अष्टावक्र गीता
अध्याय ३
श्लोक ४
श्रुत्वाऽपि शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्।।
उपस्थेऽत्यन्त संसक्तो मालिन्यमधिगच्छति।।४।।
अर्थ : शास्त्रों और आत्म-ज्ञानियों के मुख से यह सुनकर भी कि अपनी यह आत्मा शुद्ध, चैतन्य-स्वरूप और परम श्रेष्ठ, सुन्दर है, जिस मनुष्य का चित्त इस आत्मा से अन्य अनेक अनित्य और अशुद्ध वस्तुओं की ओर आकर्षित, उनमें संलिप्त और आसक्त है, वह मलिनता और ग्लानि को ही प्राप्त करता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೩
ಶ್ಲೋಕ ೪
ಶ್ರುತ್ವಾऽಪಿ ಶುದ್ಥಚೈತನ್ಯಮಾತ್ಮಾನಮತಿಸುನ್ದರಂ||
ಉಪಸ್ಥೇऽತ್ಯನ್ತ ಸಂಸಕ್ತೋಮಾಲಿನ್ಯಮಧಿಗಚ್ಛತಿ||೪||
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Ashtavakra Gita
Chapter 3
Stanza 4
Even after hearing (clearly, and repeatedly from the scriptures and sages) oneself to be pure Intelligence and surpassingly beautiful, how can one become unclean through deep devotion to lust!
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