Monday 30 January 2023

तदा मुक्तिर्यदा चित्तं

अष्टावक्र गीता

अध्याय ८

श्लोक २

पहले श्लोक में बन्ध / बन्धन का स्वरूप स्पष्ट करने के बाद इस श्लोक २ में मुक्ति के स्वरूप को इंगित किया जा रहा है :

तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वाञ्छति न शोचति।।

न मुञ्चति न गृह्णाति न हृष्यति न कुप्यति।।२।।

(तदा मुक्तिः यदा चित्तं न वाञ्छति न शोचति। न मुञ्चति न गृह्णाति न हृष्यति न कुप्यति।।)

अर्थ : मुक्ति तब होती है जब चित्त में न तो कोई कामना होती है, और न कोई चिन्ता, जब चित्त न तो परिग्रह करता है और न ही कुछ अस्वीकार करता है।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೮

ಶ್ಲೋಕ ೨

ತದಾ ಮುಕ್ತಿರ್ಯದಾಚಿತ್ತಂ ನ ವಾಞ್ಛತಿ ನ ಶೋಚತಿ||

ನ ಮುಞಚತಿ ನ ಗರ್ಹ್ಣಾತಿ ನ ಹೃಷ್ಯತಿ ನ ಕುಪ್ಯತಿ||೨||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 8

Stanza 2

(And) It is liberation when the mind neither desires nor grieves, neither rejects nor feels happy or angry.

***

  

तदा बन्धो यदा चित्तं

अष्टावक्र गीता

अध्याय ८

श्लोक

तदा बन्धो यदा चित्तं किञ्चिद्वाञ्छति शोचति।।

किञ्चिन्मुञ्चति गृह्णाति किञ्चिद्धृष्यति कुप्यति।।१।।

(तदा बन्धः यदा चित्तं किञ्चित् वाञ्छति शोचति। किञ्चित् मुञ्चति गृह्णाति किञ्चित् हृष्यति कुप्यति।।)

अर्थ : जब चित्त किसी विषय की इच्छा करता है, किसी विषय में शोक करता है, किसी विषय का त्याग करता है और किसी विषय में हर्षित होता है या कोप करता है, बन्धन तब होता है।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೮

ಶ್ಲೋಕ ೧

ತದಾ ಬನ್ಧೋ ಯದಾ ಚಿತ್ತಂ ಕಿಞಚಿದ್ವಾಞ್ಛತಿ ಶೋಚತಿ||

ಕಿಞ್ಚಿಮುಞ್ಚತಿ ಗೃಹ್ಣಾತಿ ಕಿಞ್ಚಿದ್ಧೃಷ್ಯತಿ ಕುಪ್ಯತಿ||೧||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 8

Stanza 1

It is bondage when the mind desires or grieves at anything, rejects or accepts anything, feels happy or annoyed at anything.

--



Saturday 28 January 2023

अहो चिन्मात्रमेवाहम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ७

श्लोक ५

अहो चिन्मात्रमेवाहमिन्द्रजालोपमं जगत्।।

अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना।।५।।

(अहो चित् मात्रं एव अहं इन्द्रजालोपमं जगत्। अतः मम कथं कुत्र हेय-उपादेय-कल्पना।।

अर्थ : अहो! वस्तुतः मैं चैतन्य आत्मा चिन्मात्र हूँ। और जगत्  चूँकि इन्द्रजाल की तरह माया ही है, अतः मेरे लिए जगत् को त्यागनेअथवा स्वीकार करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है!

||इति सप्तमोऽध्यायः||

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೭

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಅಹೋ ಚಿನ್ಮಾತ್ರಮೇವಾಹ-

ಮಿನ್ದ್ರಜಾಲೋಪಮಂ ಜಗತ್||

ಅತೋ ಮಮ ಕಥಂ ಕುತ್ರ

ಹೇಯೋಪಾದೇಯಕಲ್ಪನಾ||೫||

||ಇತಿ ಸಪ್ತಮಾಧ್ಯಾಯಃ||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 7

Stanza 5

Oh,  I am really Intelligence itself. The world is like a juggler's show. So how and where can there be any thought of rejection and acceptance in me! 

Thus concludes chapter 7 of this text :

Ashtavakra Gita. 

--



Thursday 26 January 2023

नात्मा भावेषु

अष्टावक्र गीता

अध्याय ७

श्लोक ४

नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरञ्जने।।

इत्यसक्तोऽस्पृहःशान्त एतदेवाहमास्थितः।।४।।

(न आत्मा भावेषु न उ भावः तत्र अनन्ते निरञ्जने। इति असक्तः अस्पृहः शान्तः एतत् एव अहं आस्थितं।।) 

अर्थ : आत्मा न तो किसी विषय, भाव आदि तक सीमित है, न उस पर आश्रित है, और न ही वहाँ उस अनन्त निरञ्जन आत्मा में कोई विषय भाव आदि है। इस तरह वह आत्मा ही, और वही आत्मा मैं, आसक्ति-रहित, निःस्पृह, शान्त होकर आत्मा में ही नित्य अवस्थित है।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९ :

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।४।।

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।५।।

समस्त भूतमात्र आत्मा पर ही आश्रित और आत्मा / परमात्मा में ही अवस्थित हैं, जबकि भूतमात्र के भीतर अपनी कोई स्वतंत्र आत्मा नहीं है।)

***

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೭

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಆತ್ಮಾ ಭಾವೇಷು ನೂ ಭಾವಸ್ತತ್ರಾನನ್ತೇ ನಿರಞ್ಜನೇ||

ಇತ್ಯಸಕ್ತೋऽಸ್ಪೃಹಃ ಶಾನ್ತ ಎತದೇವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||೪||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 7

Stanza 4

The Self Is not in the objects nor the object in That which is Infinite and Stainless. Thus It is free from attachment and desire and is tranquil. In this alone I do abide.

--

Wednesday 25 January 2023

विश्वं नाम विकल्पना

अष्टावक्र गीता

अध्याय ७

श्लोक ३

मय्यनन्तमहाम्बोधौ विश्वं नाम विकल्पना।।

अति शान्तो निराकार एतदेवाहमास्थितः।।३।।

(मयि अनन्त महा अम्बोधौ विश्वं नाम विकल्पना। अति शान्तः निराकारः एतत् एव अहं आस्थितः।।)

अर्थ : मुझ अनन्त बोधरूपी महासमुद्र में एक विपरीत कल्पना नामरूप मात्र है, जिसका नाम विश्व है । अति शान्त मैं निराकार स्वरूप में निज नित्य आत्मा की तरह अवस्थित हूँ।

***

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೭

ಶ್ಲೋಕ ೩

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮಮ್ಬೋಧೌ ವಿಶ್ವಂ ನಾಮ ವಿಕಲ್ಪನಾ||

ಅತಿ ಶಾನ್ತೋ ನಿರಾಕಾರ ಎತದೇವಾಹಮಾಸ್ಥಿತಃ||೩||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 7

Stanza 3

In Me, The Consciousness as The Boundless ocean, the universe is the imagination only. While I am highly tranquil and formless. In this Reality I do abide.

***


Tuesday 24 January 2023

जगद्वीचिः स्वभावतः

अष्टावक्र गीता

अध्याय ७

श्लोक २

मय्यनन्तमहाम्भोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः।।

उदेतु वाऽस्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षतिः।।२।।

(मयि अनन्त महा अम्भोधौ / अम्बोधौ जगत् वीचिः स्वभावतः। उदेतु वा अस्तं आयातु न मे वृद्धिः न च क्षतिः।।)

अर्थ : मुझ आत्मारूपी जलयुक्त महासागर में जगत् रूपी तरंग अपने आप ही उठती-गिरती रहती है। उसके उठने या गिरने से न तो मेरी वृद्धि होती है, और न ही क्षति होती है।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೭

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ

ಜಗದ್ವೀಚಿಃ ಸ್ವಭಾವತಃ||

ಉದೇತು ವಾऽಸ್ತಮಾಯಾತು

ನ ಮೇ ವೃದ್ಧಿರ್ನ ಚ ಕ್ಷತಿಃ||೨||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 7

Stanza 2

In Me,  the limitless ocean, let the wave of the world rise or vanish of itself. I neither increase nor decrease thereby.

***




Monday 23 January 2023

मय्यनन्तमहाम्भोधौ

अष्टावक्र गीता
अध्याय ७
श्लोक १
जनक उवाच :
मय्यनन्तमहाम्भोधौ* विश्वपोत इतस्ततः।।
भ्रमति स्वान्तवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता।।१।।
(मयि अनन्त महा अम्भुधौ / अम्बुधौ विश्वपोतः इतस्ततः।  भ्रमति स्वान्त-वातेन न मम अस्ति असहिष्णुता।।)
अर्थ :
मुझ आत्मारूपी महासमुद्र में विश्वरूपी अनेक पोत यहाँ वहाँ उनकी अपनी शक्ति से वायु की भाँति भ्रमण करते हैं। उनके इस कार्य के प्रति मुझमें कोई असहिष्णुता नहीं है।
*पाठान्तर -- महाम्बोधौ। 
--
ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಸಪ್ತಮಾಧ್ಯಾಯಃ
ಶ್ಲೋಕ ೧
ಜನಕ ಉವಾಚ --
ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ ವಿಶ್ವಪೋತ ಇತಸ್ತತಃ ||
ಭ್ರಮತಿ ಸ್ವಾನ್ತವಾತುನ ನ ಮಮಾಸ್ಯಸಹಿಷ್ಣುತಾ||೧||
--
Ashtavakra Gita
Chapter 7
Stanza 1
Janaka said :
In me, -the boundless ocean, the ark of the universe moves hither and thither, impelled by the wind of its own nature. But I am not impatient.

***

 

The I-Sense

अहं प्रत्यय 

--

"प्रत्यय" का सामान्य तात्पर्य है :

संवेदन और अभिव्यक्ति

(Perception and Expression).

अभिव्यक्ति किसी इन्द्रियगम्य, बुद्धिगम्य, भावगम्य, मनोगम्य या अनुभूतिगम्य विषयों (objects) के संवेदन से उत्पन्न होनेवाली प्रतिक्रिया होती है। समस्त अनुभवों के दो पक्ष क्रमशः अनुभूति का विषय (object) तथा अनुभूति जिसे होती है वह विषयी - (subject) । विषयी सतत अपरिवर्तित रहनेवाला स्थायी चेतन conscious / sentient पक्ष होता है, जबकि विषय उनकी अपेक्षा अस्थायी और परिवर्तनशील insentient या अचेतन पक्ष होता है। विषय (object) पुनः कोई स्थूल या सूक्ष्म वस्तु, व्यक्ति, विचार या अनुभव आदि हो सकता है, जबकि विषयी सदैव आवश्यक और अनिवार्य रूप से चेतन ही होता है। विषय को सदा ही अपने-आप की तरह, अपने से अभिन्न और विषयी को सदैव अपने-आप से भिन्न ही जाना जाता है। जानने-वाला 'विषयी', और जिसे जाना जाता है, वह जानने का 'विषय' होता है। 'जानना' संवेदन है, जिससे उत्पन्न उसकी स्मृति ही संवेदन के अनुभव का रूप लेकर पहचान के रूप में मस्तिष्क में संचित हो जाती है। यह गतिविधि चेतना (consciousnesses) के आश्रय से ही संभव होती है, जो कि स्वयं विषय और विषयी की अचल, अटल और अविकारी (immutable) पृष्ठभूमि होता है। चेतना यद्यपि इन्द्रियगम्य, बुद्धिगम्य, अनुभवगम्य नहीं होती, किन्तु स्वयं ही स्वयं का प्रमाण होती है जबकि विभिन्न विषयों का प्रमाण चेतना के अन्तर्गत होनेवाले उनके अनुभव होते हैं। पातञ्जल योगसूत्र में 'प्रमाण' / evidence को तीन प्रकारों का कहा गया है : प्रत्यक्ष अनुमान और आगम। किन्तु उससे भी पहले 'प्रमाण' को भी वृत्ति (मन की गतिविधि) ही कहा गया है:

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।। 

प्रत्यक्षानुमानागमाः।।६।।

(समाधिपाद)

विषयों (objects) का प्रमाण प्रत्यक्ष अनुभूति से, अनुमान या निष्कर्ष के रूप में हो सकता है। भूख, निद्रा, थकान, स्वयं ही स्वयं का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जबकि भय, कल्पना पर आधारित अनुमान है। किसी के प्रति उत्पन्न होनेवाला आकर्षण, आसक्ति, विकर्षण, क्रोध, भय आदि निष्कर्ष-जनित प्रतिक्रिया होता है। 

आगम का दूसरा अर्थ, ऋषियों और आत्मविदों के द्वारा प्राप्त किया गया निष्कर्ष जो कि शास्त्र-सम्मत शाब्दिक विचार होता है। यह निष्कर्ष पुनः जगत्, संसार के विषय में हो सकता है, या सत्य, आत्मा या परमात्मा के संबंध में भी हो सकता है। 

हम अपने आपके बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह उस व्यक्ति से संबंधित वह जानकारी मात्र होता है, जो कि हमारी स्मृति में एकत्र हुई होती है, और  जिसे हम अपने आपके होने की तरह सत्य मान लेते हैं। इस प्रकार से हम अपने बारे में अपने आपका जो मानसिक चित्र बना लेते हैं वह हमारी वास्तविकता न होकर कोरी कल्पना ही होता है। फिर भी इसमें सन्देह नहीं हो सकता है कि हमें अपने होने का ज्ञान, भान या बोध अपने ही भीतर से अनायास ही प्राप्त हुआ होता है और वह कोई बनने और मिटने वाली वस्तु नहीं है। यह ज्ञान, भान या बोध ही शुद्ध अहं-प्रत्यय है, जबकि अपने बारे में प्रत्यक्ष, अनुमानित या सुनिश्चित धारणा केवल एक मानसिक चित्र ही होता है।

विवेक-चूडामणि में इसका ही वर्णन एक संकेत की तरह किया गया है :

अस्ति कश्चित्स्वयं नित्यं अहं-प्रत्ययलम्बनः।।

अवस्थात्रयसाक्षी सन् पञ्चकोषविलक्षणः।।१२५।।

अहं-प्रत्यय तो यद्यपि सतत परिवर्तित होते रहनेवाली वस्तु है, किन्तु जिस आधार से इसे सातत्य प्राप्त होता है वह आधार 'अहं', - अपनी निजता, नित्यता अर्थात् अविकारी आत्मा है।

उसे न तो किसी विषय की तरह प्रत्यक्ष, अनुमान, तर्क, निश्चय अर्थात् बुद्धि आदि से जाना जा सकता है, न इंगित ही किया जा सकता है। और यह स्वयं ही हमारे भीतर निरंतर, नित्य स्फुरित अहं-स्फूर्ति है। इस पर ध्यान जाते ही अपने स्वरूप को यह स्वयं ही उद्घाटित कर देता है :

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।। 

यमेवैष वृणुते तस्य स आत्मा विवृणुते तनूँस्वाम्।।२३।।

(कठोपनिषद् १-२, मुण्डकोपनिषद् ३-२-३)

उपरोक्त मंत्र में "एषः" पद का प्रयोग दो अर्थों में दृष्टव्य है। और दोनों ही अर्थ स्वतंत्र रूप से भी, और एक दूसरे की पुष्टि के अर्थ में भी ग्राह्य हैं।

संक्षेप में अहं-प्रत्यय का तात्पर्य हुआ :

जैसा हम अपने आपको मानते-समझते हैं, अपने बारे में हमारी वह समझ और मान्यता।

अष्टावक्र गीता (और श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भ में भी) इस पोस्ट का महत्व इसलिए है, इसमें 'अहंं' पद के प्रयोग से कहीं इस पद के वाच्यार्थ को, कहीं इसके लक्ष्यार्थ को, तो कहीं इसके परमार्थ को इंगित किया गया है, यह स्मरण रहे।

***


Sunday 22 January 2023

अहं वा सर्वभूतेषु

अष्टावक्र गीता

अध्याय ६

श्लोक ४

अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि।।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।४।।

(अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतानि अथो / अथ-उ मयि। इति ज्ञानं तथा एतस्य न त्यागः न ग्रहः लयः।।)

अर्थ : आत्मा सभी भूतों में अवस्थित और सभी भूत भी मुझ आत्मा में ही अवस्थित हैं। यह भान अपना / आत्मा का ज्ञान है, जो सदा से प्राप्त ही है और जिसे प्राप्त नहीं किया जाना होता, जिसे न तो त्यागा जा सकता है और जो कभी विलुप्त भी नहीं हो सकता।

।।इति षष्ठाध्यायः।।

§ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १८ --

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।२०।।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೬

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಅಹಂ ವಾ ಸರ್ವಭೂತೇಷು

ಸರ್ವಭೂತಾನ್ಯಥೋ ಮಯಿ||

ಇತಿ ಜ್ಟಾನಂ ತಥೈತಸ್ಯ

ನ ತ್ಯಾಗೋ ನ ಗ್ರಹೋ ಲಯಃ||೪||

||ಇತಿ ಷಷ್ಠಾಧ್ಯಾಯಃ||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 6

Stanza 4

I am (The Self is) indeed in all beings and all beings are in Me (The Self). This awareness is Knowledge. So it has neither to be given up, nor to be regained, nor is forgotten / lost.

Thus concludes the chapter 6 of this text :

Ashtavakra Gita. 

***

अहं सशुक्तिसङ्काशो

अष्टावक्र गीता

अध्याय ६

श्लोक ३

अहं सशुक्तिसङ्काशो रूप्यवद्विश्वकल्पना।।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।

(अहं स-शुक्ति-सङ्काशः रूप्यवत् विश्वकल्पना। इति ज्ञानं तथा एतस्य न त्यागः न ग्रहः लयः।।)

अर्थ : मैं शुक्ति (सीप) सदृश, और विश्वकल्पना शुक्ति में दिखाई दे रही रजत सदृश है। इस प्रकार अपने होने-मात्र का यह बोध, यह सहज, स्वाभाविक और अनायास हो रहा यह भान, जिसे न तो ग्रहण किया जा सकता है, न त्यागा जा सकता है, और न ही जिसका कभी लय हो सकता है, ज्ञान है।

(तर्क, अनुमान, अनुभव और उदाहरण से भी अपने होने के इस भान को असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। यही अहं-स्फूर्ति है जो अपनी नित्य निज आत्मा का प्रत्यक्ष उद्घोष है।)

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೬

ಶ್ಲೋಕ ೩

ಅಹಂ ಸಶುಕ್ತಿ ಸಙ್ಕಾಶೋ ರೂಪ್ಯವದ್ವಿಶ್ಷಕಲ್ಪನಾ||

ಇತಿ ಜ್ಞಾನಂ ತಥೈತಸ್ಯ ನ ತ್ಯಾಗೋ ನ ಗ್ರಹೋ ಲಯಃ||೩||

--

(The Knowledge) That I am like the pearl-oyester; and the world-ideation is like silver. This is Knowledge. So it has neither to be renounced nor accepted nor destroyed.

[This is this inherent, spontaneous, natural and obvious knowledge of one's own being in everyone, that is neither newly gained, nor is old, could never be lost or forgotten.

Awakening to this fact is the only insight and the wisdom ultimate.]

***

Friday 20 January 2023

महोदधिरिवाहं

अष्टावक्र गीता

अध्याय ६

श्लोक २

महोदधिरिवाहं सप्रपञ्चो वीचिसन्निभः।।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।२।।

(महा उदधिः इव अहं सप्रपञ्चः वीचिसन्निभः।।

इति ज्ञानं तथा एतस्य न त्यागः न ग्रहः लयः।।)

अर्थ  : प्रपञ्चसहित मैं (आत्मा) महासागर की तरह, और प्रपञ्च मुझ महासागर में उठती तरंगें हैं। मुझे इतना ही पता है, यह ज्ञान: -जिसका न तो त्याग किया जा सकता है, न जिसका परिग्रह ही संभव है, और न जो कभी विलुप्त ही होता है।

***

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೬

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಮಹೋದಧಿರಿವಾಹಂ ಹಪೃಪಞಚೋ ಪೀಚಿಸನ್ನಿಭಃ||

ಇತಿ ಜ್ಞಾನಂ ತಥೈತಸ್ಯ ನ ತ್ಯಾಗೋ ನ ಗ್ರಹೋ ಲಯಃ||೨||

--

Ashtavakra Gita

Chapter Stanza 2 : This 

(The knowledge) That I am like the ocean, and the phenomenal universe is like the wave. This is Knowledge. So it has neither to be renounced nor accepted nor destroyed.

***


Wednesday 18 January 2023

आकाशवदनन्तोऽहं

अष्टावक्र गीता षष्ठाध्यायः

अध्याय ६

श्लोक १

अष्टावक्र उवाच :

आकाशवदनन्तोऽहं घटवत्प्राकृतं जगत्।।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।१।।

(आकाशवत् अनन्तः अहं घटवत् प्राकृतं जगत्। इति ज्ञानं तथा एतस्य न त्यागः न ग्रहः लयं।।)

अर्थ : मैं / आत्मा आकाश की भाँति अनन्त, जबकि (समस्त दृश्य) जगत् घट की भाँति प्रकृति का कार्य है। जगत् का न तो त्याग किया जा सकता है, न ही उसका अधिग्रहण किया जाना संभव है, और न ही उसका नाश होता है। (किन्तु उसका लय -दृश्य-विलय अवश्य ही होता है), इस प्रकार से जान लेना,  ज्ञान है।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಷಷ್ಠಾಧ್ಯಾಯಃ

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ :

ಆಕಾಶವದನನ್ತೋऽಹಂ

ಘಟವತ್ ಪ್ರಾಕೃತಂ ಜಗತ್||

ಇತಿ ಜ್ಞಾನಂ ತಥೈತಸ್ಯ

ನ ತ್ಯಾಗೋ ಲ ಗ್ರಹೋ ಲಯಂ||೧||

--

Ashtavakra Gita 

Chapter 6

Stanza 1

Boundless as Space am I. The phenomenal world is like a jar. This is Knowledge. So it has neither to be renounced nor accepted nor destroyed. 

***



Monday 16 January 2023

समदुःखसुखः पूर्ण

अष्टावक्र गीता

अध्याय ५

श्लोक ४

समदुःखसुखः पूर्ण आशानैराश्ययोः समः।।

समजीवितमृत्युः सन्नेवमेव लयं व्रज।।४।।

(समदुःखसुखः पूर्णः आशानैराश्ययोः समः।  समजीवितमृत्युः सन् एवं एव लयं व्रज।।)

अर्थ : सुख और दुःख को समान समझते हुए, आशा-निराशा में समान रूप से अनुद्विग्न और अविचलित रहते हुए, जीवित या मृत्यु होने की स्थिति को भी समान भाव से स्वीकार करते हुए, इस प्रकार परमात्मा में निमग्न हो रहो।

।।इति पञ्चमाध्यायः।।

--

ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೫

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಸಮದುಃಖಸುಖಃ ಪೂರ್ಣ

ಆಶಾನೈರಾಶ್ಯಯೋಃ ಸಮಃ||

ಸಮಜೀವಿತಮೃತ್ಯುಃ ಸನ್-

ನೇವಮೇ ಲಯಂ ಷ್ರಜ||೪||

||ಇತಿ ಪಞಚಮೋऽಧ್ಯಾಯಃ||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 5

Stanza 4

You are perfect and equinamious in misery and happiness, hope and despair, and life and death. Therefore even thus do you attain (the state of) Dissolution.

Thus concludes the Chapter 5 of this text :

The Ashtavakra Gita.

***

प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वाद्

अष्टावक्र गीता

अध्याय  ५

श्लोक ३

प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वाद्विश्वं नास्त्वमले त्वयि।।

रज्जु सर्प-इव व्यक्तमेवमेवलयं व्रज।।३।।

(प्रत्यक्षं अपि अवस्तुत्वात् विश्वं नास्ति अमले त्वयि । रज्जुः सर्प इव व्यक्तं एवमेव लयं व्रज।।) 

अर्थ : रज्जु में सर्प के होने का आभास होने से रज्जु वस्तुतः सर्प नहीं हो जाती, और रज्जु को "यह सर्प नहीं, रज्जु है" इस तरह से जानते ही सर्प (का आभास) विलीन हो जाता है।  निर्मल आत्मा में जगत् का आभास भी ऐसी ही मिथ्या प्रतीति है यह भान होते ही आभासी जगत् विलीन हो जाता है। इसी तरह अपने निर्मल स्वरूप को जानकर उसमें निमग्न हो जाओ।

--

ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೫

ಶ್ವೇತ ೩

ಪೃತ್ಯಕ್ಷಮಪಿ ವಸ್ತುತ್ವಾದ್ವಿಶ್ವಂ ನಾಸ್ತ್ಯಮಲೇ ತ್ವಯಿ||

ರಜ್ಜುಸರ್ಪ ಇವ ವ್ಯಕ್ತಮೆವಮೇವ ಲಯಂ ವ್ರಜ||೩||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 5

Stanza 3

The universe being manifested like the snake in the rope, does not exist in you who are pure, even though it is present to the senses; because it is unreal. (Knowing this,) Thus verily do you enter into (the state of) dissolution.

***

 


 

Thursday 12 January 2023

उदेति भवतो विश्वम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ५

श्लोक २

उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्बुदः।।

इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेवलयं व्रज।।२।।

(उदेति भवतः विश्वं वारिधेः इव बुद्बुदः। इति ज्ञात्वा एकं आत्मानं एवं एव लयं व्रज।।)

अर्थ : जैसे समुद्र में बुद्बुद् उठा करते हैं, उसी प्रकार से (तुम्हारा) विश्व तुममें और तुमसे - आत्मा से ही अस्तित्व में आता है। यह जानकर इस सब दृश्य का लय आत्मा ही में कर दो।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೫

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಉದೇತಿ ಭವತೋ ವಿಶ್ವಂ

ವಾರಿಧೇರಿವ ಬುದ್ಬುದಃ||

ಇತಿ ಜ್ಞಾತ್ವೈಕಮಾತ್ಮಾನ-

ಮೇವಮೇವ ಲಯಂ ವ್ರಜೇತ್||೨||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 5

Stanza 2

The universe rises from you like bubbles rising from the sea. Thus know the Atman to be one and enter even thus into (the state of) Dissolution.

***




न ते सङ्गोऽस्ति केनापि

अष्टावक्र गीता

अध्याय ५

श्लोक १

अथ पञ्चमध्यायः

अष्टावक्र उवाच :

न ते सङ्गोऽस्ति केनापि किं शुद्धंस्त्यक्तुमिच्छसि।।

सङ्घातविलयं कुर्वन्नेवमेव लयं व्रज।।१।।

(न ते सङ्गः अस्ति केन-अपि किं शुद्धं त्यक्तुं इच्छसि। सङ्घातविलयं कुर्वन् एवं एव लयं व्रजेत्।।)

अर्थ : तुम नितान्त शुद्ध और सङ्गरहित हो, इसलिए तुम्हारा तो किसी से सङ्ग ही नहीं है! जब तुम इतने शुद्ध हो, तो फिर अब किसका त्याग कर देने की इच्छा करते हो! सङ्घात* (विकार) का विलय कर देना ही पर्याप्त है, और इस तरह से सम्पूर्ण दृश्य का विलय कर दो!

(*सन्दर्भ : श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १३ :

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः।।

एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।६।।)

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೫

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಪಞ್ಚಮಾಧ್ಯಾಯಃ

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ :

ನ ತೇ ಸಙ್ಗೋऽಸ್ತಿ ಕೇನಾಪಿ ಕಿಂ ಶುದ್ಧಂಸ್ತ್ಯಕ್ತುಮಿಚ್ಛಸಿ||

ಸಙ್ಘಾತವಿಲಯಂ ಕುರ್ವನ್ನೆವಮೇವ ಲಯಂ ವ್ರಜೆ||೧||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 5

Stanza 1

You have no contact with anything whatso-ever. Therefore pure as you are, what do you want to renounce! Destroy the complex and even thus enter into the state of Dissolution.

(What is the complex / सङ्घात?  The identity of oneself as the body-mind complex. Shrimadbhagvad-gita Chapter 13 stanza 6 refers to this as kshetra (क्षेत्र), while you are jshetrajna / क्षेत्रज्ञ :

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृति।।

एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।।)

***





Wednesday 11 January 2023

आत्मानमद्वयं कश्चित्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ४

श्लोक ६

आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम्।।

यद्वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्।।६।।

(आत्मानं अद्वयं कश्चित् जानाति जगदीश्वरम्। यत् वेत्ति तत् सः कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्।।) 

अर्थ : अपनी द्वैतरहित निज और नित्य आत्मा को ही जगत् का एकमात्र ईश्वर जाननेवाला कोई ही जगत् के स्वामी को जानता है । जो इस प्रकार तत्त्वतः जानता है, वह इसी विवेक* से प्रेरित होकर समस्त आचरण करता है, उसे भी कहीं भी, किसी से भी  कभी कोई भय नहीं होता।

।। इति चतुर्थोऽध्यायः।।

--

*अद्वैत-निष्ठा :

ईश्वरो गुरु आत्मेति मूर्तिभेदाविभागिने। 

व्योमवद्व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः।। 

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೪

ಶ್ಲೋಕ ೬

ಆತ್ಮಾನಮದ್ವಯಂ ಕಶ್ಚಿ-

ಜ್ಜಾನಾತಿ ಜಗದೀಶ್ವರಂ||

ಯದ್ವೇತ್ತಿ ತತ್ ಸ ಕುರುತೇ

ನ ಭಯಂ ತಸ್ಯ ಕುತ್ರಚಿತ್||೬||

||ಇತಿ ಚತುರ್ಥೊऽಧ್ಯಾಯಃ||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 4

Stanza 6

Rare is the man who knows himself as one without a second as well as the Lord of the universe. He does what he knows and has no fear from any quarter.

Thus concludes chapter 4 of :

The Ashtavakra Gita.

***



Tuesday 10 January 2023

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते

अष्टावक्र गीता

अध्याय ४

श्लोक ५

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।।

विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने।।५।।

(आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे। विज्ञस्य एव हि सामर्थ्यं इच्छा-अनिच्छा-विवर्जने।।)

अर्थ : ब्रह्मा से लेकर तृण तक (उद्भिज्, अण्डज, स्वेदज और जरायुज) जो भी चार प्रकार की जीव-सृष्टियाँ हैं, उनमें से केवल किसी उस आत्मविद् में ही यह सामर्थ्य होता है कि वह इच्छा तथा अनिच्छा से प्रभावित न हो और उन्हें ही अपने वश में रखे।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೪

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಆಬ್ರಹ್ಮಸ್ತಮ್ಬಪರ್ಯನ್ತೇ ಭೂತಗ್ರಾಮೆಚತುರ್ವಿಧೇ||

ವಿಜ್ಞಸ್ಯೈವ ಹಿ ಸಾಮರ್ಥ್ಯಮಿಚ್ಛಾನಿಚ್ಛಾವಿವರ್ಜನೇ||೫||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 4

Stanza 5

From Brahma down to the clump of grass, of the four* kinds of the created life-forms, it is the wise alone who is free from and capable of renouncing desire and aversion.

*the four life-forms or the conscious beings are : Born of water, Born of egg, Born of the  placenta with the membrane enveloping the foetus, and Born of sweat.

***



Monday 9 January 2023

आत्मैवेदं जगत्सर्वम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ४

श्लोक ४

आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।।

यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः।।४।।

(आत्मा एव इदं जगत् सर्वं ज्ञातं येन महात्मना। यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः।।)

अर्थ : जिसने यह जान लिया है कि आत्मा ही यह सारा जगत् है, उसे सहज-स्फूर्त स्वाभाविक नियति से होनेवाले उसके कार्यों और क्रिया-कलापों को करने से रोकने का सामर्थ्य किसमें है!

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೪

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಆತ್ಮೈವೇದಂ ಜಗತ್ಸರ್ವಂ

ಜ್ಞಾತಂ ಯೇನ ಮಹಾತ್ಮನಾ||

ಯದೃಚ್ಛಯಾ ವರ್ತಮಾನಂ ತಂ

ನಿಷೇದ್ಧೀಂ ಕ್ಷಮೇತ ಕಃ||೪||

--

Ashtavakra Gita 

Chapter 4

Stanza 4

Who can prohibit the great-souled one who has known this entire universe to be the Self alone, from living as he pleases!

***

Sunday 8 January 2023

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्याम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ४

श्लोक ३

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शोह्यन्तर्न जायते।।

नह्याकशस्य धूमेन दृश्यमानापि संगतिः।।३।।

(तत् ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शः हि अन्तर् न जायते। न हि आकाशस्य धूमेन दृश्यमान अपि संगतिः।।)

अर्थ : जैसे आकाश में फैले धुएँ को देखकर आकाश धुँधला है, ऐसा आभास होता है, किन्तु धुआँ आकाश को स्पर्श तक नहीं करता, उसी तरह उस तत्-पद ब्रह्म को जो जानता है, पुण्य और पाप उसे स्पर्श तक नहीं करते।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೪

ಶ್ಲೋಕ ೩

ತತ್-ಜ್ಞಸ್ಯ ಪುಣ್ಯಪಾಪಾಭ್ಯಾಂ

ಸ್ಪರ್ಶೋ ಹ್ಯನ್ತರ್ನ ಚಾಯತೇ||

ನಹ್ಯಾಕಾಶಸ್ಯ ಧೂಮೇನ -

ದೃಶ್ಯಮಾನಾಪಿ ಸಂಗತಿಃ ||೩||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 4

Stanza 3

The heart of one, who has known That (तत्)  is not touched by virtue and vice, as the sky is not touched by smoke, even though it appeares to be. 

***


***


Saturday 7 January 2023

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः

अष्टावक्र गीता

अध्याय ४

श्लोक २

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवता।।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति।।२।।

(यत् पदं प्रेप्सवः दीनाः शक्र आद्याः सर्वदेवता। अहो तत्र स्थितः योगी न हर्षं उपगच्छति।।)

अर्थ : उस (परम) पद को प्राप्त करने के लिए, जिसे प्राप्त करने के लिए इन्द्र इत्यादि सारे देवता भी लालायित होते हैं, और उसे प्राप्त न कर पाने से दुःखी अनुभव करते हैं, वहाँ पर अनायास ही स्थित हुआ योगी सुख या दुःख आदि से उदासीन रहते हुए, किसी हर्ष आदि से भी रहित होता है।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೪

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಯತ್ಪದಂಪ್ರೇಪ್ಸವೋ ದಿನಾಃ

ಶಕ್ರಾದ್ಯಾಃ ಸರ್ವದೇವತಾಃ||

ಅಹೋ ತತ್ರ ಸ್ಥಿತೋ ಯೋಗೀ

ನ ಹರ್ಷಮುಪಗಚ್ಛತಿ ||೨||

--

Oh, the Yogi does not feel elated abiding in that position which Indra and all other gods hanker after and become unhappy.

***

Friday 6 January 2023

हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य

अष्टावक्र गीता

अध्याय ४

श्लोक १

अष्टावक्र उवाच --

हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया।।

न हि संसारवाहीकैर्मूढैः सह समानता।।१।।

(हन्त आत्मज्ञस्य धीरस्य खेलतः भोगलीलया। न हि संसारवाहीकैः मूढैः सह समानता।।)

अर्थ : अष्टावक्र ने कहा :

अब, उस आत्मज्ञ धीर के आचरण के बारे में, जो कि अनायास भोगों, लीलाओं आदि में रमता प्रतीत होता है। किसी दूसरे और सांसारिक मूढ से उसकी कोई समानता कदापि नहीं हो सकती।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೪

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ :

ಹನ್ತಾತ್ಮಜ್ಞಸ್ಯ ಧೀರಸ್ಯ ಖೇಲತೋ ಭೋಗಲೀಲಯಾ||

ನ ಹಿ ಸಂಸಾರವಾಹೀಕೈರ್ಮೂಢೈಃ ಸಹಸಮಾನತಾ||೧||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 4

Stanza 1

Ashtavakra said :

Oh! The intelligent minded one, -the knower of Self plays the game of enjoyment, has no similarity to the deluded beasts of the world.

***


Thursday 5 January 2023

अन्तस्त्यक्तकषायस्य

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक १४

अन्तस्त्यक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।।

यदृच्छया गतो भोगो न दुःखाय न तुष्टये।।१४।।

।।इति तृतीयोऽध्यायः।।

--

(अन्तस् त्यक्त कषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः। यदृच्छया गतः भोगः न दुःखाय न तुष्टये।। निराशिन् - निराशिष् - निराशिषः - त्यक्ता-आशा यस्य)

अर्थ : जिसने अन्तःकरण के कषायों को त्याग दिया है, समस्त द्वन्द्वों से जो ऊपर उठ चुका है, नियति / अज्ञात प्रारब्ध से प्राप्त होनेवाले भोगों से वह न तो दुःखी होता है, और न ही प्रसन्न या असन्तुष्ट होता है।

अष्टावक्र गीता का तृतीय अध्याय पूर्ण ।। 

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೧೪

ಅನ್ತಸ್ತ್ಯಕಷಾಯಸ್ಯ

ನಿರ್ದ್ವನ್ದಸ್ಯ ನಿರಾಶಿಷಃ||

ಯದೃಚ್ಛಯಾ ಗತೋ ಭೋಗೋ

ನ ದುಃಖಾಯ ನ ತುಷ್ಟಯೇ||೧೪||

||ಇತಿ ತೃತೀಯೋಧ್ಯಾಯಃ||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 14

He, who has given up worldly attachment in his mind, who is beyond the pairs of opposites, and who is free from desire, any experience coming as a matter of course owing to fate, does not cause either pleasure or pain to him. 

Thus concludes the chapter 3 of the Ashtavakra Gita.

***


Wednesday 4 January 2023

स्वभावादेव जानानो

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक १३

स्वभावादेव जानानो दृश्यमेतन्न किञ्चन।।

इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधीः।।१३।।

(स्वभावात् एव जानानः दृश्यं एतत् न किञ्चन। इदं ग्राह्यं इदं त्याज्यं सः किं पश्यति धीरधीः।।)

अर्थ : जो यह जानते हैं कि यह समस्त दृश्यमात्र (प्रपञ्च) ही मिथ्या आभास है, वस्तुतः अस्तित्वशून्य है, ऐसे स्थिरबुद्धि और विवेकी मनुष्य में "यह ग्राह्य है और यह त्याज्य है।" इस प्रकार की दृष्टि होती ही नहीं, अतः उसके लिए यह प्रश्न भी नहीं होता।

(सन्दर्भ : श्रीमद्भगवद्गीता 5/14, 10/8)

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೧೩

ಸ್ವಭಾವಾದೇವ ಜಾನಾನೋ

ದೃಶ್ಯಮೇತನ್ನ ಕಿಞ್ಚನ||

ಇದಂ ಗ್ರಾಹ್ಯಮಿದಂ ತ್ಯಾಜ್ಯಂ

ಸ ಕಿಂ ಪಶ್ಯತಿ ಧೀರಧೀಃ||೧೩||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 13

Why should that steady-minded one, - who knows the Object to be in its very nature nothing, consider this fit to be accepted and that to be rejected. 

***


Tuesday 3 January 2023

निस्पृहं मानसं यस्य

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक १२

निस्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मनः।।

तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते।।१२।।

(निस्पृहं मानसं यस्य नैराश्ये अपि महात्मनः। तस्य-आत्मज्ञान-तृप्तस्य तुलना केन जायते।।)

अर्थ  : वह आत्मज्ञानी महात्मा जिसका मन निराशा की स्थिति को भी कामनारहित रहते हुए सहजता से स्वीकार कर लेता है, ऐसे किसी आत्मज्ञान से तृप्त मनुष्य की तुलना क्या किसी और के साथ की जा सकती है!

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೧೨

ನಿಸ್ಪೃಹಂ ಮಾನಸಂ ಯಸ್ಯ ನೈರಾಶ್ಯೇऽಪಿ ಮಹಾತ್ಮನಃ||

ತಸ್ಯಾತ್ಮಜ್ಞಾನತ್ಮಪ್ತಸ್ಯ ತುಲನಾ ಕೇನಜಾಯತೇ||೧೨||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 12

With whom can we compare, that, -- such a great-souled one, contented with the knowledge of Self, -- who is desireless even in disappointment.

***


Monday 2 January 2023

मायामात्रमिदंविश्वं

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ११

मायामात्रमिदंविश्वं पश्यन् विगतकौतुकः।

अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः।।११।।

(माया-मात्रं इदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुकः। अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः।।)

अर्थ : इस समस्त दृश्यजगत् को केवल माया ही समझकर उसी दृष्टि से देखते हुए, धीर पुरुष कदापि विस्मित नहीं होता, यहाँ तक कि मृत्यु सन्निकट होने पर भी वह उससे त्रस्त नहीं होता।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೧೧

ಮಾಯಾಮಾತ್ರಮಿದಂ ವಿಶ್ವಂ ಪಶ್ಯನ್ ವಿಗತಕೈತುಕಃ||

ಅತಿ ಸನ್ನಿಹಿತೀ ಮೃತ್ಯೌ ಕಥಂ ತ್ರಸ್ಯತಿ ಧೀರಧೀಃ||೧೧||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 11

Viewing this universe as mere illusion and losing all interest therein, how can one of steady mind fear even the approach of death!

***


 

Sunday 1 January 2023

चेष्टमानं शरीरं स्वं

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक १०

चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।।

संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः।।१०।।

(चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यति अन्य शरीरवत्। संस्तवे च अपि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः।।)

अर्थ : (अपनी दिव्य आत्मा के तत्व और तात्पर्य अर्थात्) महान आशय को जाननेवाला मनुष्य विभिन्न चेष्टाएँ करनेवाले अपने इस शरीर को भी दूसरे सभी अन्य शरीरों की तरह ही देखता है। (इसलिए) किसी के द्वारा अपनी स्तुति या निन्दा किए जाने पर उसे क्षोभ कैसे हो सकता है!

--

ಚೇಷ್ಟಮಾನಂ ಶರೀರಂ ಸ್ವಂ

ಪಶ್ಯತ್ಯನ್ಯ-ಶರೀರವತ್ ||

ಸಂಸ್ತವೇ ಚಾಪಿ ನಿನ್ದಾಯಾಂ

ಕಥಂ ಕ್ಷುಭ್ಯೇತ್ ಮಹಾಶಯಃ ||೧೦||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 10

The high-souled person witnesses his own body acting as if it were another's. As such, how can he be disturbed by praise or blame!

***