Saturday, 24 December 2022

विश्वं स्फुरति यत्रेदम्

अष्टावक्र गीता

अध्याय ३

श्लोक ३

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्ग इव सागरे।। 

सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि।।

अर्थ : जैसे सागर में (असंख्य) तरंगें उठती हैं, और विश्व उस सागर में उठनेवाली कोई तरंगमात्र है, उस अपनी आत्मारूपी सागर से ही विश्व का उद्भव होता है, - "वह मैं हूँ" इसे ठीक से जान लेने के बाद भी, क्यों दीन की तरह व्याकुल हो इधर-उधर भागते रहते हो!

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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೩

ಶ್ಲೋಕ ೩

ವಿಶ್ವಂ ಸೂಸುರತಿ ಯತ್ರೇದಂ ತರಙ್ಗಿ ಇವ ಸಾಗರೇ||

ಸೋऽಹಮಸ್ಮೀತಿ ವಿಜ್ಞಾಯ ಕಿಂ ದೀನ ಇವ ಧಾವಸಿ||೩||

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Ashtavakra Gita

Chapter 3 

Stanza 3

Having known yourself to be as I AM THAT in which the universe appears like waves on the sea why do you keep running about here and there, like a miserable being!

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