अष्टावक्र गीता
अध्याय ३
श्लोक १
अष्टावक्र उवाच :
अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः।।
तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः।।१।।
अर्थ :
अष्टावक्र ने (राजा जनक से) कहा :
एकमेव अविनाशी आत्मा के स्वरूप को निश्चयपूर्वक जान लेने के बाद फिर तुम जैसे आत्मज्ञ और धीर पुरुष की लालसा धन-संपत्ति के अर्जन में कैसे हो सकती है?
(कथा-क्रम : इस अध्याय ३ से अध्याय ६ के अन्त तक अष्टावक्र ही जनक से वार्तालाप कर रहे हैं।)
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ಅಧ್ಯಾಯ ೩
ಶ್ಲೋಕ ೧
ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ :
ಅವಿನಾಶಿನಮಾತ್ಮಾನಮೇಕಂ ವಿಙ್ಞಾಯ ತತ್ತ್ವತಃ||
ತವಾತ್ಮಜ್ಙಸ್ಯ ಧೀರಸ್ಯ ಕಥಮರ್ಥಾರ್ಜನೇ ರತಿಃ||೧||
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Ashtavakra Gita
Chapter 3
Stanza 1
Ashtavakra said :
Having known yourself (the Atman / Self), really indestructible and one, how is it that you, serene and knower of Self, feel attached to the acquisition of wealth!
(From this chapter 3 onwards up-to chapter 6 Ashtavakra speaks to Raja Janaka.)
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