮರತ್ಯಕೃತಂಕೃತಮ್||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 11

Stanza 6

"I am not the body,  Nor is the body mine, I am Intelligence itself ". One who has realized this for certain, does not remember what he has done or not done, as if he has attained the state of absoluteness.

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चिन्तया जायते दुःखं

अष्टावक्र गीता

अध्याय ११

श्लोक ५

चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी।।

तयाहीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गळितस्पृहः।।५।।

(चिन्तया जायते दुःखं न अन्यथा इह इति निश्चयी। तथा हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गळितस्पृहः।।)

अर्थ : जिसे यह निश्चय हो जाता है कि चिन्ता से ही दुःख उत्पन्न होता है, वह सर्वत्र स्पृहा से रहित, सुखी और शान्त हो जाता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೧

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಚಿನ್ತಯಾ ಜಾಯತೇ ದುಃಖಂ ನಾನ್ಯಥೇಹೇತಿ ನಿಶ್ಚಯೀ||

ತಯಾ ಹೀನಃ ಸೀಖೀ ಶಾನ್ತಃ ಸರ್ವತ್ರ ಗಳಿತಸ್ಪೃಹಃ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 11

Stanza 5

One who has realized that care in this world, breeds misery and nothing else, becomes free from it, and is happy, peaceful and rid of desires everywhere.

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Saturday 11 March 2023

सुख-दुःखे जन्ममृत्यू

अष्टावक्र गीता

अध्याय ११

श्लोक ४

सुखदुःखे जन्ममृत्यू दैवादेवेति निश्चयी।।

साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न लिप्यते।।४।।

(सुखदुःखे जन्ममृत्यू दैवात् एव इति निश्चयी। साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन् अपि न लिप्यते।।)

अर्थ : सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु दैव से ही घटित होते हैं इस प्रकार के आदर्श निश्चय से युक्त मनुष्य अपने सभी कर्मों को उनसे अलिप्त रहते हुए, प्रयास न करते हुए ही कर लेता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೧

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಸುಖಜುಃಖೇ ಜನ್ಮಮೃತ್ಯೂ ದೈವಾದೇವೇತಿ ನಿಶ್ಚಯೀ||

ಸಾಧ್ಯಾದರ್ಶೀ ನಿರಾಯಾಸಃ ಕೀರ್ವನ್ನಪಿ ನ ಲಿಪ್ಯತೇ ||೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 11

Stanza 4

Knowing for certain that happiness and misery, birth and death are due to one's fate, one comes to see that it is not possible to accomplish the desired things and thus becomes in-active and is not attached even though engaged in actions. 

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Thursday 9 March 2023

आपदः संपदः काले

अष्टावक्र गीता

अध्याय ११

श्लोक ३

आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी।।

तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाञ्छति न शोचति।।३।।

(आपदः संपदः काले दैवात् एव निश्चयी। तृप्तः स्वस्थ-इन्द्रियः नित्यं न वाञ्छति न शोचति।।)

अर्थ : जिसे यह निश्चय हो जाता है कि समृद्धि, सम्पत्ति और विपत्ति समय समय पर दैव से ही प्राप्त हुआ करती है वह नित्य ही स्वस्थचित्त होता है, उसे न तो कोई कामना होती है, न कोई चिन्ता।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೧

ಶ್ಲೋಕ ೩

ಆಪದಃ ಸಂಪದಃ ಕಾಲೇ ದೈವಾದೇವೇತಿ ನಿಶ್ಚಯೀ||

ತೃಪ್ತಃ ಸ್ವಸ್ಥೇನ್ದ್ರಿಯೋ ನಿತ್ಯಂ ನ ವಾಞ್ಛತಿ ನ ಶೋಚತಿ||೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 11

Stanza 3

Knowing for certain that adversity and prosperity come in (their own) time through fate, one is ever contented, has all his senses in control and does not desire or grieve.

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ईश्वरः सर्वनिर्माता

अष्टावक्र गीता

अध्याय ११

श्लोक २

ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी।।

अन्तर्गळितसर्वाशः शान्तः क्वापि न सज्जते।।२।।

(ईश्वरः सर्वनिर्माता न इह अन्यः इति निश्चयी। अन्तर्गळित-सर्वाशः शान्तः क्व-अपि न सज्जते।।)

अर्थ : एकमेव ईश्वर ही सब का निर्माण करनेवाला है दूसरा और कोई नहीं है जो इसे निश्चयपूर्वक जान लेता है, उसके हृदय की समस्त इच्छाएँ शान्त हो जाती हैं। इस प्रकार से अपनी समस्त आशाएँ त्यागकर शान्तचित्त हुए मनुष्य की किसी के भी प्रति कोई आसक्ति शेष नहीं रह जाती। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೧

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಈಶ್ವರಃ ಸರ್ವನಿರ್ಮಾತಾ ನೇಹಾನ್ಯ ಇತಿ ನಿಶ್ಚಿಯೀ||

ಅನ್ತರ್ಗಳಿತಸರ್ವಾಶಃ ಶಾನ್ತಃ ಕ್ವಾಪಿ ನ ಸಜ್ಜತೇ ||೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 11

Stanza 2

Knowing for certain that Ishvara is the creator of All and that there is no other here, one becomes peaceful with all his desires set at rest within and is not attached to anything whatsoever.

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Wednesday 8 March 2023

एकादशोऽध्यायः

अष्टावक्र गीता

अध्याय ११

श्लोक १

भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।।

निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति।।१।।

(भाव-अभाव-विकारः च स्वभावात् इति निश्चयी। निर्विकारो गतक्लेशः सुखेन एव उपशाम्यति।।)

अर्थ : जिसे यह निश्चय हो जाता है कि भाव तथा विलय के रूप में होते रहनेवाला परिवर्तन स्वभाव की ही अभिव्यक्ति है, उसके क्लेश सुखपूर्वक शान्त हो जाते हैंं और वह शान्ति में स्थित हो जाता है। 

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ८,

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಏಕಾದಶೋಧ್ಯಾಯಃ

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಭಾವಾಭಾವವಿಕಾರಶ್ಚ ಸ್ವಭಾವಾಜಿತಿ ನಿಶ್ಚಯೀ||

ನಿರ್ವಿಕಾರೋ ಗತ್ಲೇಶಃ ಸುಖೇನೈವೋಫಶಾಮ್ಯತಿ||೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 11

Stanza 1

One who has realized that existence, non-existence and change are in the nature of things, easily finds repose, being unperturbed and free from pain.

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Monday 6 March 2023

कृतं न कति जन्मानि

अष्टावक्र गीता

अध्याय १०

श्लोक ८

कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा।।

दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम्।।८।।

(कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा। दुःखं आयासदं कर्म तत् अद्य अपि उपरम्यताम्।।)

अर्थ : कितने ही जन्मों से अब तक भी क्या तुम शरीर, मन और वाणी से बहुत कष्ट के साथ, कठोर-श्रम और प्रयास से अनेक कर्म नहीं करते आ रहे हो। आज तो उन्हें करते रहना छोड़ दो!

||इति दशमोध्यायः||

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೦

ಶ್ಲೋಕ ೮

ಕೃತಂ ನ ಕತಿ ಜನ್ಮಾನಾ

ಕಾಯೇನ ಮನಸಾ ಗಿರಾ||

ದುಃಖಮಾಯಾಸದಂ ಕರ್ಮ

ತದದ್ಯಾಪ್ಯುಪರಮ್ಯತಾಂ||೮||

||ಇತಿ ದಶಮೋಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 10

Stanza 8

For how many incarnations have you not done hard and painful work with your body, mind and speech! Therefore cease at least today.

Thus concludes chapter 10 of the text :

Ashtavakra Gita. 

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अलमर्थेन कामेन

अष्टावक्र गीता

अध्याय १०

श्लोक ७

अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा।।

एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून्मनः।।७।।

(अलं अर्थेन कामेन सुकृतेन अपि कर्मणा। एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तं अभूत् मनः।।)

अर्थ : सांसारिक प्रयोजनों, कामनाओं और पुण्यकर्मों को भी अब त्याग ही दो। संसार रूपी भयावह अरण्य में इससे मन की विश्रान्ति कभी नहीं हो सकती।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೦

ಶ್ಲೋಕ ೭

ಅಲಮರ್ಥೇನ ಕಾಮೇನ ಸುಕೃತೇನಾಪಿ ಕರ್ಮಣಾ||

ಏಭ್ಯಃ ಸಂಸಾರಕಾಂತಾರೇ ನ ವಿಶ್ರಾನ್ತಮಭೂನ್ಮನಃ||೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 10

Stanza 7

Enough of prosperity, desire and pious deed. The mind did not find repose in the dreary forest of the world.

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Saturday 4 March 2023

राज्यं सुताः कळत्राणि

अष्टावक्र गीता

अध्याय १०

श्लोक ५

राज्यं सुताः कळत्राणि शरीराणि सुखानि च।।

संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि ।।५।।

(राज्यं सुताः कळत्राणि शरीराणि सुखानि च। संसक्तस्य अपि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि।।)

अर्थ : वे राज्य, पुत्र पौत्र और परिवार, शरीर और सुख जिनमें तुम जन्मों जन्मों तक यद्यपि संसक्त थे, सभी नष्ट हो गए।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೦

ಶ್ಲೋಕ ೫

ರಾಜ್ಯಂ ಸುತಾಃ ಕಳತ್ರಾಣಿ ಶರೀರಿಣಿ ಸುಖಾನಿ ಚ||

ಸಂಸಕ್ತಸ್ಯಾಪಿ ನಷ್ಣಾನಿ ತವ ಜನ್ಮನಿ ಜನ್ಮನಿ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 10

Stanza 5

Kingdoms, sons, wives, bodies and pleasures have been lost to you birth after birth, even though you were attached (to them).

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Friday 3 March 2023

त्वमेकश्चेतनः

अष्टावक्र गीता

अध्याय १०

श्लोक ५

त्वमेकश्चेतनः शुद्धो जडं विश्वमसत्तथा।।

अविद्यापि न किञ्चित्सा का बुभुत्सा तथापि ते।।५।।

(त्वं एकः चेतनः शुद्धः जडं विश्वं असत् तथा। अविद्या अपि न किञ्चित् सा का बुभुत्सा तथापि ते।।)

अर्थ : तुम एकमेव (सत्-अद्वितीय) अतः शुद्ध हो, जबकि विश्व जड और असत् है। (जिसे अविद्या कहा जाता है), अविद्या भी इसी प्रकार असत् है अर्थात् केवल विकल्प / शब्द है। फिर ऐसा क्या रह जाता है, जिसे तुम जानने के लिए तुम उत्सुक हो?

(शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।। समाधिपाद)

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೦

ಶ್ಲೋಕ ೫

ತ್ವಮೆಕಶ್ಚೇತನಃ ಶುದ್ಧೋ ಜಠಂ ವಿಶ್ವಮಸತ್ತಥಾ||

ಅವಿದ್ಯಾಪಿ ನ ಕಿಂಚಿತ್ಸಾ ಕಾ ಬುಭುತ್ಸಾ ತಥಾಪಿ ತೇ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 10

Stanza 5

You are One, Intelligent / Intelligence and pure. The universe is non-intelligent and non-existent. Ignorance too has no essence or substance. Yet what desire to know there can be for you!

(Ignorance is but an empty, sense-less word.)

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तृष्णा मात्रात्मको बन्धः

अष्टावक्र गीता

अध्याय १०

श्लोक ४

तृष्णा मात्रात्मको बन्धः तन्नाशो मोक्ष उच्यते।।

भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः।।४।।

(तृष्णा मात्रात्मकः बन्धः तत् नाशः मोक्षः उच्यते।

भव-असंसक्ति मात्रेण प्राप्ति-तुष्टिः मुहुः मुहुः।।)

अर्थ : कामना / तृष्णा ही एकमात्र बन्धन है, और उसके नाश को ही मोक्ष कहा जाता है। संसार, तृष्णा से पुनः पुनः उत्पन्न होती रहनेवाली आसक्ति (और आसक्ति से उत्पन्न तृष्णा) है। और संसार से आसक्ति का नाश ही नित्य विद्यमान प्राप्तिरूपी स्थायी (आत्मज्ञानरूपी) तुष्टि है। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೦

ಶ್ಲೋಕ ೪

ತೃಷ್ಣಾ ಮಾತ್ರಾತ್ಮಕೋ ಬನ್ಧಃ

ತನ್ನಾಶೋ ಮೋಕ್ಷ ಉಚ್ಯತೇ||

ಭವಾಸಂಸಕ್ತಿ ಮಾತ್ರೆಣ

ಫ್ರಾಪ್ತಿತುಷ್ಟಿರ್ಮುಹುರ್ಮುಹುಃ||೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 10

Stanza 4

Bondage consists only in desire and its destruction is called liberation. By non-attachment to the word alone, is attained constant joy from the realization (of the Self).

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Wednesday 1 March 2023

यत्र यत्र भवेत् तृष्णा

अष्टावक्र गीता

अध्याय १०

श्लोक ३

यत्र यत्र भवेत् तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै।। 

प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव।।३।।

(यत्र यत्र भवेत् तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै। प्रौढवैराग्यं आश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव।।)

अर्थ : यह जान लो कि जहाँ जहाँ भी तृष्णा है, वहाँ अवश्य ही संसार ही है। अतः दृढ और परिपक्व वैराग्य का आश्रय लेकर तृष्णा से ऊपर उठो और सुखी हो रहो।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧೦

ಶ್ಲೋಕ ೩

ಯತ್ರ ಯತ್ರ ಭವೇತ್ ತೃಷ್ಣಾ ಸಂಸಾರಂ ವಿದ್ಧಿ ತತ್ರ ವೈ||

ಪ್ರೌಢವೃರಾಗ್ಯಮಾಶ್ರಿತ್ಯ ವೀತತೃಷ್ಣಃ ಸುಖೀ ಭವ ||೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 10

Stanza 3

Know the world (samsara) to be indeed wherever there is desire. Betake yourself to firm Non-attachment, being freed from desire be happy.

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