अष्टावक्र गीता
अध्याय २
श्लोक २१
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अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।।
अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम्।।२०।।
अर्थ :
अरे! जनसमूह में होते हुए भी मुझमें द्वैत नहीं दिखाई देता। उस जनसमूह से घिरा होने पर भी मैं उससे वैसा ही असंबद्ध होता हूँ जैसे कि अरण्य असंख्य वृक्षों में होते हुए भी उनसे स्वतंत्र होता है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೨
ಶ್ಲೋಕ ೨೧
ಅಹೋ ಜನಸಮೂಹೇಪಿ ನ ದ್ವೈತಂ ಪಶ್ಯತೋ ಮಮ||
ಅರಣ್ಯಮಿವ ಸಂವೃತ್ತಂ ಕ್ವ ರತಿಂ ಕರವಾಣ್ಯಹಂ||೨೧||
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Ashtavakra Gita
Chapter 2
Stanza 21
O, I don't find any duality. Therefore, Even for Me, the multitude of human beings, has become like a wilderness. What should I attach myself to?
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