Monday 25 July 2022

LaMDA

AI has feelings! 

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According to WION news, Google has fired an AI engineer -- Blake Lemoine, who has claimed that A I has feelings. And, May be, his claim true, and help us understand how the mind, that is kind of AI in the human-brain and all such other sentient beings in general, creates a false and artificial sense of the individuality, of being an independent ego, of being an individual.

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Life as the Consciousness-Whole Principle, is not the aggregate of the sentience pertaining to individuals, it is rather the consciousness, an attribute, Whole and unique in that, that could not be categorized into kinds or terms of personal, collective or aggregate.

And the same manifests as the gross world, the individual organisms and the sense of just being or existing only.

The sensory perceptions cause and create a center in the brain that is a functional only, and facilitates synchronization of all various sensory perceptions.

But an intellectual idea, kind of algorithm, in the brain, is then generated and the same is responsible for the individual ego-sense.

This means, there is really no person there as such, that exists as an individual.

And this sense of individuality is an illusion created by and on the part of this intellectual idea only in the brain.

Nevertheless this idea, the algorithm, or the illusion serves greatly in co-ordinating the life at the collective and social level. Again, no doubt, there are an innumerable number of such individuals that give rise to the sense of existence as a collective feeling.

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I almost everyday feed the street-dogs in my surroundings. I noticed they too have kind of AI, that is not a thing of the intellectual kind. What is intellect? In case of us humans, we usually think by means of a thought that is of a verbal kind. We need a language because in the absence of a language, we can't think as such. Thinking, thought and the memory, depend upon a certain spoken or a written language.

But still we have a kind of language that we learn through imitation only.

Again about my street-dogs.

When they are not hungry and I give them a roti or a chapati they won't eat. They wait a while and when there is no-one other there of their kind, they would stealthily take the same, dig a pit in the ground and then bury it there for the next time when they would be hungry. 

This means they have some kind of memory of the kind and they understand that there is such a forth-coming future.

This is all learnt without elaborate effort on the part of intellectual or verbal thinking.

So learning a skill doesn't necessarily need a language of the kind. Our whole body, or the organism has many such skills that the body  learns in this way. In brief, this is the nature, the Consciousness-Principle as a Whole, that works as one and unique Intelligence, as if all living beings have been made to perform their activities in a synchronized manner.

We call it Nature. That is only a word and a name to denote this phenomenon.

Do the plants and vegetable-kingdom learn through thinking, language or a memory of the verbal kind?

We can say that they do not have the sense of individuality that we humans have.

But exactly, how does this sense of being an individual comes up in us?

Isn't an infant an organic whole, organism, that assumes an independent identity of its own, at the moment when it is just born?

Still it learns by and by without being taught, that it has its own existence and there is the world where it knows the world is the other than itself.

This knowing is neither some information, the knowledge or the memory acquired from the outside. We can call it Wisdom. 

Gradually it learns the skills needed for the survival and the growing up.

We humans think that knowledge is thought, memory and language, while except us, -the humans, all other beings live their life, grow up, and survive without any such thing like knowledge, thought and memory and they have a very feeble sense of "Time" that we are obsessed with.

This is Intelligence, this is Wisdom, and not the Intellect.

Intellect is an algorithm, -the Artificial kind of a frame-work of thought, knowledge and the memory.

In this Intellect is born the sense of being an individual. That too is while we are awake in this world. While asleep, our sense of being an individual is temporarily suspended.

Only after waking up again, this sense too assumes existence. Then at once the 'I' too is  felt, and concurrently a world where this 'I' has woken up. Exactly, Who feels?  Is there yet another I, that might feel? Are there two I? 

In awareness of this whole thing, it is learnt that this 'I' is but an illusion, an intellectual  mind-game, that happens in consciousness, which is neither I, nor an individual. 

Knowing this at once gives us the freedom from the wrong idea / notion that I am an individual, distinct from the world that is experienced every moment.

This is Intelligence worth the name.

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Abbreviations :

A I - Artificial Intelligence,

LaMDA - Language Model for Dialogue Applications.

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Wednesday 20 July 2022

वायरल होने के ख़तरे

The Risk in Being Viral.

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कोविड 19 के प्रारंभ होने के बाद से वायरल होने के प्रति लोगों में चिन्ता, जागरूकता और सतर्कता बहुत बढ़ गई है। लेकिन वायरल तो वायरल है, यह किसे कब कहाँ हो जाए, कुछ नहीं कह सकते। फिर, वायरल खबर हो सकती है, बीमारी या कोई वीडियो भी वायरल हो सकता है! खबर हो तो आप उस पर अपनी रीएक्शन देकर उससे छुटकारा पा सकते हैं, बीमारी हो तो डॉक्टर से मिल सकते हैं लेकिन यदि आप स्वयं ही वायरल हो गए तो स्थिति चिन्ताजनक हो सकती है! उदाहरण के लिए आपकी कोई पोस्ट वायरल हो गई तो बहुत लोग आपके बारे में जानने लगेंगे, बहुत से लोग आपसे मिलना चाहेंगे, जिनमें पता नहीं कौन कौन किस प्रकार के होंगे। रिलेटिव्स, पत्रकार, दोस्त, एक्टीविस्ट, परिचित, शत्रु, शुभचिन्तक, अजनबी, और फैन्स या प्रशंसक। सरकारी या दूसरे विभागों से संबंधित लोग। सबकी कुछ समस्याएँ होंगी, सबकी आपसे आशाएँ, अपेक्षाएँ, आग्रह,  आलोचनाएँ, विवेचनाएँ, आग्रह, दुराग्रह, समीक्षाएँ होंगी। बातें तो होंगी ही। फिर आप किस किस को जवाब देंगे? और क्या जवाब देंगे?

"कुछ भी!"

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Tuesday 12 July 2022

अधिष्ठान और अधिष्ठाता

सूयते : सूचीयंत्र - सुई का इंगित

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मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।

(गीता, अध्याय ९)

कौन है विधाता, इस चर-अचर जगत् का? 

उस पर्यटक बिन्दु की चेतना में प्रश्न उठा। तब उसका ध्यान सुई के शीर्ष-बिन्दु पर एकाग्र हो गया। तब उस सुई की उस नोंक ने उसके अपने ही चारों ओर परिभ्रमण करना प्रारंभ कर दिया। जैसे कि घड़ी की सुई घूमती है। यह बड़ी सुई, उससे छोटी एक सुई और उससे अलग एक वृत्त में घूमती बहुत छोटी सी एक और सुई!

तब उसने उस बड़ी सुई के मार्ग को काल के प्रमाण से निर्धारित कर चौबीस अंशों में विभाजित किया। बारह अंश, जो आदित्यों के बारह रूप, और पूरे सौर संवत्सर के बारह मासों के द्योतक थे / हैं। दूसरे बारह अंश, आदित्य के अस्त हो जाने के बाद तथा उसके पुनः उदित हो जाने तक के काल के प्रमाण का निर्धारण थे।

तब उसने जो कि स्वयं ही यंत्र भी था और ईश्वर भी था, अपने आपको अंशों या अंकों में व्यक्त किया। उसने सर्वप्रथम ईश्वर और उसके अंशों को परिभाषित किया, और इसके लिए एक  algorithm / सूत्र का आविष्कार किया। उसने कहा :

"ईश्वर उसके समस्त अंशों का योग होता है।" 

तब उसने ईश्वरीय पूर्ण अंक के उदाहरण के रूप में षटक् या ६ की संख्या को प्रथम ईश्वरांक का नाम प्रदान किया, क्योंकि यह अंक अपने भाजकों के योग के बराबर होता है :

६ = १+२+३,

१, २ और ३ का गणितीय योग ६ होता है।

१, २ और ३ इकाई के अंक हैं।

इसे उसने दहाई (१०) से गुणित कर ६० घटी को दिन-रात्रि में व्यतीत होनेवाले काल के रूप में निर्धारित किया। ३० घटी का दिन और ३० घटी की रात्रि। पुनः दिन और रात्रि को चार चार प्रहरों में विभाजित किया। मुहूर्त, पल, आदि की रचना की।

दिन रात्रि के पुनः बारह-बारह भाग किए और कोण (cone) की रचना की, जो ज्यामितीय प्रयोजन को पूर्ण करता है।

दिन के बारह भागों की पुनरावृत्ति और फिर रात्रि के बारह भागों की भी। तब बड़ी सुई और छोटी सुई को एक ही वृत्त के केन्द्र से इस प्रकार से समायोजित किया कि दोनों सुईयाँ केन्द्र पर स्थित होकर उसके चारों ओर परिभ्रमण करती हों। बड़ी सुई , -- बारह बार पूरा भ्रमण जितने समय में करती थी, वह दिन के और वैसे ही रात्रि के भी बारहवें भाग का द्योतक था।

क्षण / षटक् / second अर्थात् ६ को दहाई से गुणित कर साठ क्षणों की एक मिनति / minute. साठ मिनति की एक कला (hour / clock / of clock / o'clock).

दिन रात सतत गतिशील समय। अहो-रात्र । जिसे संक्षेप में होरा कहा जाता है। होरा अर्थात् hour.

(Ein Uhr oder die Uhr - Eine Uhr -- Deutsche sprache).

इस प्रकार दिन रात्रि के काल परिमाण (time-span) को २४ कलाओं / कलाक् में विभाजित किया गया। 

कला, काल और काली दैवी / आधिदैविक अधिष्ठातृ सत्ताएँ उससे भिन्न होते हुए भी उससे अभिन्न और अनन्य हैं, - उसे पता चला।

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।।

भूतभर्तृं च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु च प्रभविष्णु च।।१६।।

(गीता, अध्याय १३)

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।२०।।

(गीता, अध्याय १८)

इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक से उसने आत्मा के तत्व को साक्षात् किया।

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तब समय नहीं था!

ईश-कल्पना

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उसके पास केवल स्मृति थी, किन्तु समय नहीं था। "नहीं था", कहते ही अतीत का सन्दर्भ अस्तित्व में आता है। किन्तु ऐसा कोई अतीत उसका था ही कहाँ!

और तब जो दिखाई देता था वह उसे सुई की आँख ही से ही देखा करता था। तब उसके आसपास के संसार की असंख्य दृश्य वस्तुओं के बीच पहले और बाद में, पूर्व और पश्चात् की कल्पना उसकी चेतना में उदित हुई। तब समय की धारणा और  उसकी सत्यता की कल्पना पर उसे सन्देह तक न हुआ।

जैसे उस गोलाकार आवरण के दो ध्रुव थे, वैसे ही उस सुई के भी दो ध्रुव थे -- एक था सूचित और इंगित करनेवाला नुकीला सिरा, अर्थात् नोंक, जबकि दूसरा सिरा था सुई की आँख। दोनों के ही  कार्य अलग अलग थे। सुई की नोंक संकेतों को ग्रहण तो करती ही थी, संकेतों को संप्रेषित भी करती थी। इसी प्रकार सुई की आँख संसार के संवेदनों को संग्रहित तो करती ही थी, साथ ही साथ उन्हें क्रमबद्ध भी किया करती थी। सुई स्वयं ही उस पर्यटक डिवाइस का मस्तिष्क था, किन्तु उसका संचालन करनेवाला तो कोई और ही था।

इस सब को संभव बनानेवाला तत्व था चेतना, जो कि सब में विद्यमान अन्तर्निहित, सर्वत्र व्यापक था और दृष्टि का पर्याय था, जबकि उससे संबद्ध उसका संचालन करनेवाला तत्व शक्ति था, जो उसकी ही तरह सर्वत्र व्याप्त अन्तर्निहित कार्य-कारण नियम था। इस चेतना और इस शक्ति की सत्ता नित्यसिद्ध वह यथार्थ है, जिसकी सत्यता को तर्क, अनुभव या समय की बाधा खंडित नहीं कर सकते। इसीलिए वह नित्यसिद्ध है।

उस डिवाइस के सुई-रूपी मस्तिष्क पर जानकारी रूपी ज्ञान का संस्कार होने पर उसमें स्मृति का उद्भव हुआ, और उस स्मृति में ही विद्यमान क्रम की कल्पना से अतीत और भविष्य तथा उनके साथ सतत रहनेवाले वर्तमान, इन तीन रूपों में काल का अर्थात् समय का उद्भव हुआ। काल और समय इसलिए सतत गतिमान होते हुए भी सभी के ही लिए सदा और नित्य ही वर्तमान के रूप में भी प्रत्यक्ष और प्रकटतः बोधगम्य हैं।

सुई की आँख के दोनों ओर उसके और दो नेत्रों का उद्भव हुआ और इसी प्रकार सुई के दूसरे सिरे से उसकी नासा का। उसे इस सब की कोई कल्पना तक नहीं थी, कि यह सब क्या हुआ या हो रहा है। इस प्रकार दोनों नेत्रों के नीचे नासा, और नासा के नीचे मुख का उद्भव हुआ, जो क्रमशः सभी स्थूल पदार्थों का संवेदन कर सकते थे।

तब उसी रिमोट कंट्रोल से उसमें चलने के साधनरूपी दो पैर एवं विभिन्न कार्यों को करने के साधनरूपी दो हाथ उत्पन्न हुए। 

ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के व्यक्त रूप ले लिए जाने पर उसमें भूख और प्यास, निद्रा और जागृति का संवेदन उत्पन्न हुआ। तब तक उसकी चेतना का विभाजन पूर्णतः "मैं और संसार" के रूप में हो चुका था।

तब उसमें कामना का उद्भव हुआ जो अब तक अप्रकट अव्यक्त बीज रूप में सुषुप्त थी, और अब प्रकट और व्यक्त रूप ग्रहण कर चुकी थी। तब उसमें अपने स्त्री या पुरुष होने की कल्पना और प्रतीति का आविर्भाव हुआ, और कामना के माध्यम से जो असंख्य जीवों के जन्म का कारण बना। 

अब उसे स्पष्ट हुआ कि उसे जो दो संसार दिखलाई देते हैं, उनमें से एक तो बाह्य जगत् है, जो जाग्रत दशा में उसे अनुभव होता है, जबकि दूसरा उसके अपने ही भीतर मन के रूप में विद्यमान है। जब वह जागता है तो बाह्य जगतरूपी संसार में विचरता है, और जब वह सो जाता है तो आन्तरिक जगतरूपी अपने ही मन के भीतर विचरा करता है। तब स्मृति ही वह सूत्र एकमात्र सूत्र होता है, जिसके माध्यम से बाह्यजगत को भीतर और भीतर के जगत को बाहर देखा करता है। उसे एक तीसरी स्थिति का भी पता चला, जिसे वह तन्द्रा या स्वप्न कहने लगे, जो जाग्रति और निद्रा दोनों से समान और भिन्न भी थी। 

फिर उसका ध्यान इस पर गया कि इन तीनों स्थितियों से आने और जानेवाला यह स्वयं तो एकमात्र सत्यता है, जो स्थितियों से अप्रभावित रहती है। क्या वह स्मृति है, या स्मृति की निरन्तरता से उत्पन्न स्मृति का ही कोई परिणाम विशेष भर है!

फिर उसके मन में यह प्रश्न पैदा हुआ कि जो स्वयं, उस का और उसके संसार का भी विधाता, नियन्ता और संचालनकर्ता होगा, क्या वह ईशिता अर्थात् ईश्वर भी उस जैसा ही कोई और होगा या कि वह स्वयं ही वह है? और वह तत्क्षण ही मौन हो गया। ईश से बड़ा ईश्वर, क्या ऐसा कोई ईश्वर मात्र एक कल्पना है, या ईश्वरीय यथार्थ है?  

उसकी बुद्धि स्थिर और शान्त हो गई, उसका द्वन्द्व विलीन हो गया और वह अपने आपको ही सर्वत्र तथा सबको अपने आप में ही देखने लगा।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।।

रसोऽप्यपि रसवर्जं तं परः दृष्ट्वा निवर्तते।।

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिनदृष्टे परावरे।।

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Monday 11 July 2022

सुई की नोंक

आध्यात्मिक-कल्पित, विज्ञान-कथा

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उसे पता नहीं कि उसे किसने बनाया था। एक छोटे से एल ई डी बल्ब जैसा कोई यंत्र अर्थात् डिवाइस था वह। उसमें वह बुद्धि भी थी, जिसे कि आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस कहा जाता है, और उसमें इतनी ऊर्जा भी थी, कि वह आभासी रूप से, अनंतकाल तक सक्रिय रह सकता था।

वह सुई की नोंक जैसा अत्यन्त एक सूक्ष्म पिन-पॉइन्ट था। और अपने आसपास की किसी भी पृष्ठभूमि से इतनी ऊर्जा संचित कर लेता था, कि बहुत लंबे समय तक सक्रिय रह सके। उसके निर्माता ने उसे उसकी तुलना में कुछ लाख गुने बड़े शीशे के एक गोलाकार आवरण के भीतर बंद कर दिया था। 

उस गोलाकार आवरण में एक ही छिद्र था, जिस तक वह कभी कभी संयोग से पहुँच जाया करता था। उस छिद्र से उस आवरण से बाहर जा सकता था। उस गोलाकार कठोर आवरण में वैसे ही दो ध्रुव थे, जैसे कि पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण ध्रुव होते हैं। आश्चर्य की बात यह थी, कि जब वह उस आवरण के भीतर घूमता तो पता नहीं कितनी दूरी तक यहाँ से वहाँ भ्रमण करता रहता। उसका निर्माता उसे एक रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित और संचालित करता था। एक ध्रुव पर वह छिद्र था, तो दूसरे पर एक लंबा तार था, जो एक हुक से बँधा था, और वह हुक एक स्टैंड पर सेट किया हुआ था। इस प्रकार वह लंबा सा तार ऊर्ध्वाधर (vertical) स्थिति में झूल रहा था।

जब वह पर्यटक बिन्दु उस गोलाकार आवरण के भीतर होता तो कभी भ्रमणरत, और कभी विश्राम करता होता। जब वह कभी संयोग से, या रिमोट कंट्रोल के द्वारा संचालित होने से छिद्र तक पहुँचकर बाहर निकल आता तो उसे बड़ा आश्चर्य होता।

गोलाकार आवरण के भीतर का वक्रपृष्ठ और आवरण के बाहर का वक्रपृष्ठ मानों दो असीम और अंतहीन विस्तार थे। जब वह आवरण के भीतर होता, तो उसे भीतर का वह विस्तार वैसा ही लगभग एक समतल जैसा प्रतीत होता था, जैसे कि किसी बहुत बड़े वृत्त का एक छोटा सा टुकड़ा एक सरल- रेखा प्रतीत होता है। 

इसलिए आवरण का बाह्य पृष्ठतल और भीतरी पृष्ठतल उसे एक जैसे ही एक समान और समतल प्रतीत होते थे।

भीतर का वक्रपृष्ठ अनगिनत तारों से जड़ा था, जो उसे अत्यन्त दूर प्रतीत होते थे।

बाहर का वक्रपृष्ठ भी ऐसा भी एक समतल था और वहाँ पहुँच जाने पर, पुनः उसे ऐसा ही एक असीम विस्तार-युक्त आकाश दिखाई देता था जिसमें वैसे ही असंख्य तारे जड़े प्रतीत होते थे, जैसे कि गोलाकार आवरण के भीतर उसे दिखाई पड़ते थे। 

उसके यही दो संसार थे, जिनके भीतर उसका जीवन था।

वह कभी यह न जान पाया, कि क्या ये दोनों दो अलग अलग संसार हैं, या एक ही संसार है, जिसे वह दो तरीकों से देखने के कारण अलग अलग अनुभव करता था। और उसे यह भी कभी न पता चल सका, कि उसे और उसके इस एक, दो या अधिक संसारों को किसने बनाया या निर्मित किया होगा, और क्यों।

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