Saturday 31 December 2022

धीरस्तु भोज्यमानोऽपि

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ९

धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा।।

आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति।।९।।

(धीरः तु भोज्यमानः अपि पीड्यमानः अपि सर्वदा। आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति।।)

अर्थ : परन्तु धीर पुरुष न तो अनुकूल सेवा और उपहार इत्यादि के प्राप्त होने पर हर्षित होता है और न ही प्रतिकूल पीडा आदि के प्राप्त होने पर उद्विग्न या कुपित होता है।

§ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५ :

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।।

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।।२०।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೯

ಧೀರಸ್ತು ಭೋಜ್ಯಮಾನೋऽಪಿ

ಪೀಡ್ಯಮಾನೋऽಪಿ ಸರ್ವದಾ||

ಆತ್ಮಾನಂ ಕೇವಲಂ ಪಶ್ಯನ್

ನ ತುಷ್ಯತಿ ನ ಕುಪ್ಯತಿ||೯||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 9

But feted and feasted or tormented, the serene ever see the absolute Self and is thus neither gratified nor angry.

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Friday 30 December 2022

इहामुत्रविरक्तस्य

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ८

इहामुत्रविरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः।।

आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।।८।।

(इह-अमुत्र विरक्तस्य नित्य-अनित्य-विवेकिनः। आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षात् एव विभीषिका।।)

अर्थ : यह भी आश्चर्य ही है कि जिसे इस लोक के और इसके बाद के भी समस्त लोकों के सारे पदार्थों से अत्यन्त वैराग्य हो चुका है, और नित्य तथा अनित्य के विवेक की प्राप्ति हो चुकी है, वह मोक्ष-प्राप्ति की कामना और चिन्ता रूपी विभीषिका से ग्रस्त या त्रस्त हो!

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ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೮

ಇಹಾಮುತ್ರವಿರಕ್ತಸ್ಯ

ನಿತ್ಯಾನಿತ್ಯವಿವೇಕಿನಃ||

ಆಶ್ಚರ್ಯಂ ಮೇಕ್ಷಕಾಮಸ್ಯ

ಮೇಕ್ಷಾದೇವ ವಿಭೀಷೀಕಾ ||೮||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 8

It is strange that one who is unattached to the objects of this world and the next, who discriminates the eternal from the non- eternal, and who longs for emancipation, should fear emancipation itself. 

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Thursday 29 December 2022

उद्भूतंज्ञानदुर्मित्रम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ७

उद्भूतंज्ञानदुर्मित्रमवधार्याति दुर्बलः।।

आश्चर्यं काममाकांक्षेत् कालमन्तमनुश्रितः।।७।।

(उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रं अवधार्याति दुर्बलः। आश्चर्यं कामं आकाँक्षेत् कालं अन्तं अनुश्रितः।।)

अर्थ : आश्चर्य की बात है कि कामना (आत्म-)ज्ञान की शत्रु है, और अन्तकाल भी समीप है, इसे ठीक से जानने पर भी, फिर भी कोई अत्यन्त वृद्ध, दुर्बल मनुष्य, विषयों के उपभोग करने की आकांक्षा से लालायित रहे । 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೭

ಉದ್ಭೂತಂ ಜ್ಞಾನದುರ್ಮಿತ್ರ-

ಮವಧಾರ್ಯಾತಿ ದುರ್ಬಲಃ||

ಆಶ್ಚರ್ಯಂ ಕಾಮಮಾಕಾಂಕ್ಷೇತ್ 

ಕಾಲಮನ್ತಮನಾಶ್ರಿತಃ||೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 7

It is strange that knowing lust to be enemy of knowledge, one who has grown extremely weak and reached one's last days, should yet be eager for sensual enjoyments. 

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Wednesday 28 December 2022

The Love is The Alchemy.

प्रेम और भक्ति!

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अपने प्रेम को इतना अधिक परिशुद्ध कर लो कि वह भक्ति में रूपान्तरित हो जाए, या फिर स्वयं को ही प्रेम के हाथों में सौंप दो, ताकि वही तुम्हें पूर्ण परिशुद्ध कर भक्ति से परिपूर्ण कर दे!

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सन्दर्भ :

अष्टावक्र गीता अध्याय ३, श्लोक ६,

तथा,

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३, श्लोक २०

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LOVE AND DEVOTION.

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Either Purify your Love so as to make it the Purest; - the Devotion,

Or let the Love purify you so as to make you the Purest; - the Devotee!

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This refers to :

Ashtavakra Gita - Chapter 3, Stanza 6, and Shrimadbhagvad-gita - Chapter 3, stanza 20.

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आस्थितं परमाद्वैतम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ६

आस्थितं परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः।।

आश्चर्यं कामवशगो विकलः केलिशिक्षया।।६।।

अर्थ : यह आश्चर्य ही है कि कोई परम अद्वैत में प्रतिष्ठित रहते हुए भी और मोक्षप्राप्ति के लिए तत्पर और सुव्यवस्थित होकर भी कामविह्वल होकर शृङ्गार-भावना में पूरी तरह निमग्न हो!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅನ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೬

ಆಸ್ಥಿತಃ ಪರಮಾದ್ವೈತಂ ಮೋಕ್ಷಾರ್ಥೇऽಪಿ ವ್ಯವಸ್ಥಿತಃ||

ಆಶ್ಚರ್ಯಂ ಕಾಮವಶಗೋ ವಿಕಲಃ ಕೆಲಿಶಿಕ್ಷಯಾ ||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 6

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Strange indeed! Abiding in the Supreme non-duality and intent on liberation, one should yet be subject to lust and be unsettled by the practice of amorous pastimes!

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Tuesday 27 December 2022

Turning out a new leaf.

In Between - The Role of Destiny (daivam) :

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The Chapters 3 to 6 of Ashtavakra Gita are a bit difficult to comprehend and understand correctly with no least doubt about the sense and the meaning.

A few days ago through some divine hint, I chanced upon to glance over my old books. There were several like : 

Crumbs From His Table

Day by Day with Bhagawan

Mahayoga of Sri Ramana Maharshi,

And,

Talks with Sri Ramana Maharshi. 

In one of the Books as referred to as above, a devotee asks Sri Ramana :

"Are only the incidences of importance like career, marriage, death and such other chief events chalked out in one's life, or those also  which are just of trivial importance, like the  glass that is there on the table with some or little water in it?"

To this Sri Ramana said:

"Everything is destined to happen the way it has been chalked out."

"Not a leaf stirs without God's Command."

The words said above also bear the same truth.

This is exactly what could be treated as the daiva; as is pointed out in Shrimadbhagvad-gita chapter 18, verse 13,14,19 :

पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।।

प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्रुणु तान्यपि।।१९।।

Along with let us associate the one of chapter 6, verse 34 :

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवान अपि।।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।३४।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ६)

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Then we can perhaps see and understand how a jnaani stays undisturbed aloof and unperturbed though may outwardly seem so to others.

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अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ५

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।।

मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते।।५।।

अर्थ : यह आश्चर्य ही है कि समस्त भूतमात्र में आत्मा (अपने) को ही और आत्मा (अपने) में समस्त भूतमात्र को देखता हुआ मुनि भी अपनी प्रकृति से प्रेरित होकर तदनुसार ही बर्ताव किया करता है।

(और इसलिए लौकिक और सांसारिक नैतिक मूल्यों का पालन करने का बन्धन उस पर लागू नहीं होता।)

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಸರ್ವಭೂತೇಷು  ಚಿತ್ಮಾನಂ ಸರ್ವಭೂತಾನಾ ಚಾತ್ಮನಿ||

ಮುನೆರ್ಜಾನತ ಆಶ್ಚರ್ಯಂ ಮಮತ್ವಮನುವರ್ತತೇ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 5

It is strange that the sense of ownership should continue even in the sage who has realised the Self in all and all in the Self.

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Monday 26 December 2022

श्रुत्वाऽपि शुद्धचैतन्यम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ४

श्रुत्वाऽपि शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्।।

उपस्थेऽत्यन्त संसक्तो मालिन्यमधिगच्छति।।४।।

अर्थ : शास्त्रों और आत्म-ज्ञानियों के मुख से यह सुनकर भी कि अपनी यह आत्मा शुद्ध, चैतन्य-स्वरूप और परम श्रेष्ठ, सुन्दर है, जिस मनुष्य का चित्त इस आत्मा से अन्य अनेक अनित्य और अशुद्ध वस्तुओं की ओर आकर्षित, उनमें संलिप्त और आसक्त है, वह मलिनता और ग्लानि को ही प्राप्त करता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಶ್ರುತ್ವಾऽಪಿ ಶುದ್ಥಚೈತನ್ಯಮಾತ್ಮಾನಮತಿಸುನ್ದರಂ||

ಉಪಸ್ಥೇऽತ್ಯನ್ತ ಸಂಸಕ್ತೋಮಾಲಿನ್ಯಮಧಿಗಚ್ಛತಿ||೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 4

Even after hearing (clearly, and repeatedly from the scriptures and sages) oneself to be pure Intelligence and surpassingly beautiful, how can one become unclean through deep devotion to lust!

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Saturday 24 December 2022

विश्वं स्फुरति यत्रेदम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ३

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्ग इव सागरे।। 

सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि।।

अर्थ : जैसे सागर में (असंख्य) तरंगें उठती हैं, और विश्व उस सागर में उठनेवाली कोई तरंगमात्र है, उस अपनी आत्मारूपी सागर से ही विश्व का उद्भव होता है, - "वह मैं हूँ" इसे ठीक से जान लेने के बाद भी, क्यों दीन की तरह व्याकुल हो इधर-उधर भागते रहते हो!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೩

ವಿಶ್ವಂ ಸೂಸುರತಿ ಯತ್ರೇದಂ ತರಙ್ಗಿ ಇವ ಸಾಗರೇ||

ಸೋऽಹಮಸ್ಮೀತಿ ವಿಜ್ಞಾಯ ಕಿಂ ದೀನ ಇವ ಧಾವಸಿ||೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3 

Stanza 3

Having known yourself to be as I AM THAT in which the universe appears like waves on the sea why do you keep running about here and there, like a miserable being!

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Friday 23 December 2022

आत्माज्ञानादहोप्रीतिर्

अष्टावक्र गीता 

अध्याय ३

श्लोक २

आत्माज्ञानादहोप्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।।

शुक्तेरज्ञानतो लोभोयथारजतविभ्रमे।।२।।

(आत्म-अज्ञानात् अहो प्रीतिः विषयभ्रमगोचरे। शुक्तेः अज्ञानतः लोभः यथा रजतविभ्रमे।।)

अर्थ  : अरे! जिस तरह से शुक्ता (सीप) के स्वरूप से अनभिज्ञ मनुष्य लोभवश उसे रजत (चाँदी) समझ बैठता है, उसी तरह से आत्मा (अपने आप) के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होने से मनुष्य इन्द्रियों आदि विषयों के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले भ्रमपूर्ण ज्ञान को अपना स्वरूप समझ बैठता है और उस विभ्रम के ही कारण उसे विषयों तथा उन विषयों में प्रतीत होनेवाले सुखों से लगाव हो जाता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಆದಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೨

ಆತ್ಮಾಚ್ಞಾನಾದಹೋ ಪ್ರೀತಿರ್-

ವಿಷಯಭ್ರಮಗೋಚರೇ||

ಶುಕ್ತೇರಚ್ಞಾನತೋ ಲೋಭೋ

ಯಥಾ ರಜತವಿಭ್ರಮೇ||೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 2

Alas, as from the illusion of silver caused by the ignorance of the pearl-oyester, arises the greed, even so does the attachment to the objects of illusory perception arise from the ignorance of the Self.

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Thursday 22 December 2022

तृतीयोऽध्यायः

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक १

अष्टावक्र उवाच :

अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः।।

तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः।।१।।

अर्थ :

अष्टावक्र ने (राजा जनक से) कहा :

एकमेव अविनाशी आत्मा के स्वरूप को निश्चयपूर्वक जान लेने के बाद फिर तुम जैसे आत्मज्ञ और धीर पुरुष की लालसा धन-संपत्ति के अर्जन में कैसे हो सकती है?

(कथा-क्रम : इस अध्याय ३ से अध्याय ६ के अन्त तक अष्टावक्र ही जनक से वार्तालाप कर रहे हैं।)

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ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ :

ಅವಿನಾಶಿನಮಾತ್ಮಾನಮೇಕಂ ವಿಙ್ಞಾಯ ತತ್ತ್ವತಃ||

ತವಾತ್ಮಜ್ಙಸ್ಯ ಧೀರಸ್ಯ ಕಥಮರ್ಥಾರ್ಜನೇ ರತಿಃ||೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 1

Ashtavakra said :

Having known yourself (the Atman / Self), really indestructible and one, how is it that you, serene and knower of Self, feel attached to the acquisition of wealth!

(From this chapter 3 onwards up-to chapter 6 Ashtavakra speaks to Raja Janaka.)

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Tuesday 20 December 2022

... विनश्वरः... स्वभावतः ...

अष्टावक्र गीता

अध्याय २,

श्लोक २४, २५,

मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवातेप्रशाम्यति।।

अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वरः।।२४।।

मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्यं जीववीचयः।।

उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः।।२५।।

।।इति अष्टावक्र गीतायाम् द्वितीयोऽध्यायः।।

अर्थ :

मुझ असीम महासमुद्र में (जिसमें कि पिछले श्लोक के अनुसार जैसा कहा है), चित्त और वायु (चेतना रूपी व्यक्तिगत मन और प्राण) अन्ततः प्रशमित होते हैं। केवल दुर्भाग्यवश ही जीव, वह मनुष्य जो इस जगतरूपी समुद्र में जहाज पर सवार व्यापारी के समान किसी लक्ष्य को पाना चाहता है, नाश को प्राप्त हो जाता है। २४

यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि मुझ असीम महासमुद्र में निरन्तर असंख्य जीवों-रूपी तरंगें उठती और गिरती, उत्पन्न होती और विनाश को प्राप्त होती रहती हैं, मुझमें ही सतत खेलती और वे पुनः मुझमें ही विलीन हो जाती हैं! २५

।। इति अष्टावक्र गीता - द्वितीय अध्याय संपूर्ण।।

कृपया इस पोस्ट को पिछले पोस्ट के क्रम में आगे पढ़िए। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೪, ೨೫,

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ ಚಿತ್ತವಾತೇ ಪೃಶಾಮ್ಯತಿ||

ಅಭಾಗ್ಯಾಜ್ಜೀವವಣಿಜೋ ಜಗತ್ತೇ ವಿನಶ್ವರಃ ||೨೪||

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋ-

ಧಾವಾಶ್ಚರ್ಯಯಂ ಜೀವವೀಚಯಃ||

ಉತ್ಯನ್ತಿ ಘ್ನನ್ತಿ ಖೇಲನ್ತಿ ಪೃವಿಶನ್ತಿ ಸ್ವಭಾವತಃ||೨೫||

||ಇತಿ ದ್ವಿತೀಯೋಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 24, 25,

24 -With the calming of the wind of the mind in the infinite ocean of Myself, the ark of the universe of Jiva, the trader, unfortunately meets destruction. 24

25 - How Wonderful! In Me, the shoreless ocean, the waves of the individual selves rise, strike (each other), play (for a time) and disappear, each according to its nature. 

Thus concludes the Chapter 2 of Ashtavakra Gita.

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Note : This post should be read with the earlier post, where Stanza 23 has been entered.


अहो भुवनकल्लोलै

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २३

अहो भुवनकल्लोलैर्विचित्रैर्द्राक्समुत्थितम्।।

मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवाते समुद्यते।।२३।।

अर्थ :

अरे! मुझ असीम महासमुद्र में, चित्त और वात, चेतना के और प्राणों के उद्यत और सक्रिय होने से ही विश्वरूपी असंख्य तरंगें  निरंतर उठती और विलीन होती रहती हैं।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೩

ಅಹೋ ಭುವನಕಲ್ಲೋಲೈರ್ರ್ವಿ-

ಚಿಚಿತ್ರೈರ್ದ್ರಾಕ್ಸಮುತ್ಥಿತಮ್||

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ

ಚಿತ್ತವಾತೇ ಸಮುದ್ಯತೇ||೨೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 23

Oh! in Me, the limitless ocean, diverse waves of worlds are produced forthwith on the rising of wind of the mind. 

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Monday 19 December 2022

नाहं देहो न मे देहो

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २२

नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित्।।

अयमेव हि मे बन्ध आसीत् या जीविते स्पृहा।।२२।।

अर्थ :

न मैं देह हूँ, न देह मेरा है, न मैं जीव हूँ, मैं चित् हूँ। मेरा एकमात्र बन्धन यही था कि जीवन के प्रति लालसा थी। 

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ के श्लोक १४ तथा अध्याय १४ के श्लोक १२ को स्पृहा शब्द के संदर्भ में उपरोक्त श्लोक को समझें तो शायद कुछ सहायता होगी --

अध्याय ४

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।१४।।

अध्याय १४

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।।

राजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१२।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೨

ನಾಹಂ ದೇಹೋ ಜೀವೋ

ನಾಹಮಹಂ ಹಿ ಚಿತ್||

ಅಯಮೇವ ಹಿ ಮೇ ಬನ್ದ

ಆಸೀದ್ಯಾ ಜೀವಿತೇಸ್ಪೃಹಾ||೨೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 22

Neither am I this body, nor is the body mine. I am not Jiva (self) I am Chit (Chaitanya Self). This indeed was my bondage that I had thirst for life.

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Saturday 17 December 2022

अहो जनसमूहेऽपि

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २१

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अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।। 

अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम्।।२०।।

अर्थ :

अरे! जनसमूह में होते हुए भी मुझमें द्वैत नहीं दिखाई देता। उस जनसमूह से घिरा होने पर भी मैं उससे वैसा ही असंबद्ध होता हूँ जैसे कि अरण्य असंख्य वृक्षों में होते हुए भी उनसे स्वतंत्र होता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೧

ಅಹೋ ಜನಸಮೂಹೇಪಿ ನ ದ್ವೈತಂ ಪಶ್ಯತೋ ಮಮ||

ಅರಣ್ಯಮಿವ ಸಂವೃತ್ತಂ ಕ್ವ ರತಿಂ ಕರವಾಣ್ಯಹಂ||೨೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 21

O,  I don't find any duality. Therefore, Even for Me, the multitude of human beings, has become like a wilderness. What should I attach myself to?

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Friday 2 December 2022

शरीरं स्वर्गनरकौ

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २०

शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा।।

कल्पनामात्र मे वै तत्किं मे कार्यं चिदात्मनः।।२०।।

अर्थ :

शरीर, स्वर्ग और नरक, बन्धन और मोक्ष, तथा भय इत्यादि तो मेरे लिए कल्पनामात्र हैं। अहं-चैतन्य-आत्मा, जो मेरा स्वरूप है, उसका इन सब से क्या प्रयोजन है!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೦

ಶರೀರಂ ಸ್ವರ್ಗನರಕೌ

ಫನ್ಧಮೋಕ್ಷೌ ಬಯಂ ತಥಾ||

ಕಲ್ಪನಾಮಾತ್ರ ಮೇ ವೈ ತ-

ತ್ಕಿಂ ಮೇ ಕಾರೇಕಾರ್ಯಂ ಚಿದಾತ್ಮಮಲಃ||೨೦||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 20

Body, heaven and hell, bondage, freedom, as also fear, all these are mere imagination. What have I to do with all these I whose nature is Chit (Consciousness)!

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Thursday 1 December 2022

सशरीरमिदं विश्वं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १९

सशरीरमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चितम्।।

शुद्ध चिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन्कल्पनाऽधुना।।१९।।

अर्थ :

इस पूरे शरीर सहित यह विश्व, शुद्ध चिन्मात्र आत्मा ही है, इससे अन्य कुछ नहीं, केवल कल्पना ही है यह निश्चित हुआ, तो अब यह कल्पना किसे आती है ! चूँकि आत्मा से अन्य कुछ नहीं है, इसलिए इस कल्पित उपाधि को व्यर्थ जानकर त्याग दिया जाना ही उचित है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೯

ಸಶರೀರಮಿದಂವಿಶ್ವಂ ನ ಕಿಞ್ಚಿದಿತಿ ನಿಶ್ಚಿತಂ||

ಶುದ್ಧಚಿನ್ಮಾಚ್ರ ಆತ್ಮಾ ಚ ತತ್ಕಸ್ಮಿನ್ಕಲ್ಪನಾऽಧುನಾ||೧೯||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 19

I have known for certain that the body and the universe are nothing and that the Atman is only pure Intelligence. So, on which now can super-imposition be possible!

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Wednesday 30 November 2022

न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १८

न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा भ्रान्तिः शान्ता निराश्रया।।

अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्।।१८।।

अर्थ :

आत्मा को न तो बन्धन है और न मोक्ष, (मेरी) भ्रान्ति शान्त हो गई क्योंकि उस भ्रान्ति का आश्रय ही नहीं रहा।

अरे! जगत् मुझमें (आत्मा में ही) अवस्थित होते हुए भी आत्मा में अवस्थित नहीं है (क्योंकि दृश्य जगत् का मुझ आत्मा से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व ही कहाँ है!)

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೮

ನ ಮೇ ಬನ್ಧೋऽಸ್ತಿ ಮೋಕ್ಷೋ ವಾ

ಭ್ರಾನ್ತಿಃ ಶಾನ್ತಾ ನಿರಾಶ್ರಯಾ||

ಅಹೋ ಮಯಿ ಸ್ಥಿತಂ ವಿಶ್ವಂ

ವಸ್ತುತೋ ನ ಮಯಿ ಸ್ಥಿತಂ ||೧೮||

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I have neither bondage, nor freedom. The illusion having lost its support, has ceased. Oh!  The universe though existing in Me, does not in reality so exist.

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(This reminds Gita Chapter 9, Stanza 4 and 5:

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।। 

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।४।।

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।५।।

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Tuesday 29 November 2022

बोधमात्रोऽहमज्ञानादुपाधिः

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १७

बोधमात्रोऽहमज्ञानादुपाधिः कल्पितो मया।।

एवं विमृशतो नित्यं निर्विकल्पे स्थितिर्मम।।१७।।

(बोधमात्रः अहं अज्ञानात् उपाधिः कल्पितः मया। एवं विमृशतः नित्यं निर्विकल्पे स्थितिः मम।)

अर्थ : 

यद्यपि अहं (मैं)- आत्मा बोधमात्र है, अज्ञानवश मेरे द्वारा उपाधि कल्पित कर ली जाती है (और प्रमादवश अपने आपको उपाधि मान लिया जाता है)। और जब इस पर ध्यानपूर्वक विमर्श किया जाता है तो पाया जाता है कि मेरा वास्तविक स्वरूप तो नित्य और निर्विकल्प है। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೭

ಬೋಧಮಾತ್ರೋऽಹಮಜ್ಞಾಲಾ-

ದುಪಾಧಿಃ ಕಲ್ಪಿತ ಮಯಾ||

ಏವಂ ವಿಮೃಶತೋ ಲಿತ್ಯಂ

ಲಿರ್ವಿಕಲ್ಪೇ ಸ್ಥಿತಿರ್ಮಮ||೧೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 17

I am Pure Intelligence. Through ignorance (in-attention) only, I have imposed limitation (upon myself). Constantly reflecting in this way, I am abiding in the Absolute.

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Monday 28 November 2022

द्वैतमूलमहोदुःखं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १६

द्वैतमूलमहोदुःखं नान्यस्तस्यास्ति भेषजम्।।

दृश्यमेतन्मृषासर्वं एकोऽहं चिद्रसोऽमलः।।१६।।

(द्वैतमूलं अहो दुःखं न अन्यः तस्य अस्ति भेषजम्। दृश्यं एतत् मृषा सर्वं एकः अहं चित्-रसः अहम्।।)

अर्थ :

(दृक् और दृश्य के बीच, दृष्टा और दृष्ट के बीच का भेद सत्य है, यह कल्पना अर्थात्) द्वैत की कल्पना ही मूलतः एकमात्र दुःख, अर्थात् व्याधि है, जिसकी चिकित्सा कर सके ऐसा कहीं कोई चिकित्सक नहीं है। यह समस्त दृश्यमात्र मिथ्या आभास मात्र ही है, और केवल आत्मा जिसका स्वरूप चैतन्य (चेतनता / चेतना) मात्र है वही चित्-रस एकमात्र सत्यवस्तु है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೬

ದ್ವೈತಮೂಲಮಹೋತುಃಖಂ

ನಾನ್ಯತ್ತಯ್ಯಾಸ್ತಿ ಭೇಷಜಮ್||

ದೃಶ್ಯಮೇತನ್ಮೃಷಾಸರ್ವಂ

ಏಕೋऽಹಂ ಚಿದ್ರಸೋऽಮಲಃ||೧೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 16

Oh!  Duality is the root of misery.

There is no other remedy for it except the realization that all objects of experience are false and that I am One, pure, Intelligence and Bliss.

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Sunday 27 November 2022

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता...

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १४

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम्।।

अज्ञानाद्भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरञ्जनः।।१५।।

अर्थ :

ज्ञान (ज्ञात), ज्ञेय (विषय) तथा ज्ञाता इन तीनों रूपों में जिसका वर्गीकरण किया जाता है, वैसी सत्य वस्तु कोई नहीं होती। यह तीनों जहाँ जिस अधिष्ठान में अज्ञान से ही भासित होते हैं और सत्य को आवरित कर सत्य प्रतीत होते हैं, वह अधिष्ठान आत्मा (मैं) ही एकमात्र वास्तविकता है। 

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इसकी तुलना श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १८ के निम्न श्लोक से की जा सकती है :

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।१८।।

चूँकि कर्म जड अर्थात् असत् है : 

कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम्।।

कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।१।।

(महर्षि श्री रमणकृत उपदेश-सारः) इसलिए भी कर्म की प्रेरणा देनेवाले ये तीनों कर्म के कारण भी इसी प्रकार से असत् ही हैं।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೫

ಜ್ಞಾನಂ ಜ್ಜೇಯಂ ತಥಾ ಜ್ಞಾತಾ

ತ್ರಿತಯಂ ನಾಸ್ತಿ ವಾಸ್ತವಮ್||

ಅಜ್ಞಾನಾದ್ಭಾತಿ ಯತ್ರೇದಂ

ಸೋऽಹಮಸ್ಮಿ ನಿರಞಜನಃ||೧೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 15

Knowledge (विषयात्मक इन्द्रियज्ञान), knower (विषयी) and knowable (विषय) -- these three do not in reality exist. I am That Stainless Self (निरञ्जन आत्मन्), in which this triad appears through ignorance.

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Saturday 26 November 2022

सर्वंयद्वाङ्मानसगोचरम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १४

अहो अहं नमो मह्यं यस्य मे नास्ति किञ्चन।।

अथवा यस्य मे सर्वं यद्वाङ्मानसगोचरम्।।१४।।

अर्थ :

अहो! उस (अद्वय)आत्मा की महिमा को नमस्कार है! जिसके लिए कुछ भी मेरा / अपना इसलिए नहीं है, क्योंकि उससे अन्य कुछ वस्तुतः है ही नहीं! अथवा, मन, वाणी एवं इन्द्रियगम्य, यह सब जो कुछ भी है, आदि सब जिसका अत्यन्त ही अपना निज एवं पूर्णतः एकमात्र वही है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೪

ಅಹೋ ಅಹಂ ನಮೋ ಮಹ್ಯಂ

ಯಸ್ಯ ಮೇ ನಾಸ್ತಿ ಕಿಞ್ಚನ||

ಅಥವಾ ಯಸ್ಯ ಮೇ ಸರ್ವಂ

ಯದ್ವಾಙ್ಮನಸ-ಗೋಚರಮ್||೧೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 14

Wonderful am I! Adoration to Myself! Who have nothing or have all that is thought and spoken of!

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ब्रह्मन् / आत्मन् Brahman / Atman is devoid of all the three types of categories!/ distinctions :

सजातीय - Of its own kind,

विजातीय - Of another kind, and,

स्वगत - Of and within as a part of itself.

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Friday 25 November 2022

अहो... दक्षो नास्ति मत्समः।

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १३

अहो अहं नमो मह्यं दक्षो नास्तीहमत्समः।।

असंस्पृश्यशरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम्।।१३।।

(अहो अहं नमः मह्यं दक्षः न अस्ति इह मत्समः। असंस्पृश्य-शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम्।।) 

अर्थ :

अहो! आत्मा को नमस्कार! इस महान आत्मा को, जिसने शरीर को स्पर्श तक न करते हुए ही, संपूर्ण जगत् को सनातन काल से ही धारण किया हुआ है, जिसकी तरह और कोई समर्थ नहीं है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೩

ಅಹೋ ಅಹಂ  ನಮೋ ಮಹ್ಯಂ ದ್ಷೋ ನಾಸ್ತಿ ಮತ್ಸಮಃ||

ಅಸಂಸ್ಪೃಶ್ಯ ಶರೀರೇಣ ಯನ ವಿಶ್ವಂ ಚಿರಂ ಧೃತಂ||೧೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 13

Wonderful am I! Adoration to Me! There is none so capable as I, Who am bearing the universe for all eternity without touching it with body. 

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Thursday 24 November 2022

अहो... एकोऽहं देहवानपि।

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १२

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १२

अहो अहं नमो मह्यमेकोऽहं देहवानपि।।

क्वचिन्न गन्ता नागन्ता व्याप्यविश्वमवस्थितः।।१२।।

अर्थ :

अहो! आत्मा की महिमा!  आत्मा को नमस्कार है! देह यद्यपि यत्र तत्र आती जाती है, आत्मा संपूर्ण विश्व में वयाप्त है, जो कि  देह में होते हुए भी देह से स्वतंत्र भी है, जो कहीं या आता नहीं!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೨

ಅಹೋ ಅಹಂ ನಮೋ ಮಹ್ಯ-

ಮೇಹೋऽಹಂ ದೇಹವಾನಪಿ||

ಕ್ವತಿನ್ನ  ಗನ್ತಾ ನಾಗನ್ತಾ

ವ್ಯಾಪ್ಯವಿಶ್ವಮವಸ್ಥಿತಃ||೧೨||

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Ashtavakra Gita 

Chapter 2

Stanza 12

Wonderful am I! Adoration to Myself, Who, though with a body one, neither come from nor go to anywhere and abide pervading the universe.

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Wednesday 23 November 2022

अहो अहं नमो मह्यं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक ११

अहो अहं नमो मह्यं विनाशो यस्य नास्ति मे।।

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं जगन्नाशेऽपि तिष्ठतः।।११।।

अर्थ :

अहो इस आत्मा की महिमा! मुझे, अर्थात् अपने आत्मस्वरूप इस आत्मा को, जिसका विनाश नहीं होता, नमस्कार है, जबकि ब्रह्मा से तृणपर्यन्त यह संपूर्ण जगत् सतत और अवश्य ही नाश की ओर अग्रसर है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೧

 ಅಹೋ ಅಹಂ ಲಮೋ ಮಹ್ಯಂ

ವಿನಾಶೋ ಯಸ್ಯ ಲಾಸ್ತಿ ಮೇ||

ಬ್ರಹ್ಮಾದಿಸ್ತಮ್ಬಪರ್ಯನ್ತಂ

ಜಗನ್ನಾಶೇऽಪಿ ತಿಷ್ಠತಃ||೧ಚ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 11

Wonderful am I! Adoration to Myself, Who know no decay and survive even the destruction of the world from Brahma down to the clump of grass!

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Tuesday 22 November 2022

मत्तो विनिर्गतं विश्वं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १०

मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येवलयमेष्यति।।

मृदि कुम्भोजले वीचिः कनके कटकं यथा।।१०।।

(मत्तः विनिर्गतं विश्वं मयि एव लयं एष्यति। मृदि कुम्भः जले वीचिः कनके कटकं यथा।।)

अर्थ :

जैसे मिट्टी से बना घट टूटकर अंततः मिट्टी ही हो जाता है, जल में उठी तरंग जल में ही विलीन हो जाती है, और स्वर्ण से बना हुआ कंकण या आभूषण, उसकी आकृति बदल जाने पर भी स्वर्ण ही होता है, उसी प्रकार, यह विश्व भी मुझसे ही व्यक्त-रूप ग्रहण करता है एवं पुनः मुझमें ही इसका लय हो जाएगा।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧೦

ಮತ್ತೋ ವಿನಿರ್ಗತಂ ವಿಶ್ವಂ

ಮಯ್ಯೇವ ಲಯಮೇಷ್ಯತಿ||

ಮೃದಿ ಕೀಮ್ಭೋ ಜಲದ ವೀಚಿಃ

ಕನಕೇ ಕಟಕಂ ಯಥಾ ||೧೦||

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Ashtavakra Gita 

Chapter 2

Stanza 10

Just as a jar dissolves into earth, a wave into water, or a bracelet into gold, even so, the universe which has emanated from Me, will dissolve into Me.

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अहो विकल्पितं विश्वं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक ९

अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयि भासते।।

रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरे यथा।।९।।

अर्थ :

अरे! कितना आश्चर्य है कि जिस प्रकार से केवल अज्ञान ही के कारण सीप (शुक्ता) में रजत, रज्जु में सर्प और सूर्य की किरणों में जल भासता है उसी प्रकार, केवल अज्ञानवश, कल्पना के ही कारण मुझे आत्मा में यह विश्व भासता है!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೯

ಅಹೋ ವಿಕಲ್ಪಿತಂ ವಿಶ್ವ-

ಮಜ್ಞಾನಾಲ್ಮಯಿ ಭಾಸತೇ||

ರೂಪ್ಯಂ ಶುಕ್ತೌ ಫಣೀ ರಜ್ಜೌ

ವಾರಿ ಸೂರ್ಯಕರೇ ಯಥಾ||೯||

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Ashtavakra Gita 

Chapter 2

Stanza 9

O, Just as because of ignorance only, silver appears in the mother of pearl, snake in the rope, and water in the rays of the sun-beam, even so, the universe appears in Me.

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Monday 21 November 2022

प्रकाशो मे निजं रूपं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक ८

प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः।।

यदा प्रकाशते विश्वं तदाऽहंभास एव हि।।८।।

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अर्थ :

प्रकाश ही मेरा स्वरूप है, मैं कभी इससे  भिन्न नहीं होता। विश्व का प्राकट्य होते ही, विश्व के रूप में मैं ही अभिव्यक्त होता हूँ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಯನ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೮

ಪ್ರಕಾಶೋ ಮೇ ನಿಜಂ ರೂಪಂ

ನಾತಿರಿಕ್ತೋऽಸ್ಮ್ಯಹಂ ತತಃ||

ಯದಾ ಪ್ರಕಾಶತೇ ವಿಶ್ವಂ

ತಧಾऽಹಂ ಭಾಸ ಏವ ಹಿ ||೮||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 8

Light (Awareness alone) is my very nature and I am no other than That. As and When the universe manifests, with its emergence, it is verily I am alone That shines as it.

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A note on

Ashtavakra Gita

and

Shrimadbhagvad-gita.

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Sunday 20 November 2022

आत्माज्ञानाज्जगद्भाति

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक ७

आत्माज्ञानाज्जगद्भाति आत्मज्ञानान्न भासते।।

रज्ज्वज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद्भासते नहि।।७।।

अर्थ :

जिस समय रज्जु में सर्प का आभास-रूपी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, उस समय रज्जु का ज्ञान विलुप्त हो जाता है और यह (रज्जु नहीं है, यह) सर्प है, इस प्रकार का आभास-रूपी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इसी तरह जगत् की प्रतीति भी आत्मा के अज्ञान के कारण उत्पन्न होती है, और आत्मा का ज्ञान होते ही जगत् की प्रतीति शेष नहीं रह जाती।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೭

ಆತ್ಮಾಜ್ಞಾನಾಜ್ಜಗದ್ಬಾತಿ ಆತ್ಮಜ್ಞಾನವನ್ನು ಭಾಸತೇ||

ರಜ್ಜ್ವಜ್ಞಾನಾದಹಿರ್ಭಾತಿ ತಜ್ ಜ್ಞಾದ್ಭಾಸತೇ ನಹಿ ||೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 

The snake appears from the non-cognition of the rope, and disappears with the cognition. In the same way, the world appears from the ignorance of the Self, and it disappears with the knowledge of the Self.

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Friday 18 November 2022

यथैवेक्षुरसेक्लृप्ता

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक ६

यथैवेक्षुरसेक्लृप्ता तेन व्याप्तैव शर्करा।।

तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरन्तरं।।६।।

अर्थ :

ईख के रस से निकाली जानेवाली शर्करा उस रस में जैसे भीतर और बाहर व्याप्त होती है, उसी प्रकार से मैं, मुझमें उत्पन्न होने वाले विश्व में पूरी तरह से निरन्तर भीतर-बाहर व्याप्त हूँ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೬

ಯಥೈವೇಕ್ಷುರಸೇಕ್ಲೃಪ್ಚಾ

ತೇಲ ವ್ಯಾಪ್ತೈವ ಶರ್ಕರಾ ||

ತಥಾ ವಿಶ್ವಂ ಮಯಿ ಕ್ಲೃಪ್ತಂ

ಮಯಾ ವ್ಯಾಪ್ತಂ ಲಿರಲ್ತರಂ||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 6

Just as sugar generated in sugarcane-juice is wholly pervaded by it (in the juice), even so, the universe produced in Me, is permeated by Me, through and through.

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तन्तुमात्रो भवेदैव

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक ५

तन्तुमात्रो भवेदैव पटो यद्वद्विचारितः।।

आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्विद्विश्वंविचारितम्।।५।।

अर्थ :

जिस प्रकार से कपड़े के स्वरूप पर ध्यानपूर्वक विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि वह मूलतः केवल तन्तुमात्र है, उसी प्रकार  से इस विश्व के बारे में ध्यानपूर्वक विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह विश्व मूलतः मात्र आत्मा ही है, किसी प्रकार से होनेवाली इसकी प्रतीति केवल मिथ्या आभास है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೫

ತನ್ತುಮಾತ್ರೋ ಭವೇವೊದೇವ ಪಟೋ ಯದ್ವಿಚಾರಿತಃ||

ಆತ್ಮತನ್ಮಾತ್ರ ಮೇವೇದಂ ತದ್ವತ್ವಿಶ್ವಂವಿಚಾರಿತಂ||೫||

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As cloth when properly analyzed is found to be nothing but thread, even so, this universe duly considered, is nothing but the Atman.

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Thursday 17 November 2022

यथा न तोयतो भिन्नास्तरङ्गाः

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक ४

यथा न तोयतो भिन्नास्तरङ्गाः फेनबुद्बुदाः।।

आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम्।।४।।

अर्थ :

जिस प्रकार तरंगें, फेन और बुलबुले, पानी से (भिन्न प्रतीत होते हुए भी) भिन्न और कुछ नहीं होते, उसी प्रकार से, आत्मा से ही उद्भूत यह विश्व भी (आत्मा से भिन्न प्रतीत होते हुए भी) केवल और केवल आत्मा ही है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಯನ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೪

ಯಥಾ ನ ತೋಯತೋ ಭಿನ್ನಾಸ್ತ-

ರಙ್ಗಃಫೇಏನಬುದ್ಬುದಾಃ||

ಆತ್ಮನೋ ನ ತಥಾಭಿನ್ನಂ

ವಿಶ್ವಮಾತ್ಮವಿನಿರ್ಗತಮ್||೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 4

As wave, foam and bubbles are not different from water, even so the universe emanating from the Atman is not different from it.

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Tuesday 15 November 2022

सशरीरमहो विश्वं

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक ३

सशरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाऽधुना।।

कुतश्चित्कौशलादेव परमात्मा विलोक्यते।।३।।

(सशरीरं अहं विश्वं परित्यज्य मया अधुना। कुतश्चित् कौशलात् एव परमात्मा विलोक्यते।।)

अर्थ :

अहो! अब यह भी अवश्य ही अद्भुत् ही है कि शरीर के ही साथ साथ सम्पूर्ण जगत् को ही त्याग दिए जाने पर भी, किसी अन्य कौशल (उपाय) से भी मेरे द्वारा परमात्मा को देखा जाता है!

(उस परमात्मा को, जो मुझसे अनन्य और अभिन्न, अपृथक् है। तात्पर्य यह कि वह एकमात्र चैतन्य जो कि एकमेव आत्मा और पमात्मा है, वही शरीर और जगत् की तरह भी व्यक्त होता है।)

सद्दर्शनम् --

सर्वैर्निदानं जगतोऽहमश्च।

वाच्यः प्रभुः कश्चिदपारशक्तिः।। 

चित्रेऽत्र लोक्यं च विलोकित च। 

पटः प्रकाशोऽप्यभवत्स एकः।।३।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೩

ಸಶರೀರಮಹೋ ಷಿಶ್ವಂ ಪರಿತ್ಯಜ್ಯ ಮಯಾऽಧುನಾ||

ಕುತಶ್ಚಿತ್ ಕೌಶಲಾದೇವ ಪರಮಾತ್ಮಾ ವೀಲೋಕ್ಯತೇ||೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 3

O, Having Renounced the universe along with the body, I am now perceiving the Supreme Self through Wisdom (received from my Guru).

This Consciousness -- Awareness, that I Am, alone is the manifest world, I -as self, and at the same time the Supreme-Self also).

Compare : Sat-Darshanam -Verse 3 :

Of myself and the world, 

All the cause admit--

A Lord of limitless power,

In this world-picture,

The canvas, the light,

The seer and the seen--

All are He, The One.

As is pointed out in the commentary of  :

"Sat Darshana Bhashya", 

by 'K' (-Bharadwaja Kapali Sastri).

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Monday 14 November 2022

यथा प्रकाशयाम्येको

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक २

यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनं तथा जगत्।।

अतो मम जगत्सर्वमथवा न च किञ्चन।।२।।

(यथा प्रकाशयामि एकः देहं एनं तथा जगत्। अतः मम जगत् सर्वं अथवा न च किञ्चन।।)

अर्थ :

जिस प्रकार से मैं एक ही चूँकि इस देह को तथा जगत् को भी प्रकाशित करता हूँ, अतः (यह कहना अनुचित न होगा कि देह और) संपूर्ण जगत् मेरा है, अथवा कुछ भी मेरा नहीं है।

--

टिप्पणी :

अतः यह कहना क्या उचित नहीं होगा कि चेतना (वैयक्तिक) या चेतना (वैश्विक), जो स्वयं ही स्वयं को व्यक्त और अव्यक्त करती है, और जिसमें कि देह, जगत् और यह स्वयं सभी एक ही साथ प्रकट और अप्रकट होते हैं, मैं हूँ? क्योंकि मैं तथा मेरा के बीच कोई विभाजन नहीं है! 

--

ಯಥಾ ಪ್ರಕಾಶಯಾಮ್ಯೇಕೋ

ದೇಹಮೋನಂ ತಥಾ ಜಗತ್||

ಅತೋ ಮಮ ಜಗತ್ಸ-

ರ್ವಮಥಷಾ ನ ಚ ಕಿಞ್ಚನ||೨||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 2

As I alone reveal this body, even so do I reveal this universe. Therefore mine is all this universe, or verily nothing is mine.

***

?

If it is said that :

The consciousness (the individual) or the  Consciousness (The Supreme);

that alone lets the body, the world and itself reveal as the self / Self (God) is the only, the Unique Reality that I am?

Is it not Wisdom?

Because, there is no more any distinction between I and mine. Either everything is I and mine, or nothing is I and mine. 

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Sunday 13 November 2022

अथ द्वितीयोऽध्यायः

अष्टावक्र गीता

अध्याय २

श्लोक १

जनक उवाच --

अहो निरञ्जनो शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः।।

एतावन्तमहंकालं मोहेनैव विडम्बितः।।१।।

अर्थ :

जनक ने कहा --

अरे! मैं तो अविकारी, निष्कलंक, शान्त, बोधमात्र और प्रकृति (विकार) से अत्यन्त रहित, विलक्षण और अन्य हूँ।  इसलिए यह विडम्बना है कि काल से मोहित हो जाने के कारण मुझे अपनी गरिमा का विस्मरण हो गया है। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಅಹೋ ನಿರಞ್ಜಲಃ ಶಾನ್ತೇ ಬೋಧೋऽಹಂ ಪ್ಕೃತೇಃ ಪರಃ ||

ಏತಾವನ್ತಮಹಂ ಕಾಲಂ ಮೋಹೇನೈವ ವಿಡಮ್ಬಿತಃ ||೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 1

Janaka said :

O! (Though) I am spotless, tranquil, pure consciousness and beyond nature. All this  time I have been mocked by illusion.

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Saturday 12 November 2022

एकं सर्वगतं व्योम

अष्टावक्र गीता

अध्याय १

श्लोक १९

एकः सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।।

नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा।।१९।।

अर्थ :

जैसे घट में एक ही व्योम भीतर-बाहर सर्वत्र ही व्याप्त होता है, उसी तरह से, एक ही नित्य और निरन्तर ब्रह्म, प्रत्येक भूतमात्र में समान रूप से विद्यमान है।

।।इति प्रथमोऽध्यायः।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೯

ಏಕಂ ಸರ್ವಗತಂ ವ್ಯೋಮ ಬಹಿರನ್ತರ್ಯಥಾ ಘಟೇ||

ನಿತ್ಯಂ ನಿರನ್ತರಂ ಬ್ರಹ್ಮ ಸರ್ಷಭೂತಗಣೇ ತಥಾ||೧೯||

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||ಇತಿ ಪ್ರಥಮೋಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 1

Stanza 19

As the only one and the same all-pervading ether is inside and outside a jar, even so the eternal all-pervasive Brahman exists in all things.

End of the Chapter 1 of Ashtavakra Gita.

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Friday 11 November 2022

यथैवादर्शमध्यस्थे

अष्टावक्र गीता

अध्याय १

श्लोक १८

यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तःपरितस्तु सः।। 

तथैवास्मिन् शरीरेऽन्तःपरितः परमेश्वर।।१८।।

अर्थ :

जैसे दर्पण का अस्तित्व उसमें स्थित किसी प्रतिबिम्ब से भीतर और बाहर भी होता है, परमेश्वर भी इस शरीर में, इसी तरह से भीतर तथा बाहर भी  विद्यमान है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೮

ಯಥೈವಾದರ್ಶಮಧ್ಯಸ್ಥೇ ರೂಪೇऽನ್ತಃ ಪರಿತಸ್ತು ಸಃ||

ತಥೈವಾಸ್ಮಿನ್ ಶರೀರೇऽಲ್ತಃ ಪರಿತಃ ಪರಮೇಶ್ಶರಃ||೧೮||

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Ashtavakra Gita

Chapter 1

Stanza 18

Just as a mirror exists within and without the image reflected in it also, even so the Supreme Lord exists inside and outside this body.

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साकारमनृतं विद्धि

अष्टावक्र गीता

अध्याय १

श्लोक १७

साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलम्।।

एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभवः।।१७।।

अर्थ :

जो साकार (आकृति-रूप) प्रतीत होता है, वह अनृत, अर्थात् मिथ्या आभास मात्र है, और ऋत् अर्थात् अविकारी-नित्य को निराकार तथा निश्चल जानो। ऐसे उपदेश के तत्त्व यथार्थ को  ग्रहण कर लेने पर तुम्हारे लिए फिर कभी पुनः, और जन्म-मृत्यु आदि नहीं होंगे।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೭

ಸಾಕಾರಮನೃತಂ ವೃದ್ಧಿ ನಿಲಾಕಾರಂ ತು ನಿಶ್ಚಲಮ||

ಏತತ್ತತ್ವೋಪದೇಶೇನ ನ ಪುನರ್ಭವಸಮ್ಭವಃ||೧೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 1 

Stanza 17

Know that which has form to be unreal and the formless to be permanent. Through this spiritual instruction you will escape / end the possibility of rebirth.

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Thursday 10 November 2022

निरपेक्षो निर्विकारो

अष्टावक्र गीता

अध्याय १

श्लोक १६

निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।।

अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः।।१६।।

अर्थ :

तुम अपेक्षारहित, निर्विकार, पूर्ण और स्वतन्त्र, असीम शान्ति से परिपूर्ण, अगाध और अक्षुब्ध-बुद्धियुक्त हो। केवल अपने उसी चित्-स्वरूप तत्व में अधिष्ठित रहने के अभिलाषी रहो!

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(जैसा कि सुश्री वृन्दावनेश्वरी माताजी कहती हैं : श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १२ के श्लोकों १३ से २० तक के निम्नलिखित श्लोकों से इसकी जा सकती है --

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।।

निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।१३।।

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।।

मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।१४।।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।१५।।

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।।

सर्वारम्भपरित्यागी ये मद्भक्तः स मे प्रियः।।१६।।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।१७।।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।१९।।

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।२०।।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೬

ನಿರಪೇಕ್ಷೋ ನಿರ್ವಿಕಾರೋ ನಿರ್ಭರಃ ಶೀತಲಾಶಯಃ||

ಅಗಾಧಬುದ್ಧಿರಕ್ಷುಬ್ಧೋ ಭವ ಚಿನ್ಮಾತ್ರಷಾಸನಃ ||೧೬||

--

You are Unconditioned, Immutable, Form-less, Unimpassioned, of un-fathomable intelligence and unperturbed.

Desire for Cit (Pure impeccable Immaculate Awareness) alone.

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Tuesday 8 November 2022

त्वया व्याप्तमिदं विश्वम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय १

श्लोक १५

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः।।

शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम्।।१५।।

अर्थ :

यह विश्व तुमसे ही व्याप्त है, यथार्थतः तुममें ही ओतप्रोत है। तुम शुद्ध-बुद्ध-स्वरूपमात्र हो, मन को क्षुद्रता कदापि न प्राप्त करने दो!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ವೇತ ೧೫

ತ್ವಯಾ ವ್ಯಾಪ್ತಮಿದಂ ವಿಶ್ವಂ

ತ್ವಯಿಪ್ರೋತಂ ಯಥಾರ್ಥತಃ||

ಶುದ್ಧಬುದ್ಧಸ್ವರೂಪಸ್ತ್ವಂ

ಮಾ ಗಮಃ ಕ್ಷುದ್ರ ಚಿತ್ತತಾಮ್ ||

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Ashtavakra Gita 

Chapter 1

Stanza 15

You pervade this universe and this universe exists in you.

You are really Pure and Conscious. Do not be small-minded.

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Sunday 6 November 2022

निस्सङ्गो निष्क्रियोऽसि त्वं

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १

श्लोक १४

निस्सङ्गो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरञ्जनः।।

अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठसि।।१४।।

अर्थ :

तुम सङ्गरहित, अक्रिय, स्वयं अपनी आत्मा के ही स्वाभाविक बोधरूपी प्रकाश से युक्त स्वप्रकाश, निरञ्जन और निर्दोष ही हो, तुम्हारा एकमात्र बन्धन तो यही है कि (सत्य और आत्मा का साक्षात्कार करने के ध्येय से) तुम समाधि का अभ्यास करते हो (और इस प्रकार का अभ्यास करने के फलस्वरूप ही तुम अपने स्वाभाविक अकर्ता, अभोक्ता और साक्षी आत्मस्वरूप को भूल जाते हो)।

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ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೪

ನಿಸ್ಸಂಗೋ ನಿಷ್ಕ್ರಿಯೋऽಸಿ ತ್ವಂ ಸ್ವಪ್ರಕಾಶೋ ನಿರಞ್ನನಃ||

ಅಯಮೇವ ಹಿ ತೇ ಬಂನ್ಧಃ ಸಮಾಧಿಮನುತಿಷ್ಠಸಿ ||೧೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 1

Stanza 14

You are unattached, actionless, self-effulgent and without any blemish. This indeed is your bondage that you practice Samadhi.

[Note : Any Spiritual Practice is done either in the form of Self-inquiry (आत्मानुसन्धान) or in the form of Yoga / Karma-yoga). The first is called Sankhya (साङ्ख्य), while the another is called Karma, Karma-Yoga or simply Yoga only. This depends upon the tendencies, the mindset and temperament of the seeker, and differs from person to person, according to the urge and intensity, purity and maturity of mind. Gita points out that Sankhya and Yoga are indeed one and the same because both result in attainment of the same goal.

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।। 

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ५)

The text of Gita begins with the anxiety and conflict of Arjuna - अर्जुनविषादयोगः -Chapter 1.

Lord Shrikrishna answers Him in Chapter 2 where the Sankhya Yoga has been dealt with. This is the way of Self-inquiry.

Then, because Arjuna finds himself unable to grasp and comprehend this teaching, he is taught Yoga, by the Lord Shrikrishna, in the subsequent chapters of this Text.

In the chapter 18 however the two kinds of the appeoaches the Sankhya and the Yoga, are synchronized by The Lord in a beautiful way, and that gives an apt finishing touch to the whole topic.

Ashtavakra Gita, however, emphasizes and gives treatment according to the approach of Sankhya. This implies that the aspirant has to enquire into, explore and to find out the exact meaning and purport of the "I".

Therefore one, who-so-ever undertakes this approach has to question about the very source, from where this "I" / the "I-sense" comes up in the first place.

Then one can realize that the consciousness alone is the Reality and substratum wherein this sense of existence of self arises.

Getting fixed in this substratum results into the Realization that Self is but Consciousness and the Intelligence only. 

The same has been described in the Stanza 2 of Chapter 2 of Sri Ramanagita beautifully as is given below :

हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रम्।

ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति।।

हृदि विश मनसा त्वं चिन्वता मज्जता वा। 

पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम्।।

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What Happens in Death?

The Body-Consciousness

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In the earlier post, (written down just before this), it was pointed out :

The body-consciousness or "I am body" idea is itself the very bondage. This idea is the illusion that takes place in consciousness.  Consciousness is the ground and support where this idea / thought arises. And this thought then is at once identified with the physical body that is there with the world around it. Thus proceeds the ignorance :

"I am this body, in this world".

This is precisely what is body-consciousness  or the acceptance about oneself that there is a world and I am in this world.

This simple and spontaneous thought that arises in the consciousness is "I-sense" or the अहंकार / अहं-वृत्ति. 

Having once accepted this fundamentally erroneous notion one accordingly identifies oneself with whatever that is experienced in and through this notion. Memory takes place and then Thoughts, feeling, experiences like the 3 states of mind namely the waking, the dream and the deep dreamless sleep appear and go away in there turn and though the consciousness alone is their support wherein this all phenomenon takes place, the sense. "I am" connects them all and apparently in a way is assumed as if rules over them.

When attention is given to the fact :

This I-sense is because of consciousness and the consciousness is truly the timeless and the unborn, undying, imperishable and the  immutable reality, which is devoid of any "I", and the "I -sense" too. This understanding :

I am / Existence is verily Intelligence only, is named variously as Atman -आत्मा, Brahman - ब्रह्मन्, Consciousness -चैतन्य , where Existence / being is knowing and knowing is being also.

सत् - Existence चित् (चैतन्य) - Consciousness are two aspects and names given to this Reality that is this Intelligence.

What happens in Death? 

Even whether one knows or doesn't know; - in death too this consciousness does not die, but the sense "I am body" comes to end. And though one can think : "I am going to die" this death too passes by.

Having discovered :

"I am not the body, I am but the Intelligence only"  one consciously realizes that the Self is immortal Reality and becomes truly free.

Just for the reference :






Saturday 5 November 2022

देहाभिमानपाशेन

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १

श्लोक १३

देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।।

बोधोऽहं-ज्ञानखङ्गेन तं निकृन्त्य सुखी भव।।१३।।

अर्थ :

हे पुत्र! "मैं देह हूँ" - अज्ञानवश ही, अभिमान-रूपी इस मिथ्या पाश से तुम सदा से बद्ध हो। इस देहाभिमान-रूपी पाश को - "मैं केवल विशुद्ध बोधमात्र चैतन्य हूँ ।" इस ज्ञान-रूपी खड्ग से काटकर सुखी हो जाओ।

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ಅಷಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಮೆಲ್ಲ ೧೩

ದೇಹಾಬಿಮಾನಪಾಶೇನ

ಚಿರಂ ಬದ್ಧೋऽಸಿ ಪುತ್ರರ ||

ಬೋಧೋऽಹಂ ಜ್ಞಾನಖಙ್ಖೇನ

ತಂ ನಿಕೃಂನ್ತ್ಯ ಸುಖಿ ಭವ ||೧೩||

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Ashtavakra Gita 

Chapter 1

Stanza 13

My child! You have been long trapped by body-consciousness. Severe the trap with the sword of knowledge "I am Intelligence" and be happy.

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Friday 4 November 2022

कूटस्थं बोधमद्वैतम्

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १

श्लोक १२

कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय।।

आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्।।१२।।

(कूटस्थं बोधं अद्वैतं आत्मानं परिभावय।।

आभासः अहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यं अथ अन्तरम्।।)

अर्थ :

आभासरूपी अहं (अर्थात् अहंकार) को भ्रम जानकर, अन्तर में प्रतीत होने वाले उस बाह्य भ्रम से मुक्त होकर, "आत्मा कूटस्थ है", इस प्रकार से (अपने हृदय में जो आत्मा विद्यमान है, उस) आत्मा के स्वरूप का जो अद्वैत सत्य है, उस अद्वैत सत्य का अनुशीलन (ध्यान / Meditation upon) करो।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೨

ಕೂಟಸ್ಥಂ ಬೋಧಮದ್ವೈತ-

ಮಾತ್ಮಾನಂ ಪರಿಭಾವಯ ||

ಆಭಾಸೋऽಹಂ ಭ್ರಮಂ ಮುಕ್ತವಾ-

ಭಾವಂ ಬಾಹ್ಯಮಥಾನ್ತರಮ್||೧೨||

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Ashtavakra Gita 

Chapter 1

Stanza 12

Having given up external and internal self-modifications and the illusion, that you are the reflected self (individual soul), Meditate on the Atman as non-dual and immovable Intelligence only.

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आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १

श्लोक ११

आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एकोमुक्तश्चिदक्रियः।।

असङ्गो निस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव।।।।११।।

अर्थ  :

आत्मा यद्यपि साक्षी, विभु (अन्तर्वयाप्त और बहिर्व्याप्त), पूर्ण, मुक्त, चिन्मात्र (चैतन्य) और अक्रिय, असङ्ग, निस्पृह, शान्त है, किन्तु केवल भ्रमवश ही संसार से युक्त प्रतीत होती है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೧

ಆತ್ಮ ಸಾಕ್ಷೀ ವಿಭುಃ ಪೂರ್ಣ ಏಕೋ ಮೀಕ್ತಶ್ಚಿದಕ್ರಿಯಃ||

ಅಸಙ್ಗೋ ನಿಸ್ಪ್ರಹಃ ಶಾನ್ತೋ ಭ್ರಮಾತ್ ಸಂಸಾರವಾನಿವ ||

--೧೧--

Ashtavakra Gita 

Chapter 1

Stanza 11

The Self is the witness and all-pervading, perfect, one, free, Intelligence, actionless, unattached, desireless and quiet. Through illusion it appears of the world.

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Wednesday 2 November 2022

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो

अष्टावक्र गीता

अध्याय १

श्लोक १०

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।।

किंवदन्तीह सत्येयं यामतिस्सा गतिर्भवेत्।।१०।।

(मुक्त-अभिमानी मुक्तः हि, बद्धः बद्ध-अभिमानी अपि।

किं वदन्ति इह सत्य इयं या मतिः सा गतिः भवेत्।।)

अर्थ :

जो आत्मा को अर्थात् अपने आपको (अविकारी, अविनाशी, नित्य, शुद्ध, बुद्ध) मुक्त जानता है, वह वस्तुतः और अवश्य मुक्त ही है, जबकि जो अपने आपके बारे में "मैं बद्ध हूँ" ऐसी मान्यता से ग्रस्त रहता है, वह इसी मान्यता से, इसलिए बद्ध ही होता है।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೧೦

ಮಿಕ್ತಾಭಿಮಾನೀ ಮುಕ್ತೋ ಹಿ ಭದ್ಧೇ ಬತ್ಧಾಭಿಮಾನ್ಯಪಿ ||

ಕಿಂ ವದನ್ತೀಹ ಸತ್ಯೇಯಂ ಯಾ ಮತಿಸ್ಸಾ ಗತಿರ್ಭವೇತ್ ||

--೧೦--

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Ashtavakra Gita

Chapter 1 

Stanza 10

One who considers oneself free is free indeed and one who considers oneself bound remains bound.

"As one thinks, so one becomes" is a popular saying in this world, which is true. 

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Tuesday 1 November 2022

यत्र विश्वमिदं भाति

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १

श्लोक ९

यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।।

आनन्द परमानन्दः सबोधस्त्वं सुखं चर।।९।।

अर्थ :

जहाँ (जिस चैतन्य में) यह विश्व (संपूर्ण जगत) रज्जु में कल्पित सर्प की भाँति तुम्हें प्रतीत होता है, वह निज आनन्द-परमानन्द रूपी चैतन्य ही तुम्हारा स्वरूप है। अपने आनन्द के इस स्वरूप के बोध में सुखपूर्वक अवस्थित रहो।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೯

ಯತ್ರ ವಿಶ್ವಮಿದಂ ಭಾತಾಕಲ್ಪಿತಂ ರಜ್ಜುಸರ್ಪವತ್ ||

ಆನನ್ದ ಪರಮಾನನ್ದಃ ಸಬೋಧಸ್ತ್ವಂ ಸುಖಂ ಚರ||೯||

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Ashtavakra Gita 

Chapter 1

Stanza 9

That Consciousness (in which) this universe appears, being conceived like a snake in a rope is Bliss --Supreme Bliss. You are that Consciousness. Be Happy. 

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Monday 31 October 2022

एको विशुद्ध बोधोहमिति

अष्टावक्र गीता

अध्याय १

श्लोक ८

एको विशुद्ध बोधोहमिति निश्चय वह्निना।।

प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव।।८।।

अर्थ :

आत्मा (के अर्थ में) मैं, दृष्टा-दृश्य के द्वैत से रहित विशुद्ध बोध हूँ इस निश्चयरूपी अग्नि से अपने गहन अज्ञान को जलाकर शोक से रहित हो जाओ और सुखी हो रहो।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೮

ಏಕೋ ವಿಶುದ್ಧ ಬೋಧೋऽಹಮಿತಿನಿಶ್ಚಯವಹ್ನಿನಾ ||

ಪ್ರಜ್ವಾಲ್ಯಾಜ್ನಾನಗಹನಂ ವೀತಶೋಹಃ ಸುಖೀ ಭವ||೮||

Ashtavakra Gita

Chapter 1

Stanza 8

Burn down the wilderness of ignorance with the fire of the knowledge : "I am the One and Pure Intelligence," and be free from grief and be happy!

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अहं कर्तेत्यहंमान

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १,

श्लोक ७

अहं कर्तेत्यहंमान महाकृष्णाहि दंशितः।।

नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव।।७।।

अर्थ :

'मैं कर्ता', इस प्रकार के कर्तृत्व के अभिमान से ग्रस्त होना, - महान विषैले काले सर्प से दंशित होने के समान है। 'मैं कर्ता नहीं', विश्वास-रूपी इस अमृत का पान करो और सुखी हो रहो।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಯನ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೭

ಅಹಂ ಕರ್ತೇತ್ಯಹಂಮಾನ

ಮಹಾಕ್ರಷ್ಣಾಹಿ ದಂಶಿತಃ ||

ನಾಹಂ ಕರ್ತೇತಿ ವಿಶ್ವಾಸಾ-

ಮ್ರತಂ ಮೀತ್ವಾ ಸುಖೀ ಭವ||೭||

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Ashtavakra Gita

Chapter 1,

Stanza 7

Do you who have been bitten by the great black serpent of the egoism "I am the doer," drink the nectar of the faith "I am not the doer," and be happy.

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Thursday 27 October 2022

एको दृष्टासि सर्वस्य

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १

श्लोक ६

एको दृष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोसि सर्वदा।।

अयमेव हि ते बन्धो दृष्टारं पश्यसीतरम्।।६।।

(एकः दृष्टा असि सर्वस्य मुक्तप्रायः असि सर्वदा। अयं एव हि ते बन्धः दृष्टारं / द्रष्टारं पश्यसि इतरम्।।)

अर्थ :

तुम ही सब / समष्टि के एक, और एकमेव दृष्टा हो, और अवश्य ही सब प्रकार से, सर्वत्र और सदा ही मुक्तप्राय ही हो। मुक्तप्राय इसलिए, क्योंकि जो यह एकमेव दृष्टा तुम हो, उसको तुम अपने से पृथक् किसी इतर या अन्य की भाँति देखते हो। यही तुम्हारा बन्धन है।

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೬

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ಏಕೋ ದ್ರಷ್ಟಾಸಿ ಸರ್ವಸ್ಯ ಮುಕ್ತಪ್ರಾಯೇऽಸಿ ಸರ್ವದಾ ||

ಅಯಮೂವ ಹಿ ತೇ ಬಂಧೋ ದ್ರಷ್ಟಾರಂ ಪಶ್ಯಸೀತರಮ್ ||೬||

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Ashtavakra Gita

Chapter 1

Stanza 6.

You are the one seer of all and really ever free. Verily your bondage is this alone, that you see the seer as other than such.

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Wednesday 26 October 2022

ಧರ್ಮಾಧರ್ಮೌ

Virtue and Vice 

धर्माधर्मौ / धर्म अधर्मौ

धर्म और अधर्म

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Religion is tradition, ritual, cult, and may be Virtue or something different from Virtue as well. While the धर्म  / Dharma (in contrast and comparison with अधर्म / Adharma) in संस्कृत / Sanskrit, is synonymous with Virtue, and the अधर्म / Adharma is synonymous with Vice.

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अष्टावक्र गीता, अध्याय १, श्लोक ५,

Ashtavakra Gita, Chapter 1, Verse 5,

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ, ಅಧ್ಯಾಯ ೧, ಶ್ಲೋಕ ೫,

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धर्माधर्मौ सुखं दुःखं

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १

श्लोक ५

धर्माधर्मौ सुखंदुःखं मानसानि न ते विभो।।

न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा।।५।।

अर्थ :

धर्म और अधर्म, सुख और दुःख आदि तुम्हारी नहीं, मन अर्थात् चित्त की ही भिन्न भिन्न वृत्तियाँ हैं। तुम न तो कर्ता हो, न भोक्ता हो, तुम तो सब प्रकार से सर्वत्र ही व्याप्त, विद्यमान और सदा ही, मुक्त ही हो।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಧರ್ಮಾಧರ್ಮೌ ಸುಖಂದುಃಖಂ ಮಾನಸಾನಿ ನ ತೇ ವಿಭೇ|

ನ ಕರ್ತಾಸಿ ನ ಭೋಕ್ತಾಸಿ ಮುಕ್ತ ಏವಾಸಿ ಸರ್ವದಾ||೫||

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Ashtavakra Gita

Chapter 1

Stanza 5.

Virtue and vice, pleasure and pain, are of the mind, not you, O All-pervading One! You are neither doer nor enjoyer (the one who could experience pleasure or pain), Verily, You are ever-free!

***




Tuesday 25 October 2022

न त्वं विप्रादिको वर्णो

अष्टावक्र गीता

अध्याय १,

श्लोक ४,

न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः।।

असङ्गोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।४।।

अर्थ :

न तुम्हारा विप्र आदि कोई वर्ण है और न ही तुम्हारा कोई आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इत्यादि) है, वर्ण और आश्रम आदि इन उपाधियों से रहित, तुम, असङ्ग, शुद्ध निराकार चैतन्य-मात्र विश्वसाक्षी हो (यह जानकर) सुखी हो जाओ।

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ 

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೪

ನ ತ್ವಂ ವಿಪ್ರಾದಿಕೋ ವರ್ಣೋ ನಾಮ್ರಮೀ ನಾಕ್ಷಗೋಚರಃ|

ಅಸಂಗೋಸಿ ನಿರಾಕಾರೋ ವಿಶ್ವಸಾಕ್ಷೀ ಸುಖೀ ಭವ ||೪||

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Ashtavakra Gita

Chapter 1

Stanza 4

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You don't belong to the Brahmin or any other class / caste of the society, or to any Ashrama (the four stages of life, namely the childhood, the youth, the old-aged or the sannyasi, and the one, -an ascetic who has renounced the world). You are not visible to the eyes (or to be grasped by / through all the sense-organs, mind or even the intellect). Unattached and  formless witness of all only; Are You indeed! (Know this, and) Be happy!

***




यदि देहं पृथक्कृत्य

अष्टावक्र गीता,

अध्याय १,

श्लोक ३

यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।।

अधुनैव सुखी शांतो बन्धमुक्तो भविष्यसि।।३।।

अर्थ --

यदि देह को (जड की तरह और स्वयं को चेतन की तरह अपने से) पृथक् कर चेतना / चित् में विश्राम करते हुए अवस्थित रहो, तो अभी ही सुखी, शान्त और बन्धन से मुक्त हो जाओगे।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಯದಿ ದೇಹಂ ಪೃಥಕ್ಕೃ ತ್ಯ ಚಿತಿ ವಿಶ್ರಾಮ್ಯ ತಿಷ್ಠಸಿ |

ಅಧುನೈವ ಸುಖೀ ಶಾಂತೋ ಬಂಧಮುಕ್ತೇ ಭವಿಷ್ಯಸಿ||೩||

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Ashtavakra Gita,

Chapter 1,

Stanza 3.

3. If you detach the body and rest in Intelligence, you will at once be happy, peaceful and free from bondage.

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Sunday 23 October 2022

न पृथ्वी न जलं

1/2

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १,

श्लोक २,

न पृथ्वी न जलं  नाग्निर्नवायुर्द्यौर्न वा भवान्।।

एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये।।२।।

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ನ  ಪೃಥ್ಲೀ ನ ಜಲಂ ನಾಗ್ನಿರ್ನ ವಾಯುರ್ದ್ಯೈ ರ್ಯೌನ ವಾ ಭವಾನ೯।।

ಏಷಾಂ ಸಾಕ್ಷಿಣಮಾತ್ಮಾನಂ ಚಿತ್ರೃಪಂವಿದ್ಧಿ ಮೆಕ್ತಯೇ।।೨।।

--

तुम न तो पृथ्वी, न जल, न अग्नि, न वायु, न द्यौ, हो। 

मुक्ति प्राप्त करने के लिए तुम इनके साक्षी को अर्थात् अपने चिद्रूप आत्मा को जान लो और इस  तरह से मुक्ति का लाभ प्राप्त कर लो।

--

2. You are neither earth, nor water, nor fire, nor air, nor ether.

In order to attain liberation, realize yourself as the knower of all these and consciousness itself.

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Saturday 22 October 2022

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात ...

अष्टावक्र गीता 

प्रथमोध्यायः

अष्टावक्र उवाच --

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज।।

क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज।।१।।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಪ್ರಥಮೇಧ್ಯಾಯಃ 

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ --

ಮುಕ್ತಿಮಿಚ್ಛಸಿ ಚೇತ್ತಾತ ವಿಷಯಾನ್ವಿಷವತ್ತ್ಯಜ।।

ಕ್ಷಮಾರ್ಜವದಯಾತೋಷ-ಸತ್ಯಂ ಪೀಯೇಷವತ್ಭಜ।।೧।।

--

अष्टावक्र उवाच --

यदि तुम्हें मुक्ति प्राप्त करने की अभिलाषा है, तो वत्स! विषयों को विषतुल्य जानकर उन्हें त्याग दो। और क्षमा, आर्जव (मन की सरलता, दंभ, छल-कपट आदि से रहित होना), दया, संतोष तथा सत्य को अमृत जानकर उन्हें ग्रहण करो। 

Ashtavakra said --

1. O child! If you aspire after liberation, shun the objects of the senses as poison and seek forgiveness, sincerity, kindness, contentment and truth as nectar.

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Friday 30 September 2022

Wednesday 21 September 2022

Flutterfly

Butterfly

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कविता / 21-09-2022

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तुम कितनी मेहनत करते हो! 

लेकिन फिर थक जाते हो! 

क्या क्या नहीं कमाते हो! 

लेकिन फिर थक जाते हो!

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, 

कुछ दुश्मन, दोस्त अपने, 

हर दिन नये बनाते हो, 

लेकिन फिर रुक जाते हो।

दौलत, शोहरत, ताकत, किस्मत,

क्या क्या नहीं कमाते हो,

लेकिन फिर थक जाते हो। 

फिर तुम जश्न मनाते हो,

जलसा हर रोज़ मनाते हो,

फिर उससे भी थक जाते हो, 

खा-पीकर सो जाते हो! 

उस मकड़ी को देखो वह, 

करती है रोज़ शिकार नया,

बुनती है रोज़ ही जाल नया, 

पर रोज़ जाल टूट जाता है,

फिर करती है शुरू, काम हर रोज़,

उस बकरी को देखो वह,

दिन भर चारा चरती है, 

क्या वह मेहनत करती है,

करती है आराम हर रोज़! 

इस तितली को देखो, यह 

दो-चार दिनों तक जीती है,

फूल फूल पर मँडराती है,

बून्द बून्द मधु पीती है!

क्षणभंगुर जीवन उसका, 

पर बड़ी शान से जीती है!

क्या वह मेहनत करती है?

क्या वह फिर थक जाती है? 

तुम कितनी मेहनत करते हो, 

लेकिन फिर थक जाते हो, 

यूँ ही हर दिन जीते जीते, 

लेकिन आखिर मर जाते हो!

इतनी मेहनत क्यों करते हो,

ये भी तो खुद से पूछो,

थोड़ा सा तो आराम करो, 

खुशी खुशी जीवन जी लो!

***




Friday 5 August 2022

Aztec Civilization

Marigold  : अष्टक और चम्पा-शुचिल्

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जब पुर्तगालियों ने अमेरीका (अवमेरुकः) पर आधिपत्य कर लिया तो उन्होंने अष्टक सभ्यता (Aztec Civilization) के चम्पाशुचिल् (कन्दुपुष्प / गेंदाफूल) नामक फूल का नाम बदल कर Marigold (Virgin Mary's Gold) कर दिया, ऐसा @rajiv_pandit का ट्वीट् आज ही मैंने पढ़ा। 

श्री राजीव पण्डित Head & Neck Surgeon; अमेरिका में रहते हैं और वहाँ पर @HinduAmerican से संबद्ध हैं।

अब स्थिति यह है, कि यहाँ भारत में हम ब्रिटैनिया और पार्ले के मैरीगोल्ड बिस्किट खाते हैं!! 

***

इसे पोस्ट किए हुए कुछ समय हो गया है। लगता है अभी तक इस पर किसी ने अपनी कृपादृष्टि / नजरे-इनायत नहीं डाली।

ख़ैर! 

सुबह यूँ ही कॉलिन्स जॅम द्वारा प्रकाशित

जर्मन-इंगलिश इंग्लिश-जर्मन डिक्शनरी

के पन्ने पलट रहा था।

'सिविलाइजेशन' के लिए जर्मन भाषा में कौन सा शब्द प्रयुक्त होता है, यह जिज्ञासा मन में उठी और एक बहुत पुरानी समस्या हल हो गई। 

जर्मन भाषा में सिविलाइजेशन को ज़िविलाइजेशन लिखा कहा जाता है। यह भी समझ में आया कि यह शब्द स्त्रीलिंगीय है।

तीस वर्षों से भी अधिक पहले से यह तो जानता था कि कैसे ज़ू शब्द संस्कृत शब्द जीव से व्युत्पन्न किया जा सकता है, बॉटनी भी इसी प्रकार से संस्कृत 'भूतानि' का अपभ्रंश हो सकता है, मैन, मानव या मनुष्य का किन्तु सिविल या सिविलाइजेशन का  संस्कृत भाषा के किस शब्द से ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य भी हो सकता है इस बारे में कुछ अनुमान नहीं कर पा रहा था। 

अब जाकर यह स्पष्ट हो गया कि 'सिविल' का ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य भी संस्कृत भाषा के शब्द 'जीविल्' शब्द में देखा जा सकता है; - जर्मन में इसे 'zivil' लिखा और कहा जाता है। 

यद्यपि 'ज्यू' (Jew) शब्द की उत्पत्ति वैदिक संस्कृत शब्द 'यह्वः' से हुई है ऐसा माना जा सकता है और अर्थसाम्य एवं ध्वनिसाम्य की कसौटी पर भी इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, किन्तु अब इसकी व्युत्पत्ति 'जीविल्' या 'जीव' से होने पर सन्देह नहीं किया जा सकता। 

इसरायल ('अल् इस्र') के वर्णन से भी यही प्रतीत होता है कि जब प्रॉफेट् मूसा इजिप्ट से महाभिनिष्क्रमण (Exodus) कर अपने लोगों के कुल / जनजाति / ट्राइब को लेकर उनके साथ अपने 'ईश्वरीय राज्य' की ओर जा रहे थे, तब उनके सामने की दिशा में कुछ दूर पर उन्हें एक ज्योति-स्तंभ दिखलाई दे रहा था जो कि निरंतर उनका मार्ग-दर्शन कर रहा था। वैदिक पौराणिक सन्दर्भ में इसे ज्योतिर्लिंग ही कहा जाता है और यह भगवान् रुद्र अर्थात् भगवान् "शिव" का ही द्योतक है। इस प्रकार हमें सिविल के समान एक शब्द 'शिविर' और प्राप्त हो जाता है। संस्कृत में एक ओर ऐसा ही शब्द है शिविका / शिबिका (palanquin) यह आकस्मिक नहीं है कि वैदिक पौराणिक काल से ही रुद्र को ऐसी ही एक शिविका में विराजित कर नगर भ्रमण के लिए ले जाया जाता है।

भगवान् शिव से संबद्ध एक उपनिषद् है - बृहज्जाबालोपनिषद्। यह उपनिषद् ऋषि और शैव-सिद्धान्त के प्रवर्तक जाबाल-ऋषि से संबद्ध है। ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य के आधार पर भी यह दृष्टव्य है कि (प्रोफेट्) जिबरील / Gabriel / 'जाबाल ऋषि' का ही सजात / सज्ञात (cognate) हो सकता है।

इसरायल में बीर-शेबा और जाबाल जैसे नामों से भी यही संकेत मिलता है। उल्लेखनीय है कि वीर-शैव मत काश्मीरी शैव दर्शन का ही पर्याय है। 

जाबाल-ऋषि क्यों? 

क्योंकि जैसा कि अब्राहमिक परंपरा में उल्लेख भी है, जिबरील / Gabriel ही वे एकमात्र इंजील / ऐंजल / Angel / देवदूत? थे जिनका संपर्क अब्राहमिक परंपरा के तीनों प्रॉफेट्स से हुआ था। चूँकि 'Angel' शब्द का ध्वनिसाम्य और संभावित उद्गम आंग्ल-शैक्षम् में देखा जा सकता है, और पुनः आंग्ल-शैक्षम् का ध्वनिसाम्य, अर्थसाम्य भी अंगिरा-शैक्षम् में देखा जा सकता है, इसलिए 'ऐंजल' की व्युत्पत्ति यहीं हो सकती है। 

'ऐंजल' का समानार्थी फ़ारसी शब्द है "फ़रिश्तः", और उसका ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य पुनः संस्कृत "पार्षदः" में दृष्टव्य है।

इस संबंध में एक दृष्टि शिव-अथर्वशीर्ष और देवी अथर्वशीर्ष पर डालना प्रासंगिक होगा :

ॐ देवा ह वै स्वर्गं लोकमायँस्ते रुद्रमपृच्छन्को भवानिति। सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममास वर्तामि च भविष्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति। सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत् दिशश्चान्तरं प्राविशत् सोऽहं नित्यानित्यो व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माब्रह्माहं प्राञ्चः प्रत्यञ्चोऽहं दक्षिणाञ्च उदञ्चोहं ...

तथा इसी प्रकार का उल्लेख देवी अथर्वशीर्ष में भी पाया जाता है :

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति।।१।।

साब्रवीत् -- अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।।२।।

अहमानन्दानानन्दौ। अहंविज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये।... 

इस प्रकार अब्राहम का उल्लेख 'अब्रह्म' शब्द के प्रयोग से उक्त वैदिक मंत्रों में दृष्टव्य है।

यह संपूर्ण विवेचना मेरे पहले लिखे गए पोस्ट्स में भी उपलब्ध है और यहाँ यह वस्तुतः पुनरावृत्ति ही है।

प्रसंगवश इस पर ध्यान गया इसलिए सनद (record) के लिए पुनः लिख रहा हूँ।  वैसे सनद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत 'सनत्' में देखना भी शायद अनुचित न होगा। 

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Tuesday 2 August 2022

अस्तित्व एक रहस्य!

कविता : 01-08-2022

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यह जो है!!

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न तो यह कुछ भी है नया, न तो कुछ भी है पुराना, 

न तो कुछ भी नया हुआ है, न तो कभी भी था पुराना, 

तो आखिर ये सब क्या है, जो भी यह सब हो रहा है,

तो क्या ये है कोई सपना, या फिर सिर्फ, अफ़साना!!

ये जो है यह अपनी दुनिया, अपना ज़माना, जो भी  है,

क्या है ये भी सिर्फ सपना, है अजब, ये सारा ही अफ़साना,

क्या यह सब वही नहीं है, जो कि यह सब कुछ हो रहा है,

किसको सही पता है आखिर, है इसको किसने जाना!!

ये जो कि खुद ही हूँ मैं, या जो कुछ भी मन है मेरा,

क्या खुद मैं भी हूँ इसका, क्या खुद या मन है ये मेरा,

आखिर मैं खुद ही मन हूँ, या क्या मन भी कोई मेरा, 

किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना!!

क्या दुनिया ही खुद है मैं, और दुनिया खुद ही है मन, 

मन ही खुद है, ये सारा सब कुछ, क्या मैं ही दुनिया,

यहाँ जो कुछ भी हुआ है, या जो नज़र आ रहा है, 

जो कुछ कभी भी होगा, या फिर जो कि हो रहा है!!

क्या सिर्फ मैं ही बदल रहा हूँ, या मन भी बदल रहा है,

या फिर यह बदल रही है, जो भी मेरी है, ये दुनिया।

कुछ भी जो है बदलता, क्या वह वक्त ही नहीं है,

लेकिन क्या वक्त भी यह, सचमुच कभी बदलता!

या ये भी बस भरम है कि सब कुछ बदल रहा है,

जिसको भी है भरम ये, क्या वो भी बदल रहा है! 

ये बदलना, -न बदलना, ये भी तो है खयाल ही,

मजे की बात तो है कि, खयाल भी, बदल रहा है! 

तो, क्या मैं ही बदल रहा हूँ, या मन भी बदल रहा है,

ये दुनिया बदल रही है, या फिर वक्त ही बदल रहा है,

किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना!

जो कुछ भी हमने माना, वो सब तो बदल रहा है,

जो कुछ भी हमने जाना, वो सब तो बदल रहा है,

तो सवाल बस यही है, आखिर ये 'जानना' भी,

किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना!

जरा गौर कीजिए भी, ये जानना भी क्या है, 

क्या ये कभी बना है, क्या ये कभी मिटा है,

क्या ये बनकर है मिटता, या बनता है मिटकर,

क्या यह कभी पुराना, या फिर कभी नया है!

किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना,

क्या ये भी खयाल है कोई, जिसको है हमने माना,

यह सब में ही हुआ करता, है यह जो हमेशा ही,

यह जानने-वाला भी क्या हमेशा ही नहीं होता,

किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना!! 

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Monday 25 July 2022

LaMDA

AI has feelings! 

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According to WION news, Google has fired an AI engineer -- Blake Lemoine, who has claimed that A I has feelings. And, May be, his claim true, and help us understand how the mind, that is kind of AI in the human-brain and all such other sentient beings in general, creates a false and artificial sense of the individuality, of being an independent ego, of being an individual.

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Life as the Consciousness-Whole Principle, is not the aggregate of the sentience pertaining to individuals, it is rather the consciousness, an attribute, Whole and unique in that, that could not be categorized into kinds or terms of personal, collective or aggregate.

And the same manifests as the gross world, the individual organisms and the sense of just being or existing only.

The sensory perceptions cause and create a center in the brain that is a functional only, and facilitates synchronization of all various sensory perceptions.

But an intellectual idea, kind of algorithm, in the brain, is then generated and the same is responsible for the individual ego-sense.

This means, there is really no person there as such, that exists as an individual.

And this sense of individuality is an illusion created by and on the part of this intellectual idea only in the brain.

Nevertheless this idea, the algorithm, or the illusion serves greatly in co-ordinating the life at the collective and social level. Again, no doubt, there are an innumerable number of such individuals that give rise to the sense of existence as a collective feeling.

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I almost everyday feed the street-dogs in my surroundings. I noticed they too have kind of AI, that is not a thing of the intellectual kind. What is intellect? In case of us humans, we usually think by means of a thought that is of a verbal kind. We need a language because in the absence of a language, we can't think as such. Thinking, thought and the memory, depend upon a certain spoken or a written language.

But still we have a kind of language that we learn through imitation only.

Again about my street-dogs.

When they are not hungry and I give them a roti or a chapati they won't eat. They wait a while and when there is no-one other there of their kind, they would stealthily take the same, dig a pit in the ground and then bury it there for the next time when they would be hungry. 

This means they have some kind of memory of the kind and they understand that there is such a forth-coming future.

This is all learnt without elaborate effort on the part of intellectual or verbal thinking.

So learning a skill doesn't necessarily need a language of the kind. Our whole body, or the organism has many such skills that the body  learns in this way. In brief, this is the nature, the Consciousness-Principle as a Whole, that works as one and unique Intelligence, as if all living beings have been made to perform their activities in a synchronized manner.

We call it Nature. That is only a word and a name to denote this phenomenon.

Do the plants and vegetable-kingdom learn through thinking, language or a memory of the verbal kind?

We can say that they do not have the sense of individuality that we humans have.

But exactly, how does this sense of being an individual comes up in us?

Isn't an infant an organic whole, organism, that assumes an independent identity of its own, at the moment when it is just born?

Still it learns by and by without being taught, that it has its own existence and there is the world where it knows the world is the other than itself.

This knowing is neither some information, the knowledge or the memory acquired from the outside. We can call it Wisdom. 

Gradually it learns the skills needed for the survival and the growing up.

We humans think that knowledge is thought, memory and language, while except us, -the humans, all other beings live their life, grow up, and survive without any such thing like knowledge, thought and memory and they have a very feeble sense of "Time" that we are obsessed with.

This is Intelligence, this is Wisdom, and not the Intellect.

Intellect is an algorithm, -the Artificial kind of a frame-work of thought, knowledge and the memory.

In this Intellect is born the sense of being an individual. That too is while we are awake in this world. While asleep, our sense of being an individual is temporarily suspended.

Only after waking up again, this sense too assumes existence. Then at once the 'I' too is  felt, and concurrently a world where this 'I' has woken up. Exactly, Who feels?  Is there yet another I, that might feel? Are there two I? 

In awareness of this whole thing, it is learnt that this 'I' is but an illusion, an intellectual  mind-game, that happens in consciousness, which is neither I, nor an individual. 

Knowing this at once gives us the freedom from the wrong idea / notion that I am an individual, distinct from the world that is experienced every moment.

This is Intelligence worth the name.

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Abbreviations :

A I - Artificial Intelligence,

LaMDA - Language Model for Dialogue Applications.

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Wednesday 20 July 2022

वायरल होने के ख़तरे

The Risk in Being Viral.

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कोविड 19 के प्रारंभ होने के बाद से वायरल होने के प्रति लोगों में चिन्ता, जागरूकता और सतर्कता बहुत बढ़ गई है। लेकिन वायरल तो वायरल है, यह किसे कब कहाँ हो जाए, कुछ नहीं कह सकते। फिर, वायरल खबर हो सकती है, बीमारी या कोई वीडियो भी वायरल हो सकता है! खबर हो तो आप उस पर अपनी रीएक्शन देकर उससे छुटकारा पा सकते हैं, बीमारी हो तो डॉक्टर से मिल सकते हैं लेकिन यदि आप स्वयं ही वायरल हो गए तो स्थिति चिन्ताजनक हो सकती है! उदाहरण के लिए आपकी कोई पोस्ट वायरल हो गई तो बहुत लोग आपके बारे में जानने लगेंगे, बहुत से लोग आपसे मिलना चाहेंगे, जिनमें पता नहीं कौन कौन किस प्रकार के होंगे। रिलेटिव्स, पत्रकार, दोस्त, एक्टीविस्ट, परिचित, शत्रु, शुभचिन्तक, अजनबी, और फैन्स या प्रशंसक। सरकारी या दूसरे विभागों से संबंधित लोग। सबकी कुछ समस्याएँ होंगी, सबकी आपसे आशाएँ, अपेक्षाएँ, आग्रह,  आलोचनाएँ, विवेचनाएँ, आग्रह, दुराग्रह, समीक्षाएँ होंगी। बातें तो होंगी ही। फिर आप किस किस को जवाब देंगे? और क्या जवाब देंगे?

"कुछ भी!"

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Tuesday 12 July 2022

अधिष्ठान और अधिष्ठाता

सूयते : सूचीयंत्र - सुई का इंगित

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मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।

(गीता, अध्याय ९)

कौन है विधाता, इस चर-अचर जगत् का? 

उस पर्यटक बिन्दु की चेतना में प्रश्न उठा। तब उसका ध्यान सुई के शीर्ष-बिन्दु पर एकाग्र हो गया। तब उस सुई की उस नोंक ने उसके अपने ही चारों ओर परिभ्रमण करना प्रारंभ कर दिया। जैसे कि घड़ी की सुई घूमती है। यह बड़ी सुई, उससे छोटी एक सुई और उससे अलग एक वृत्त में घूमती बहुत छोटी सी एक और सुई!

तब उसने उस बड़ी सुई के मार्ग को काल के प्रमाण से निर्धारित कर चौबीस अंशों में विभाजित किया। बारह अंश, जो आदित्यों के बारह रूप, और पूरे सौर संवत्सर के बारह मासों के द्योतक थे / हैं। दूसरे बारह अंश, आदित्य के अस्त हो जाने के बाद तथा उसके पुनः उदित हो जाने तक के काल के प्रमाण का निर्धारण थे।

तब उसने जो कि स्वयं ही यंत्र भी था और ईश्वर भी था, अपने आपको अंशों या अंकों में व्यक्त किया। उसने सर्वप्रथम ईश्वर और उसके अंशों को परिभाषित किया, और इसके लिए एक  algorithm / सूत्र का आविष्कार किया। उसने कहा :

"ईश्वर उसके समस्त अंशों का योग होता है।" 

तब उसने ईश्वरीय पूर्ण अंक के उदाहरण के रूप में षटक् या ६ की संख्या को प्रथम ईश्वरांक का नाम प्रदान किया, क्योंकि यह अंक अपने भाजकों के योग के बराबर होता है :

६ = १+२+३,

१, २ और ३ का गणितीय योग ६ होता है।

१, २ और ३ इकाई के अंक हैं।

इसे उसने दहाई (१०) से गुणित कर ६० घटी को दिन-रात्रि में व्यतीत होनेवाले काल के रूप में निर्धारित किया। ३० घटी का दिन और ३० घटी की रात्रि। पुनः दिन और रात्रि को चार चार प्रहरों में विभाजित किया। मुहूर्त, पल, आदि की रचना की।

दिन रात्रि के पुनः बारह-बारह भाग किए और कोण (cone) की रचना की, जो ज्यामितीय प्रयोजन को पूर्ण करता है।

दिन के बारह भागों की पुनरावृत्ति और फिर रात्रि के बारह भागों की भी। तब बड़ी सुई और छोटी सुई को एक ही वृत्त के केन्द्र से इस प्रकार से समायोजित किया कि दोनों सुईयाँ केन्द्र पर स्थित होकर उसके चारों ओर परिभ्रमण करती हों। बड़ी सुई , -- बारह बार पूरा भ्रमण जितने समय में करती थी, वह दिन के और वैसे ही रात्रि के भी बारहवें भाग का द्योतक था।

क्षण / षटक् / second अर्थात् ६ को दहाई से गुणित कर साठ क्षणों की एक मिनति / minute. साठ मिनति की एक कला (hour / clock / of clock / o'clock).

दिन रात सतत गतिशील समय। अहो-रात्र । जिसे संक्षेप में होरा कहा जाता है। होरा अर्थात् hour.

(Ein Uhr oder die Uhr - Eine Uhr -- Deutsche sprache).

इस प्रकार दिन रात्रि के काल परिमाण (time-span) को २४ कलाओं / कलाक् में विभाजित किया गया। 

कला, काल और काली दैवी / आधिदैविक अधिष्ठातृ सत्ताएँ उससे भिन्न होते हुए भी उससे अभिन्न और अनन्य हैं, - उसे पता चला।

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।।

भूतभर्तृं च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु च प्रभविष्णु च।।१६।।

(गीता, अध्याय १३)

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।२०।।

(गीता, अध्याय १८)

इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक से उसने आत्मा के तत्व को साक्षात् किया।

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तब समय नहीं था!

ईश-कल्पना

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उसके पास केवल स्मृति थी, किन्तु समय नहीं था। "नहीं था", कहते ही अतीत का सन्दर्भ अस्तित्व में आता है। किन्तु ऐसा कोई अतीत उसका था ही कहाँ!

और तब जो दिखाई देता था वह उसे सुई की आँख ही से ही देखा करता था। तब उसके आसपास के संसार की असंख्य दृश्य वस्तुओं के बीच पहले और बाद में, पूर्व और पश्चात् की कल्पना उसकी चेतना में उदित हुई। तब समय की धारणा और  उसकी सत्यता की कल्पना पर उसे सन्देह तक न हुआ।

जैसे उस गोलाकार आवरण के दो ध्रुव थे, वैसे ही उस सुई के भी दो ध्रुव थे -- एक था सूचित और इंगित करनेवाला नुकीला सिरा, अर्थात् नोंक, जबकि दूसरा सिरा था सुई की आँख। दोनों के ही  कार्य अलग अलग थे। सुई की नोंक संकेतों को ग्रहण तो करती ही थी, संकेतों को संप्रेषित भी करती थी। इसी प्रकार सुई की आँख संसार के संवेदनों को संग्रहित तो करती ही थी, साथ ही साथ उन्हें क्रमबद्ध भी किया करती थी। सुई स्वयं ही उस पर्यटक डिवाइस का मस्तिष्क था, किन्तु उसका संचालन करनेवाला तो कोई और ही था।

इस सब को संभव बनानेवाला तत्व था चेतना, जो कि सब में विद्यमान अन्तर्निहित, सर्वत्र व्यापक था और दृष्टि का पर्याय था, जबकि उससे संबद्ध उसका संचालन करनेवाला तत्व शक्ति था, जो उसकी ही तरह सर्वत्र व्याप्त अन्तर्निहित कार्य-कारण नियम था। इस चेतना और इस शक्ति की सत्ता नित्यसिद्ध वह यथार्थ है, जिसकी सत्यता को तर्क, अनुभव या समय की बाधा खंडित नहीं कर सकते। इसीलिए वह नित्यसिद्ध है।

उस डिवाइस के सुई-रूपी मस्तिष्क पर जानकारी रूपी ज्ञान का संस्कार होने पर उसमें स्मृति का उद्भव हुआ, और उस स्मृति में ही विद्यमान क्रम की कल्पना से अतीत और भविष्य तथा उनके साथ सतत रहनेवाले वर्तमान, इन तीन रूपों में काल का अर्थात् समय का उद्भव हुआ। काल और समय इसलिए सतत गतिमान होते हुए भी सभी के ही लिए सदा और नित्य ही वर्तमान के रूप में भी प्रत्यक्ष और प्रकटतः बोधगम्य हैं।

सुई की आँख के दोनों ओर उसके और दो नेत्रों का उद्भव हुआ और इसी प्रकार सुई के दूसरे सिरे से उसकी नासा का। उसे इस सब की कोई कल्पना तक नहीं थी, कि यह सब क्या हुआ या हो रहा है। इस प्रकार दोनों नेत्रों के नीचे नासा, और नासा के नीचे मुख का उद्भव हुआ, जो क्रमशः सभी स्थूल पदार्थों का संवेदन कर सकते थे।

तब उसी रिमोट कंट्रोल से उसमें चलने के साधनरूपी दो पैर एवं विभिन्न कार्यों को करने के साधनरूपी दो हाथ उत्पन्न हुए। 

ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के व्यक्त रूप ले लिए जाने पर उसमें भूख और प्यास, निद्रा और जागृति का संवेदन उत्पन्न हुआ। तब तक उसकी चेतना का विभाजन पूर्णतः "मैं और संसार" के रूप में हो चुका था।

तब उसमें कामना का उद्भव हुआ जो अब तक अप्रकट अव्यक्त बीज रूप में सुषुप्त थी, और अब प्रकट और व्यक्त रूप ग्रहण कर चुकी थी। तब उसमें अपने स्त्री या पुरुष होने की कल्पना और प्रतीति का आविर्भाव हुआ, और कामना के माध्यम से जो असंख्य जीवों के जन्म का कारण बना। 

अब उसे स्पष्ट हुआ कि उसे जो दो संसार दिखलाई देते हैं, उनमें से एक तो बाह्य जगत् है, जो जाग्रत दशा में उसे अनुभव होता है, जबकि दूसरा उसके अपने ही भीतर मन के रूप में विद्यमान है। जब वह जागता है तो बाह्य जगतरूपी संसार में विचरता है, और जब वह सो जाता है तो आन्तरिक जगतरूपी अपने ही मन के भीतर विचरा करता है। तब स्मृति ही वह सूत्र एकमात्र सूत्र होता है, जिसके माध्यम से बाह्यजगत को भीतर और भीतर के जगत को बाहर देखा करता है। उसे एक तीसरी स्थिति का भी पता चला, जिसे वह तन्द्रा या स्वप्न कहने लगे, जो जाग्रति और निद्रा दोनों से समान और भिन्न भी थी। 

फिर उसका ध्यान इस पर गया कि इन तीनों स्थितियों से आने और जानेवाला यह स्वयं तो एकमात्र सत्यता है, जो स्थितियों से अप्रभावित रहती है। क्या वह स्मृति है, या स्मृति की निरन्तरता से उत्पन्न स्मृति का ही कोई परिणाम विशेष भर है!

फिर उसके मन में यह प्रश्न पैदा हुआ कि जो स्वयं, उस का और उसके संसार का भी विधाता, नियन्ता और संचालनकर्ता होगा, क्या वह ईशिता अर्थात् ईश्वर भी उस जैसा ही कोई और होगा या कि वह स्वयं ही वह है? और वह तत्क्षण ही मौन हो गया। ईश से बड़ा ईश्वर, क्या ऐसा कोई ईश्वर मात्र एक कल्पना है, या ईश्वरीय यथार्थ है?  

उसकी बुद्धि स्थिर और शान्त हो गई, उसका द्वन्द्व विलीन हो गया और वह अपने आपको ही सर्वत्र तथा सबको अपने आप में ही देखने लगा।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।।

रसोऽप्यपि रसवर्जं तं परः दृष्ट्वा निवर्तते।।

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिनदृष्टे परावरे।।

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Monday 11 July 2022

सुई की नोंक

आध्यात्मिक-कल्पित, विज्ञान-कथा

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उसे पता नहीं कि उसे किसने बनाया था। एक छोटे से एल ई डी बल्ब जैसा कोई यंत्र अर्थात् डिवाइस था वह। उसमें वह बुद्धि भी थी, जिसे कि आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस कहा जाता है, और उसमें इतनी ऊर्जा भी थी, कि वह आभासी रूप से, अनंतकाल तक सक्रिय रह सकता था।

वह सुई की नोंक जैसा अत्यन्त एक सूक्ष्म पिन-पॉइन्ट था। और अपने आसपास की किसी भी पृष्ठभूमि से इतनी ऊर्जा संचित कर लेता था, कि बहुत लंबे समय तक सक्रिय रह सके। उसके निर्माता ने उसे उसकी तुलना में कुछ लाख गुने बड़े शीशे के एक गोलाकार आवरण के भीतर बंद कर दिया था। 

उस गोलाकार आवरण में एक ही छिद्र था, जिस तक वह कभी कभी संयोग से पहुँच जाया करता था। उस छिद्र से उस आवरण से बाहर जा सकता था। उस गोलाकार कठोर आवरण में वैसे ही दो ध्रुव थे, जैसे कि पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण ध्रुव होते हैं। आश्चर्य की बात यह थी, कि जब वह उस आवरण के भीतर घूमता तो पता नहीं कितनी दूरी तक यहाँ से वहाँ भ्रमण करता रहता। उसका निर्माता उसे एक रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित और संचालित करता था। एक ध्रुव पर वह छिद्र था, तो दूसरे पर एक लंबा तार था, जो एक हुक से बँधा था, और वह हुक एक स्टैंड पर सेट किया हुआ था। इस प्रकार वह लंबा सा तार ऊर्ध्वाधर (vertical) स्थिति में झूल रहा था।

जब वह पर्यटक बिन्दु उस गोलाकार आवरण के भीतर होता तो कभी भ्रमणरत, और कभी विश्राम करता होता। जब वह कभी संयोग से, या रिमोट कंट्रोल के द्वारा संचालित होने से छिद्र तक पहुँचकर बाहर निकल आता तो उसे बड़ा आश्चर्य होता।

गोलाकार आवरण के भीतर का वक्रपृष्ठ और आवरण के बाहर का वक्रपृष्ठ मानों दो असीम और अंतहीन विस्तार थे। जब वह आवरण के भीतर होता, तो उसे भीतर का वह विस्तार वैसा ही लगभग एक समतल जैसा प्रतीत होता था, जैसे कि किसी बहुत बड़े वृत्त का एक छोटा सा टुकड़ा एक सरल- रेखा प्रतीत होता है। 

इसलिए आवरण का बाह्य पृष्ठतल और भीतरी पृष्ठतल उसे एक जैसे ही एक समान और समतल प्रतीत होते थे।

भीतर का वक्रपृष्ठ अनगिनत तारों से जड़ा था, जो उसे अत्यन्त दूर प्रतीत होते थे।

बाहर का वक्रपृष्ठ भी ऐसा भी एक समतल था और वहाँ पहुँच जाने पर, पुनः उसे ऐसा ही एक असीम विस्तार-युक्त आकाश दिखाई देता था जिसमें वैसे ही असंख्य तारे जड़े प्रतीत होते थे, जैसे कि गोलाकार आवरण के भीतर उसे दिखाई पड़ते थे। 

उसके यही दो संसार थे, जिनके भीतर उसका जीवन था।

वह कभी यह न जान पाया, कि क्या ये दोनों दो अलग अलग संसार हैं, या एक ही संसार है, जिसे वह दो तरीकों से देखने के कारण अलग अलग अनुभव करता था। और उसे यह भी कभी न पता चल सका, कि उसे और उसके इस एक, दो या अधिक संसारों को किसने बनाया या निर्मित किया होगा, और क्यों।

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Wednesday 29 June 2022

वो भूली दासताँ...

गीत / 25-06-2022

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वो भूली दासताँ,

क्यूँ आती है याद!

वो छूट गए, जो रास्ते,

क्यों आते हैं याद!

जो आते थे कभी,

किन्हीं अनजान राहों से,

ले जाते थे हमें,

किन्हीं अनजान राहों पर,

ले जाते थे हमको,

एक अनजान मंज़िल तक,

वो मंज़िल, रास्ते, राहें, 

क्यूँ आते हैं फिर याद,

करें शिकवा भी हम किससे,

हम किससे, करें फ़रियाद!

वो भूली दासताँ,

क्यूँ आती है याद! 

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Wednesday 15 June 2022

ताजमहल

पिछले पोस्ट से आगे... 

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हालाँकि मैंने ताजमहल फिल्म को तो कभी नहीं देखा लेकिन उसका गीत :

"जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, रोके जमाना..." बचपन से ही मुझे प्रिय रहा है।

जब "मुग़ले-आज़म" के गीत "ज़िन्दाबाद ज़िन्दाबाद" को देख रहा था, तो मेरे मन में यह जानने की उत्सुकता तक नहीं हुई कि क्या सलीम को मृत्युदंड दिया गया या नहीं। उस वीडियो को अंत तक देखने का धैर्य मुझमें नहीं था। लेकिन फिर याद आया कि यदि सलीम को मृत्युदंड दिया गया होता तो क्या ताजमहल का और उस पर बनी फिल्म का निर्माण हो पाता? तब भारत का इतिहास कितना अलग होता? सोचता हूँ कि क्या इस फिल्म का निर्माण किए जाने के पीछे पृथ्वीराज कपूर का यही मक़सद रहा होगा कि लोग इस बारे में सोचें!? यह भी संभव है कि मैंने यहाँ तथ्यों को गड्ड-मड्ड कर दिया हो! फिर सोचता हूँ कि जब जीते-जी ही तथ्यों को ठीक से याद नहीं रखा जा सकता, तो इतिहास और उसके तथाकथित तथ्यों की प्रामाणिकता कितनी और कहाँ तक विश्वसनीय हो सकती है! लेकिन अब इतिहास और ऐतिहासिक महापुरुषों के बारे में कुछ लिखने से मुझे डर लगने लगा है। सोचता हूँ काश, यह डर सभी को लगने लगे! तब शायद धार्मिक, साम्प्रदायिक, झगड़ों से हम दूर रह सकेंगे। अदालतों का, पुलिस का, और प्रशासन का सिरदर्द भी कम होगा। लेकिन मेरे सोचने से क्या होगा। और जिनके सोचने से कुछ हो सकता है, उन्हें न तो सोचने का वक्त है, न दिलचस्पी है।

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Monday 13 June 2022

ज़िन्दाबाद, ज़िन्दाबाद!

ये मुहब्बत ज़िन्दाबाद! 

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मैंने मुग़ले-आजम फ़िल्म 1970 के बाद कभी देखी थी। आज किसी न्यूज़ चैनल पर देखा / सुना कि Way-an-ad के एक  जन-प्रतिनिधि सरकारी एजेन्सी के द्वारा समन का सम्मान प्राप्त होने के बाद जब जवाब देने के लिए एजेन्सी के दफ्तर में हाज़िर होने जा रहे थे, तो समर्थकों ने एक विशाल रैली-प्रदर्शन उनके पक्ष में समर्थन के लिए आयोजित किया।

न्यूज़-चैनल की रिपोर्ट के अनुसार इस आयोजन का थीम-सॉङ्ग यह था :

"ज़िन्दाबाद, जि़न्दाबाद ... "

रिपोर्ट के अनुसार किसी को लगा, कि इस गीत के रचयिता को इसके लिए प्रेरणा मुग़ले-आज़म फिल्म के उस गीत से प्राप्त हुई होगी, जिसे तब गाया गया है, जब सलीम को दण्ड दिया जाना तय हुआ था।

मुझे राजनीति की बारीकियाँ समझ में नहीं आती (वैसे भी किसे आती हैं!?) किन्तु इस गीत को चूँकि मैं बचपन में उत्साहपूर्वक गुनगनाता था इसलिए इसे फिर से एक बार सुनने की उत्सुकता मन में पैदा हुई। 

लेकिन बचपन में भी इसे गुनगुनाते हुए मुझे और एक गीत तुरंत ही याद आने लगता था, जिसके बोल भी एक तरह से इस गीत के भावों के समानार्थी हैं :

"हम यादों के दीप जलाएँ,

और आँसू के फूल चढ़ाएँ,

साँसों का हर तार कहे,

ये प्यार अमर है!

दिल एक मन्दिर है,

दिल एक मन्दिर है,

प्यार की जिसमें होती है पूजा,

ये प्रीतम का घर है!"

इसके तुरंत बाद मुझे याद आता था :

"ज़िन्दाबाद ज़िन्दाबाद!" 

ये मुहब्बत ज़िन्दाबाद!

(दोनों गीतों के स्वर और लय मिलते-जुलते होंगे, इसलिए!?)

आज जब इसे समाचार को देखा / सुना तो अचानक याद आया! 

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Wednesday 8 June 2022

चित् और चित्त

प्रमाद और अनवधानता 

(Ignorance and In-attention)

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चित्तं चिद्विजानीयात् त-कार रहितं यदा।।

त-कार विषयाध्यासो, प्रमादो मृत्युस्तथा।।

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चित्त को चित् ही जानो, जब वह त-कार से रहित होता है। और यह विषयाध्यास ही त-कार, अर्थात् वह अनवधानता है, जो कि वस्तुतः मृत्युतुल्य है। 

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