अष्टावक्र गीता
अध्याय ९
श्लोक ६
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरुः।।
निर्वेदसमता युक्त्या यस्तारयति संसृतेः।।६।।
(कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरुः। निर्वेदसमता युक्त्या यः तारयति संसृतेः।।)
अर्थ : निर्वेद और समत्व की युक्ति से जिसने चैतन्य को व्यक्त और अव्यक्त इन दोनों प्रकारों में जान लिया है, और जो संसार से सबका उद्धार कर सबको तार देता है, क्या वह गुरु ही नहीं है!
(इसे तीन भिन्न अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। एक अर्थ तो यह है कि ऐसा कोई भी मनुष्य वस्तुतः गुरुतुल्य है, दूसरा यह कि गुरु ही संसार में सबका उद्धार करने और सबको तारने के लिए ऐसे मनुष्य के रूप में अवतरित होता है। इसका तीसरा यह अर्थ यह भी ग्रहण किया जा सकता है कि चैतन्य ही एकमात्र गुरु है जो भिन्न भिन्न और अनेक मूर्तियों में प्रकट है।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೯
ಶ್ಲೋಕ ೬
ಕೃತ್ವಾ ಮೂರ್ತಿಪರಿಜ್ಞಾನಂ
ಚೈತನ್ಯಸ್ಯ ನ ಕಿಂ ಗುರುಃ||
ನಿರ್ವೇದಸಮತಾ ಯುಕ್ತ್ಯಾ
ಯಸ್ತಾರಯತಿ ಸಂಸೃತೇಃ||೬||
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Ashtavakra Gita
Chapter 9
Stanza 6
He, who by means of complete indifference to the world, equanimity and the reasoning, gains a knowledge of the true nature of the Transcendental Intelligence / Consciousness, and saves others from the world, - Is he not really the spiritual guide?
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