Tuesday, 20 December 2022

... विनश्वरः... स्वभावतः ...

अष्टावक्र गीता

अध्याय २,

श्लोक २४, २५,

मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवातेप्रशाम्यति।।

अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वरः।।२४।।

मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्यं जीववीचयः।।

उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः।।२५।।

।।इति अष्टावक्र गीतायाम् द्वितीयोऽध्यायः।।

अर्थ :

मुझ असीम महासमुद्र में (जिसमें कि पिछले श्लोक के अनुसार जैसा कहा है), चित्त और वायु (चेतना रूपी व्यक्तिगत मन और प्राण) अन्ततः प्रशमित होते हैं। केवल दुर्भाग्यवश ही जीव, वह मनुष्य जो इस जगतरूपी समुद्र में जहाज पर सवार व्यापारी के समान किसी लक्ष्य को पाना चाहता है, नाश को प्राप्त हो जाता है। २४

यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि मुझ असीम महासमुद्र में निरन्तर असंख्य जीवों-रूपी तरंगें उठती और गिरती, उत्पन्न होती और विनाश को प्राप्त होती रहती हैं, मुझमें ही सतत खेलती और वे पुनः मुझमें ही विलीन हो जाती हैं! २५

।। इति अष्टावक्र गीता - द्वितीय अध्याय संपूर्ण।।

कृपया इस पोस्ट को पिछले पोस्ट के क्रम में आगे पढ़िए। 

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೨

ಶ್ಲೋಕ ೨೪, ೨೫,

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋಧೌ ಚಿತ್ತವಾತೇ ಪೃಶಾಮ್ಯತಿ||

ಅಭಾಗ್ಯಾಜ್ಜೀವವಣಿಜೋ ಜಗತ್ತೇ ವಿನಶ್ವರಃ ||೨೪||

ಮಯ್ಯನನ್ತಮಹಾಮ್ಭೋ-

ಧಾವಾಶ್ಚರ್ಯಯಂ ಜೀವವೀಚಯಃ||

ಉತ್ಯನ್ತಿ ಘ್ನನ್ತಿ ಖೇಲನ್ತಿ ಪೃವಿಶನ್ತಿ ಸ್ವಭಾವತಃ||೨೫||

||ಇತಿ ದ್ವಿತೀಯೋಧ್ಯಾಯಃ||

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Ashtavakra Gita

Chapter 2

Stanza 24, 25,

24 -With the calming of the wind of the mind in the infinite ocean of Myself, the ark of the universe of Jiva, the trader, unfortunately meets destruction. 24

25 - How Wonderful! In Me, the shoreless ocean, the waves of the individual selves rise, strike (each other), play (for a time) and disappear, each according to its nature. 

Thus concludes the Chapter 2 of Ashtavakra Gita.

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Note : This post should be read with the earlier post, where Stanza 23 has been entered.


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