Thursday, 22 December 2022

तृतीयोऽध्यायः

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक १

अष्टावक्र उवाच :

अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः।।

तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः।।१।।

अर्थ :

अष्टावक्र ने (राजा जनक से) कहा :

एकमेव अविनाशी आत्मा के स्वरूप को निश्चयपूर्वक जान लेने के बाद फिर तुम जैसे आत्मज्ञ और धीर पुरुष की लालसा धन-संपत्ति के अर्जन में कैसे हो सकती है?

(कथा-क्रम : इस अध्याय ३ से अध्याय ६ के अन्त तक अष्टावक्र ही जनक से वार्तालाप कर रहे हैं।)

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ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೧

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ :

ಅವಿನಾಶಿನಮಾತ್ಮಾನಮೇಕಂ ವಿಙ್ಞಾಯ ತತ್ತ್ವತಃ||

ತವಾತ್ಮಜ್ಙಸ್ಯ ಧೀರಸ್ಯ ಕಥಮರ್ಥಾರ್ಜನೇ ರತಿಃ||೧||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3

Stanza 1

Ashtavakra said :

Having known yourself (the Atman / Self), really indestructible and one, how is it that you, serene and knower of Self, feel attached to the acquisition of wealth!

(From this chapter 3 onwards up-to chapter 6 Ashtavakra speaks to Raja Janaka.)

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