Sunday 29 November 2015

The barbed tree-guard.

The barbed tree-guard.
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Dear You!,
When I had shifted to my new rented house, there was a beautiful tree along the road-side. I saw it was not safe, and cows, goats or other people could also destroy it. I put a tree-guard and when it was mature and grown up enough to look after itself, the tree-guard was no more needed. Even the barbed fence in the tree-guard could harm the tree. 
Then I decided that it is wise to remove the tree-guard. Still it is a bit unsafe, but I think I can't do anything anymore to save it from the possible dangers it might come across in its life. 
Just hope Shiva will take care of, look after it.
Then again, I felt if Narayan could not save Narayan Himself, how I could possibly save the tree?
May be it will not be possible for me to keep in touch with you any more, and it matters not.

All the best. 

Your own old remembrance.

Thursday 26 November 2015

The existence of 'God'.

The existence of 'God'.
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A poem by Anuj Agrawal :
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जिन लोगोँ का 
होता नहीँ कोई ईश्वर 
वो पूजते हैँ किसको ?
क्या वो पूजते हैँ 
जिसको
वो होता नहीँ 
या होता नहीँ
उनका ईश्वर ?
जो आराधता है 
जिस को
क्या बसते नहीँ उसके
उसी मेँ प्राण ।
फिर आखिर 
किन लोगोँ का
होता नहीँ कोई ईश्वर ।

अ से
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The सांख्य -दर्शन  / sAMkhya darshana (युक्ति /yukti) answers this question very well. Even though in the poetic sense I appreciate this poem, at the same time I also feel such a 'ईश्वर ' / "Ishvar" could not exist independently of the one who worships this  'ईश्वर' /  "Ishvar". Kurt Gödel has mathematically proved that far from being worshiped, "Ishvar" could neither be defined, nor could be described. So सांख्य  / sAMkhya keeps the point unanswered. And though 'द्वैत ' / 'dwaita' insists upon the existence of such a 'ईश्वर ' / "Ishvar" because of the practical utility, ultimately one has to merge into that 'ईश्वर' / "Ishvar" (सालोक्य  / sAlokya, सामीप्य / sAmeepya, सान्निद्ध्य  / sAnnidhya, सायुज्य  / sAyujya) is where the distinction between the worshiper and the worshiped ceases for good. In this way, there is no-one is without a 'ईश्वर ' "Ishvara" as One's own ultimate truth of being, And knowing  / not knowing, worshiping / not worshiping such a "Ishvar" really never matters.
How-ever, in Gita we do find a very practical and useful hint for finding out this 'Truth' of 'ईश्वर ' 'Ishvar'.
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Thursday 19 November 2015

धम्मचक्कप्पवत्तने / dhammacakkappavattane

स्वरचित पालि / संस्कृत श्लोक 
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पालि
धम्मचक्कप्पवत्तने अमिताभ निदस्सयति ।
मिग्गा तु सूयन्ति दत्तचित्तेन वचनं भगवतो तस्स ॥
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संस्कृत
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धर्मचक्रप्रवर्तने अमिताभ निदर्शयति ।
मृगाः तु श्रूयन्ति दत्तचित्तेन वचनं भगवतो तस्य ॥
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pāli
dhammacakkappavattane amitābha nidassayati |
miggā tu sūyanti dattacittena vacanaṃ bhagavato tassa ||
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saṃskṛta
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dharmacakrapravartane amitābha nidarśayati |
mṛgāḥ tu śrūyanti dattacittena vacanaṃ bhagavato tasya ||
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धर्मचक्र प्रवर्तन के समय भगवान् बुद्ध (अमिताभ) धर्म-तत्त्व का निदर्शन कर रहे थे, जबकि मृग (सरल-निष्पाप चित्त्त) दत्तचित्त होकर उनके वचन श्रवण कर रहे थे ।
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English :
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At Sarnath / MrigadAva, Lord Buddha was preaching the essence of 'darma' while the deer (innocent in heart and mind) were listening to the same.
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Wednesday 18 November 2015

Exactly an year ago!

Exactly an year ago!
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I AM the The door, I AM the way,
I AM the one, from myself away.
Calling I AM to myself that is lost,
I AM The one, That comes to myself.
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Saturday 14 November 2015

आज की कविता / पेरिस 13/11, मुम्बई 26/11,...

आज की कविता / पेरिस 13/11, मुम्बई 26/11,... 
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समर्पित पेरिस को, मुम्बई को,...
वो सुर्ख़ ज़िन्दगी का हो,
वो सुर्ख़ हो या फ़िर ख़ूँ का,
वो ज़र्द भले डर का हो,
भले ही हो मातम का! 
कभी सुर्ख़ कभी ज़र्द,
कभी गर्म कभी सर्द,
जवाकुसुम गुड़हल,
हर रंग दिल में दर्द!
वो सुर्ख़ जो खुशियों का हो,
वो सुर्ख़ हो रंगे-इश्क़ 
वो ज़र्द जो हो बेबसी,
या हो मायूसी ज़ुदाई की,
जवाकुसुम गुड़हल,
हर रंग दिल में दर्द!
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Thursday 12 November 2015

’घर’ / Story-14 / कथा -14,

’घर’/ Story-14 / कथा -14, 
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बहुत दिनों पहले ’घर’ छोड़ दिया था,
तब ये पंक्तियाँ लिखीं थीं :
जिनका कहीं कोई ’घर’ नहीं होता,
उन्हें किसी भी तरह का डर नहीं होता ।
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मेरी मुँहबोली बिटिया परसों उसके पापा के साथ मुझसे दिवाली मिलने आई । 
उसने दोनों हाथों में ढेर सारी चूड़ियाँ पहन रखीं थीं ।
"दोनों हाथों में ढेर सारी चूड़ियाँ!"
वह दोनों हाथ उठाकर मुझे दिखा रही थी ।
"हाथों में चूड़ियाँ, या चूड़ियों में हाथ?"
उसने उत्तर नहीं दिया।
"पैरों में चप्पल या चप्पलों में पैर?
उससे तो बस इतना पूछा लेकिन बाद में सोचने लगा :
मन शरीर में होता है, या शरीर मन में?
मन संसार में होता है, या संसार मन में?
अगर संसार मन में होता हो, और मन शरीर में, तो संसार शरीर में होता होगा ।
लेकिन लगता यह है कि शरीर संसार में होता है ।
शिव मन में है, या मन शिव में?
संसार शिव में है, या शिव संसार में?
तुम मन में हो, या मन तुम में?
तुम शिव में हो, या शिव तुममें?
अभी एक मित्र ने ’घर’ के बारे में कुछ लिखा तो लगा,
’घर’ हमारे भीतर होता है, या हम घर के भीतर?
और तब वह दिन याद आया जब मैंने घर छोड़ दिया था ।
कहना न होगा घर ने भी तब मुझे छोड़ दिया था ।
या शायद पूरी धरती ही मेरा घर हो गई ।
इस घर का मतलब घर समझें या परिवार, जैसा भी आपको ठीक लगे ।
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लेकिन एक सवाल अभी भी अनुत्तरित है :
अगर मेरा घर कहीं नहीं है, तो मैं कहाँ रहता हूँ?
ज़ाहिर है कि शरीर तो इस भौतिक जगत में ही रहता है और उन्ही चीज़ों से बना / टिका रहता है जिनसे जगत बना हुआ है ।
रही बात ’मेरी’ अर्थात् मेरे चित्त / मन की तो वह कभी राजनीति में रहता है, कभी कामना, ईर्ष्या-द्वेष, घमंड, लोभ या डर, सन्देह या काल्पनिक भगवान के प्रति विश्वास या अविश्वास में... आशा-निराशा, अवसाद-विषाद या क्रोध में रहा करता है । वे ही तो चित्त / मन के अनेक ’घर’ हैं । और हाँ सच्चे-झूठे आदर्श, लक्ष्य, सपने, ’मेरा धर्म’, ’मेरी जाति, ’मेरा राष्ट्र’, ’मेरी भाषा, ’मेरी संस्कृति’... इन सबमें भी! जब मैं कहता हूँ ’शिव में’, तब भी शिव की एक कल्पना ही तो हुआ करती है मेरे मन में! क्या यही सब मेरे अनेक ’घर’ नहीं हैं ? वह कौन है जो इतने घरों का स्वामी है? मैं तो अवश्य ही अपनी प्रकृति के / संस्कारों के धक्के खाता हुआ चाहे / अनचाहे इन घरों में जाने और उन्हें छोड़ने के लिए बाध्य होता हूँ!
एक ’घर’ है नींद का भी!
वहाँ भी मैं जब ज़रूरत हो, क्या उस घर में आने-जाने के लिए मैं स्वतन्त्र / मज़बूर हूँ ? 
क्या इन सब घरों को त्यागा जाना संभव है? 
हाँ मैं उनसे उदासीन रहूँ इतना शायद हो सकता है, लेकिन ऐसा भी यदि मैं किसी ’मुक्ति’ या ’ईश्वर-प्राप्ति’ के आकर्षण से लुब्ध होकर करता हूँ तो ’उम्मीद’ / ’भविष्य’ (के विचार) में घर बना लेता हूँ । और अगर मैं ठीक से समझ लेता हूँ कि अस्तित्व मुझे जहाँ जैसा रखना चाहे रखेगा तो ’घर’ या ’घर छोड़ने’ का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है?
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Wednesday 11 November 2015

अज्ञातपथगामिन्...

अज्ञातपथगामिन्...
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उस दुर्गम पथ पर चला जा रहा था एकाकी, वह सनातन मुमुक्षु ।
सुबह ने अभी घूँघट खोला भी न था लेकिन अँगड़ाई लेकर उठ बैठी थी और उसके झीने घूँघट में उसकी मुखाकृति और भी मोहक हो उठी थी । 
मुमुक्षु का इस पथ पर आना संयोग ही था । उसे दूर से कोई आता दिखाई दिया । दूर से दिखलाई देती आकृति से उसने अनुमान लगाया, हो सकता है कि कोई विदेशी हो, क्योंकि इतनी सुबह ...। इतनी सुबह कौन इस निर्जन रास्ते पर आ सकता है? उसे कौतूहल हुआ ।
उस अपरिचित पथिक के निकट आ जाने पर मुमुक्षु ने देखा कि आगंतुक तो नितांत भारतीय लग रहा था । हल्के क्रीम कलर का कुर्त्ता, सफ़ेद पाजामा और भूरे रंग की जॉकिट । कोई पढ़ा लिखा उच्च वर्ग का धनिक लग रहा था वह तो । लेकिन उसकी आँखों में वह कृत्रिम विनम्रता भी नहीं थी जो कि कुछ विद्वानों या लब्ध-प्रतिष्ठ लोगों में अनायास पाई जाती है। उसके बहुत निकट आ जाने पर मुमुक्षु का कौतूहल जिज्ञासा में बदल गया जब वह ठीक सामने आ पहुँचा तो क्षण भर के लिए उसकी दृष्टि मुमुक्षु पर ठिठक गई। वह दृष्टि उसे वैसी ही प्रतीत हो रही थी जैसे कोई ’रोवर-लाइट’ चारों ओर के क्षेत्र का स्कैनिंग कर रहा हो । वह तेज़-क़दम राही अपने ’मॉर्निंग-वॉक’ के साथ लगभग इसी रीति से अपने परिदृश्य का सावधानीपूर्वक किन्तु चपलता से अवलोकन करता प्रतीत हो रहा था ।
उसकी शून्य-दृष्टि में न तो कोई स्वप्न था, न विचार, न तो कोई स्मृति थी न कल्पना । न तो जुड़ाव था, न अलगाव । वह दृष्टि बस अवलोकन-मात्र थी, किसी भी आलोचना, भावुकता, या आकलन से रहित ।
मुमुक्षु के नेत्रों से पल भर के लिए मिलकर वह तत्क्षण आसपास के विस्तृत परिदृश्य पर लौट गई । किन्तु मुमुक्षु को ऐसा लगा कि इस एक पल में ही उस स्ट्रोब-लाइट ने उसके हृदय में प्रवेश कर उसके अन्तर्जगत् का पूर्ण अवलोकन कर लिया था । और फिर भी उस दृष्टि में आक्रामकता बिलकुल नहीं थी । 
इस क्षणिक साक्षात्कार ने मुमुक्षु को अभिभूत तो नहीं किया किन्तु उसे ऐसा अवश्य अनुभव हुआ कि उसका अपना अन्तर्मन उसके ही समक्ष अपने विस्तृत रूप में अनायास ही उसके लिए अनावृत्त हो उठा था । उसे आश्चर्य हुआ कि क्या काल कभी ठिठकता भी है? वह काल के सन्दर्भ में उस समय के विस्तार को नहीं समझ सका था, बस इतना ही कहा जा सकता है ।
बह दृष्टि किसी किरण सी उसके अंधकारपूर्ण हृदय में उतर चुकी था, कोमल और स्थिर । और उसका हृदय एक अद्भुत् प्रकाश से आलिकित हो उठा था । एक ऐसे प्रकाश से जो न तो सूरज की धूप सा ऊष्ण था, न चन्द्र-किरण सा शीतल, न चकाचौंधयुक्त था, न स्वप्निल । इसी क्षण में वह क्षण भर के लिए ठिठक गया था और अनायास उसके हाथ उस अपरिचित के समक्ष नमस्कार की मुद्रा में जुड़ गए थे ।
उस अपरिचित ने भी एक स्निग्ध मुस्कान  के साथ अभिवादन का प्रत्युत्तर दोनों हाथ जोड़कर दिया ।
दोनों के बीच अपरिचय का एक मौन व्याप्त था और दोनों ही उस मौन की अनुगूँज मात्र थे । क्योंकि दोनों के बीच न तो पहचान थी, न स्मृति, और न कल्पना या अपेक्षा ।
अपरिचित ने शायद सोचा होगा कि उसे न जाने कितने लोग जानते हैं पर वह स्वयं बहुत ही कम लोगों को जानता है । और जिन्हें जानता भी है उनकी बस एक औपचारिक सी स्मृति ही उसके मन में रहती है जिससे उसे कोई लगाव या विरक्ति भी नहीं होती । और इसलिए वह ऐसी परिस्थितियों में मौन ही होता है । एक मौन अपरिचय का, जब आपका भी कोई परिचय आपके पास नहीं होता । वह इतने लोगों को न तो याद रख सकता था न इसकी कोई ज़रूरत ही उसे महसूस होती थी । हर नए पल जो भी उसके समक्ष आता था उसके लिए नितांत अपरिचित और नया होता था और उसकी स्मृति पलक झपकते ही उस नए आगंतुक के संबंध में उसकी संचित जानकारी उसके लिए प्रस्तुत कर देती थी । मस्तिष्क एक आश्चर्यजनक ढँग से उसकी अनावश्यक स्मृति को निरंतर मिटाता रहता था और इसलिए हमेशा बहुत तरो-ताज़ा और सजग होता था ।
सुबह की सैर पर निकलते समय वह उन थोड़ी सी जमा स्मृतियों को भी पीछे छोड़ आता था और नितांत अकेला अपने रास्ते पर चल देता था । 
वह पथिक आगे चला गया तो मुमुक्षु ने पलटकर उस पथिक पर एक दृष्टि डाली । पाजामा-कुर्त्ता, जैकेट पहने वह जिस तरह तेज़ क़दम चलता उसके समीप आयुआ था, वैसे ही अब उससे दूर होता जा रहा था ।
मुमुक्षु भी अपने रास्ते पर चलने लगा और जल्दी ही अगले मोड़ पर मुड़ गया जहाँ से पथिक उसकी दृष्टि से सर्वथा ओझल हो गया था ।
इस पर्वतीयुअ रास्ते पर ऐसे बहुत से मोड़ थे जैसे दूसरे पहाड़ी अञ्चलों में प्रायः पाए जाते हैं । लोग पगडंडियाँ बना लेते हैं और जो आदमी अभी आपकी आँखों से ओझल हुआ था वह दो मिनट बाद ही आपको फिर से दिखलाई पड़ सकता है । 
कुछ दूर चलने के बाद मुमुक्षु को वही पथिक पुनः ऐसे ही कहीं दूर दृष्टिगत हुआ । इसका मतलब यह, कि वह पथिक वाहनों के लिए बने पक्के रास्ते छोड़कर भी जा सकता है,  - मुमुक्षु ने सोचा । किन्तु अब वह विपरीत दिशा में जा रहा था और एकाएक ग़ायब हो गया था । हाँ, वहाँ ढलान है, और रास्ता एकदम नीचे चला जाता है...। 
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"कौन था यह पथिक?"
मुमुक्षु के मन में प्रश्न उठा ।
मुमुक्षु जिस कुटिया में गत माह से ठहरा हुआ था वहाँ पहुँचकर पास के चूल्हे पर रखी केतली से चाय ली और अपने सामने के पेड़ के नीचे की समतल चट्टान पर आराम से बैठकर चाय पीने लगा ।
पथिक की दृष्टि ने पल भर में उसका मन हर लिया था । उस शीतल दृष्टि ने उसके मन को झकझोरा नहीं बल्कि सहलाया ही और शान्त और सुस्थिर कर दिया । उसके मन में विचारों के भीड़ तितर-बितर हो चुकी थी और जो इने-गिने थे वे भी शिथिल गति से आ जा रहे थे । आज तक, अभी कुछ देर पहले तक भी, मुमुक्षु अपने विचारों को सुधारने, बदलने और उन्हें अधिक श्रेष्ठ बनाने के लिए श्रम करता रहा था, व्यग्रता औरा चिन्तापूर्वक । लेकिन उसकी दृष्टि से उस पथिक की उस दृष्टि का स्पर्श मिलने के बाद पहली बार उसका ध्यान इस ओर गया विचार-मात्र उसके भीतर जमा हुआ स्मृति और शब्द-संयोजन है, जो एक नितांत बाहरी तत्व है । हर विचार मूक और बधिर होता है और संकेत-भाषा के अलावा किसी और तरीके से न तो कुछ कह सकता है, न सुन सकता है । विचार या तो अभिव्यक्ति है, या किसी अन्य विचार की प्रतिक्रिया मात्र जो स्मृति में पहले से संजो रखे गए विचार की गूँज भर हुआ करता है ।
इसलिए विचार न तो कभी नया होता है, न नए को देख पाने में सक्षम होता है ।
ज़ाहिर है इस प्रकार की विवेचना उस विचार / वैचारिक गतिविधि से नितांत विलक्षण तत्व था / है, जो उस विचार का अतिक्रमण कर सकता है ।
उसे यह सब साफ़-साफ़, स्पष्ट दिख रहा था ।
स्मृति-विचार-स्मृति का दुष्चक्र और उस दुष्चक्र में फँसा ’मैं’-विचार!
मुमुक्षु मुग्ध था । इतना सरल सत्य वह इससे पहले कभी क्यों न देख सका?
और उसे हँसी भी आ रही थी कि विचार के अलावा वह स्वयं अगर कुछ है ही नहीं, तो उसके लिए यह कैसे संभव होता? यदि वह न तो विचार है और न विचार से भिन्न कुछ और, तो वह क्या है? किन्तु विचार के रूप में उसके पास अब न तो कोई उत्तर था न उत्तर की कोई जरूरत ही थी । विचार के रूप में अगर वह कुछ है / था भी तो स्पष्ट है कि वह बस एक अपाहिज भर था, जो न देख सकता है, न सुन सकता है और चल-फिर तक नहीं सकता । 
फिर "विचार कौन करता है?" 
-विवेचना ने प्रश्न उठाया ।
अपनी याँत्रिक गतिविधि के रूप में स्मृति के माध्यम से मस्तिष्क में विचार की एक प्रक्रिया (शायद) सतत चलती रहती है ।यदि स्मृति नहीं तो विचार नहीं, विचार नहीं तो स्मृति कहाँ? दूसरी ओर स्मृति नहीं तो पहचान भी नहीं, और पहचान नहीं तो स्मृति? और ये ही तो अस्मिता के अलग अलग रूप हैं इसलिए "विचार कौन करता है?" यह प्रश्न ही बुनियादी रूप से भ्रामक और असंगत भी है । 
-विवेचना ने कहा ।
मुमुक्षु सरलता से समझ-देख पा रहा था कि ’विवेचना’ बस जागरुकता की ही गतिविधि है, लेकिन अगर इसे शब्द तक सीमित रखा जाए तो वह भी बस विचार सी ही निरर्थक हो जाती है । जबकि इस विवेचना ने विचार को प्रतिस्थापित कर दिया है यह भी स्पष्ट था ।
पर इसका प्रयोग युक्ति की तरह से किया जाना ही विचार के दुष्चक्र का अन्त है ।  स्पष्ट है कि विचार ऐसा एक अपाहिज होता है, जो न देख सकता है, न सुन सकता है और चल-फिर तक नहीं सकता । बस रेंगता रहता है, साँप या केंचुए जैसा, - किसी दूसरे विचार के सहारे । वे सब ऐसे ही सतत रेंगते रहते हैं कभी अंधेरे में कभी उजाले में या धीमी मुर्दा रौशनी में चमकते हुए । उनकी अपनी कोई रौशनी कहाँ होती है?
उसे ’विवेचना’ के इस नए ’दर्शन’ से बड़ा  विस्मय हो रहा था । हाँ, इसे ’दर्शन’ कहना ही ठीक होगा क्योंकि यह कोई ’फिलॉसॉफी’/ फ़लसफ़ा तो हरगिज़ नहीं था । यह युक्ति है, शायद तकनीक, लेकिन याँत्रिक नहीं, बौद्धिक नहीं । यह एक आगम-प्रकार है, आगमन-प्रकार...। और उसे समझने में समय नहीं लगा कि ’षड्-दर्शन’ भी विवेचना के ही छः आगम-प्रकार हैं ।
उसे इस बात से थोड़ा क्षोभ भी हुआ कि वेदों और वेदोक्त दर्शन का अपात्र लोगों द्वारा किया गया अनुवाद और व्याख्या करनेवालों ने इस पूरी परंपरा का कैसा विद्रूप कर दिया है । यह एक भावना थी जिससे वह बँधा नहीं । ’वे सब कहाँ हैं तुम्हारी स्मृति अय्र् विचार से अलग? -विवेचना ने उसे सचेत किया ।
मुमुक्षु के दोनों नेत्र अर्धोन्मीलित से हो चुके थे । दोनों हाथ उस अज्ञात पथिक के प्रति सम्मान में जुड़ गए, और उसका मस्तक उसके प्रति आदर से झुक गया ।
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Monday 9 November 2015

π का मान -2 / value of 'π'-2,

सरलता और कुटिलता -2
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संभ्रम राजनीति की बुनियाद है । 
और संभ्रम अनेक प्रकार के हो सकते हैं  ।
संभ्रम की विशेषता यह भी है कि वे घोर निश्चयात्मक भी प्रतीत हो सकते हैं । संभ्रम मूलतः एक विचार होता है जो तथ्य को किसी विशिष्ट प्रारूप में देखता है । मजे की बात यह भी है बहुत से संभ्रम अपने मौलिक सिद्धान्तों में एक दूसरे से मिलते-जुलते भी नज़र आते हैं किन्तु जैसे-जैसे ’विकसित’ अर्थात् परिवर्धित होते जाते हैं भिन्न-भिन्न रूप ले लेते हैं । एक उदाहरण देखें ’साम्यवाद’ का । या फिर पूँजीवाद का । या फ़िर नास्तिक-मत का ।
 और हाँ, 'एकेश्वरवाद' तो और भी अच्छा, सशक्त उदाहरण होगा।   
संभ्रांत, संभ्रम के आसान शिकार होते हैं ।
संभ्रम और परंपरा का चोली-दामन जैसा साथ होता है ।
संभ्रम परंपरा को जन्म देता है / देते हैं , और परंपरा असुरक्षा की भावना को ।
क्योंकि तब विभिन्न परंपराएँ , भले ही मूल में एक ही विचार से उत्पन्न हुई हों, विभिन्न दिशाओं में पनपती-फैलती हैं । संभ्रम अर्थात् ’विश्वास’ जो सिर्फ़ कल्पित असुरक्षा, लोभ, भय या आशा पर अवलंबित होता है, न कि तथ्य की समझ पर स्वरूपतः तो एक ’विचार’ ही होता है । एक ’विचार’ की तरह यह सिर्फ़ कुछ शब्दोंका क्रम-विन्यास मात्र होता है जो कितना भी लुभावना डरावना या मोहक हो, विचार के रूप में अल्पजीवी होता है जिसका रूप और आकृति तो होते हैं, आकार-प्रकार भी होते हैं और इस तरह से वह देवता का निरंतर बदलता हुआ ’मूर्त’-रूप भी होता है किन्तु वह किसी सार या प्राण से सर्वथा रहित होता है ।
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अभी कल ही माननीय नरेन्द्र मोदीजी ने कहा कि भारतीय संस्कृति ’सहिष्णुता’ से कहीं बहुत आगे जाती है,  भारतीय संस्कृति ’स्वीकार’ करने की संस्कृति है ।मुझे दुःख है कि पता नहीं किन ज्ञात-अज्ञात कारणों से उन्होंने अपनी बात को इससे आगे नहीं जाने दिया । अगर मुझसे पूछा जाता तो मैं कहता कि भारतीय संस्कृति जो मेरी दृष्टि में एक जीवन्त प्राणवान् भावना है, उस भारतीय संस्कृति के प्राण इस ’स्वीकार’ से भी बढ़कर आतिथ्य की उदार भावना ’अतिथि देवो भवः’ की भावना में बसते हैं । यह भावना न तो ’आदर्श’ है जिसे पाने के लिए हमें बहुत श्रम या संघर्ष करना होगा, या ’विचार’ है जो नित नये रूप लेता हुआ भी हमेशा अतृप्त, अधूरा, असुरक्षित और अनिश्चित होता है । जो दूसरे ’विचारों’ से निरंतर युद्धरत रहता है, सदा भयभीत और शंकालु, आशान्वित और अवसादयुक्त, हर्ष और अमर्षयुक्त होता है ।  जो अतिस्वप्नशील और अति निद्रालु होता है ।
राजनीति इन्हीं सब विशेषताओं का अराजक जमावड़ा होती है । इसलिए कुटिलता-जटिलता राजनीति की स्थायी मुद्रा होती है ।
राजनीति में होने का अर्थ है भ्रमित / कंफ़्यूज़्ड होना । बुद्धिजीवी का राजनैतिक होना भी वैसा ही स्वाभाविक है, जैसा कि उसका कंफ़्यूज़्ड होना । राजनीतिज्ञ की ही तरह बुद्धिजीवि के लिए भी जटिल-कुटिल न हो पाना बहुत कठिन है, सरल न हो पाना बिल्कुल स्वाभाविक ।  
इसलिए आश्चर्य नहीं कि राजनीति में स्थायी मित्र और स्थायी शत्रु जैसी कोई चीज़ नहीं होती, हो भी नहीं सकती ।
भारतीय संस्कृति की उदारता / सरलता उसका स्थायी स्वभाव है, राजनीतिक दृष्टि से यही उदारता उसकी कमज़ोरी है, जबकि  कुटिलता-जटिलता राजनीति के पैंतरे । और वही राजनीति को आत्मघात की दिशा में भी ले जाते हैं ।
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'π' का मान / value of 'π'

π का 'मान / value of 'π'   
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सरलता और कुटिलता 
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कक्षा नौ में पढ़ते समय गणित के एक प्रश्न में ’पाई’/ 'π'   अर्थात् वृत्त के व्यास और उसकी परिधि के अनुपात का मान निकालना होता था । हमें ’परिकार’ अर्थात् ’कंपास’ से भिन्न-भिन्न नाप की रेडियस (त्रिज्याएँ) लेकर, उनसे वृत्त ’ड्रॉ’ कर, उनकी परिधियाँ नापकर परिधि को व्यास से विभाजित कर ’पाई’ / 'π'  का लगभग मान दशमलव के तीन अंकों तक निकालना होता था । मैंने भी आसानी से निकाल दिया, तो शिक्षक ने मुझे शाबाशी दी । दूसरे लड़के मुझसे कम चालाक थे । या उनकी चालाकी किसी और क्षेत्र में तो थी पर गणित में उतनी नहीं थी । लेकिन मैं उनसे अधिक चालाक था । मैं त्रिज्या को 2π से गुणा कर, बिना नापे ही परिधि का नाप लिख देता था और दशमलव के बाद के चौथे अंक को इस प्रकार ’एड्जस्ट’ करता था कि औसत-मान ’पाई’/ 'π' के वास्तविक मान से सन्निकट हो ।
जब शिक्षक ने मुझे शाबाशी दी तो जहाँ एक ओर दूसरे लड़के जल-भुन गए, वहीं मैंने शिक्षक से बड़ी नम्रतापूर्वक प्रश्न किया :
"सर, लेकिन इस पूरे प्रश्न में मुझे एक बुनियादी भूल नज़र आ रही है!?"
वे मुझे आश्चर्य से देखने लगे । बोले :
"क्या भूल है?"
बाक़ी लड़के भी मुँह बाए बोर होते हुए हमें ताक रहे थे ।
मैंने बड़े भोलेपन से पूछा :
"सर, त्रिज्या सरल-रेखा होती है, जबकि परिधि वक्र रेखा होती है..."
"तो?"
शिक्षक ने पूछा ।
"सर, मुझे नहीं पता कि सरलता का वक्रता से कभी कोई संबंध होता भी है, या हो भी सकता है क्या?"
"मतलब"
मेरी हिम्मत बढ़ी ।
’सर सीधेपन और टेढ़ेपन के बीच कोई संबंध कभी हो सकता है क्या?"
वे सर खुजलाने लगे । उन्हें मेरी बात समझ में आई या नहीं मैं नहीं जानता । उन्होंने डपटकर मुझसे बैठ जाने के लिए  कहा ।
बरसों बाद जे.कृष्णमूर्ति को पढ़ते समय महसूस हुआ कि मेरा प्रश्न अब भी उतना ही सशक्त और उससे कहीं बहुत अधिक प्रासंगिक है ।
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Sunday 8 November 2015

पैशन-फ़्लॉवर ! / Passion-Flower!



















आज की संस्कृत रचना !
© Vinay Kumar Vaidya
पैशन-फ़्लॉवर !
पश्यन् त्वामपश्यमहम् 
पश्यनहम् अपश्यम् त्वाम् ।
उभाभ्याम् रीत्या दृष्ट्वा
त्वमहमप्यहञ्चत्वम् ॥
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अर्थ : 
तुम्हें देखते-देखते, अपने-आपको देखने लगा,
अपने-आपको देखते-देखते, तुम्हें देखने लगा ।
दोनों ही तरीकों से देख कर यह देख लिया,
कि तुम मैं ही हो और मैं तुम ही हूँ ॥
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PASSION-FLOWER!

paśyan tvāmapaśyamaham 
paśyanaham apaśyam tvām |
ubhābhyām rītyā dṛṣṭvā
tvamahamapyahañcatvam ||
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Meaning :
Looking you, I started looking myself,
Looking myself, I started looking you,
Looking in both these ways I saw,
You are but me, and I am but you!
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Saturday 7 November 2015

Story-12 / कथा -12, The Life on Mars.

The Life on Mars
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A few billion years ago, there were many seas upon the Mars. The land was rich, fertile, and prosperous.The climates were benign and the people there could have plenty of crops that they grew in the fields. The woods were dense abundent in flora and fauna. The economy in monetary terms was not yet a place there. People just didn't knownor believed in a thing which we call 'future'. Though they sometimes used the future tense in their conversation and that was just as a helpful convention to facilitate the dialogue. They knew well that this 'future' is never a thing that could be really handled as a physical object or manipulated in any way. Like-wise they saw the 'past' also as another similar convention only which they felt somehow help them to avoid possible errors because of not knowing the essential cause-less prime cause that they supposed lies behind all that happens.
varuṇa / वरुण , -The cosmic Lord of waters in the seas, the power divine, and soma  'Soma' - The cosmic Lord of 'rasa' - रस / necter divine, often propitiated by Lord bṛhaspati बृहस्पति Who was the preciding priest in carrying out the ceremonial worship offered to Lord sūrya सूर्य Sun, Lord agni / अग्नि Fire, Lord Yama / यम, Lord varuṇa / वरुण, and Lord soma / 'Soma', also to Lord vāyu / वायु Air,  sūrya सूर्य Sun was also called पूषन् / pūṣan, while joined with Lord इन्द्र / indra He was called मित्र / mitra as well. Lord Indra provided material-help for performing यज्ञ / yajña ceremonial worship. वाग्देवी / vāgdevī सरस्वती / sarasvatī the In-charge authority of मन्त्र / mantra gave the strength to those incantations, which all these Lords could follow and accept and reciprocate too. Everything was quite fine when this our pṛthvī / पृथ्वी Earth was enclosed in hot Fire-like meditation / austerity (tapas), to propitiate Lord ब्रह्मा / brahmā so that a similar 'Life' as on the Mars was at that time,may spring-up and flourish upon Her bosom. Mars was happy, but somehow grew jealous of the Earth for reasons known to himself. Those Lords, the heavenly Powers that run, maintain and look after 'Life' and 'Death' in all its forms, didn't like this behaviour of Mars and as if to teach him a lesson, stopped responding to the prayers and offerings made to them by those people residing upon the Mars.
ब्रह्मा / brahmā was till now pleased over the hard penance of the Earth and sent all these Lords upon pṛthvī / पृथ्वी Earth so that 'Life' could play its role, grow and Earth may be rich and prosper. pṛthvī / पृथ्वी Earth then, for a few million years went into a deep sleep like trans and was relieved of all Her tedious tiredness. Became fresh, full of verve and energy, vigor and joy, woke up from that trans.
Lords descended on Earth, human beings were given the teachings of how to propitiate the Lords and how they would in turn give you all riches, bounties and happiness.
Meanwhile, the people living on Mars became skeptic of these Lords, of their existence and lost all faith and trust in them. They started quarreling with one-another. They destroyed the temples and the idols of those Lords and were following some self-proclaimed religious guides who taught them to treat them as the only 'True Messenger'. They inflicted wars upon mankind and then followed famines and droughts, the waters in the rivers and seas dried up or seeped into the underground at inaccessible depths.
The people discovered and developed material science and had acquired astonishing powers but that couldn't remove their misery and troubles. They had marvelous feet of technology and 'knowledge' but had no love for themselves or anybody / anything else. Many committed suicide, others went mad, indulging in fierce wars that destroyed the whatever remnants of 'Life' were left so far.
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Friday 6 November 2015

कौस्तुभं / kaustubhaṃ

आज की संस्कृत रचना
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कौस्तुभं उद्यातं उदधेः
नीलवर्णो हरिताभं ।
शिवेन प्रदत्तं हरये 
विधर्तुं तं कण्ठे स्वाम् ॥
विष्णुना धारितं तत्र,
विष्ण्वप्यभवच्छिवो ।
नीलकण्ठो शिवो यथा
द्वितीयो कौस्तुभं धृत्वा ॥ 
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kaustubhaṃ udyātaṃ udadheḥ
nīlavarṇo haritābhaṃ |
śivena pradattaṃ haraye 
vidhartuṃ taṃ kaṇṭhe svām ||
viṣṇunā dhāritaṃ tatra,
viṣṇvapyabhavacchivo |
nīlakaṇṭho śivo yathā
dvitīyo kaustubhaṃ dhṛtvā || 
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अर्थ :
जब समुद्र से नील-हरिताभ कौस्तुभ रत्न निकला, तो भगवान् शिव ने वह रत्न श्रीहरि (भगवान् विष्णु) को प्रदान कर दिया ताकि श्रीहरि (भगवान् विष्णु) उसे अपने कण्ठ में धारण कर सकें । और जब श्रीहरि (भगवान् विष्णु) ने उसे धारण कर लिया तो वे भी नीलकण्ठ (शिव) हो गए ।
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Meaning :
When the Blue-Green Jewel 'Kaustubh' came-out from the churning of ocean, Lord śiva gifted the same to Lord viṣṇu to put on as an ornament upon His neck. And as soon as Lord viṣṇu put this on His neck, He too became śiva nīlakaṇṭh, because His neck turned blue like that of śiva, who was named so because He had imbibed the deadly poison 'halārala' to save the entire world  from the destruction ultimate! 
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