अष्टावक्र गीता
अध्याय ३
श्लोक ३
विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्ग इव सागरे।।
सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि।।
अर्थ : जैसे सागर में (असंख्य) तरंगें उठती हैं, और विश्व उस सागर में उठनेवाली कोई तरंगमात्र है, उस अपनी आत्मारूपी सागर से ही विश्व का उद्भव होता है, - "वह मैं हूँ" इसे ठीक से जान लेने के बाद भी, क्यों दीन की तरह व्याकुल हो इधर-उधर भागते रहते हो!
--
ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೩
ಶ್ಲೋಕ ೩
ವಿಶ್ವಂ ಸೂಸುರತಿ ಯತ್ರೇದಂ ತರಙ್ಗಿ ಇವ ಸಾಗರೇ||
ಸೋऽಹಮಸ್ಮೀತಿ ವಿಜ್ಞಾಯ ಕಿಂ ದೀನ ಇವ ಧಾವಸಿ||೩||
--
Ashtavakra Gita
Chapter 3
Stanza 3
Having known yourself to be as I AM THAT in which the universe appears like waves on the sea why do you keep running about here and there, like a miserable being!
***
No comments:
Post a Comment