दोहराव
कविता
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सबके ही हैं हाथ बन्धे,
अपने स्वार्थ में सब अन्धे,
सबकी अपनी शवयात्रा है,
खुद को ही सब देते कन्धे।
बाँया कभी, कभी दाहिना,
दोनों ही कन्धे दुखते हैं,
अदल बदल कर चलते हैं,
इसी बीच कुछ रुकते हैं,
जब आ जाती है मंजिल,
कुछ इंतजार भी करते हैं,
फिर सब जल्दी से हो जाए,
उम्मीद यही सब करते हैं।
घर पर लौट, स्नान विश्राम,
फिर उठकर बाकी के काम,
फिर अगले दिन की तैयारी,
फिर अगले दिन भी यही काम!
यूँ ही तो हर दिन होता है,
इंसान सुबह को उठता है,
थककर रात, सो जाता है,
इंसान ही क्या, उसकी दुनिया,
दुनिया से यही तो नाता है!!
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