अष्टावक्र गीता
अध्याय ३
श्लोक २
आत्माज्ञानादहोप्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।।
शुक्तेरज्ञानतो लोभोयथारजतविभ्रमे।।२।।
(आत्म-अज्ञानात् अहो प्रीतिः विषयभ्रमगोचरे। शुक्तेः अज्ञानतः लोभः यथा रजतविभ्रमे।।)
अर्थ : अरे! जिस तरह से शुक्ता (सीप) के स्वरूप से अनभिज्ञ मनुष्य लोभवश उसे रजत (चाँदी) समझ बैठता है, उसी तरह से आत्मा (अपने आप) के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होने से मनुष्य इन्द्रियों आदि विषयों के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले भ्रमपूर्ण ज्ञान को अपना स्वरूप समझ बैठता है और उस विभ्रम के ही कारण उसे विषयों तथा उन विषयों में प्रतीत होनेवाले सुखों से लगाव हो जाता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಆದಾಯ ೩
ಶ್ಲೋಕ ೨
ಆತ್ಮಾಚ್ಞಾನಾದಹೋ ಪ್ರೀತಿರ್-
ವಿಷಯಭ್ರಮಗೋಚರೇ||
ಶುಕ್ತೇರಚ್ಞಾನತೋ ಲೋಭೋ
ಯಥಾ ರಜತವಿಭ್ರಮೇ||೨||
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Ashtavakra Gita
Chapter 3
Stanza 2
Alas, as from the illusion of silver caused by the ignorance of the pearl-oyester, arises the greed, even so does the attachment to the objects of illusory perception arise from the ignorance of the Self.
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