अष्टावक्र गीता
अध्याय ९
श्लोक १
अष्टावक्र उवाच :
कृताकृते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा।।
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद्भवत्यागपरोऽव्रती।।१।।
(कृत-अकृते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा। एवं ज्ञात्वा इह निर्वेदात् भव त्यागपरः अव्रती।।)
अर्थ : यह कर्म किया गया, यह नहीं किया गया, इस प्रकार के द्वन्द्व कब शान्त होते हैं, और ये किसके निमित्त हैं, इसे अभी ही और यहीं जान लो, और तटस्थ तथा सभी कर्ममात्र से उदासीन रहते हुए कर्तव्य-अकर्तव्य की भावना / व्रत से भी मुक्त हो रहो।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३)
सभी कार्य प्रकृति से प्रेरित गुणों के द्वारा किए जाते हैं, इसलिए गुण ही कर्ता हैं, प्रमादवश (because of In-attention) इस सत्य पर ध्यान न देना, और अपने आपको कर्ता मान लेना 'अहंकार' है। किन्तु जैसे ही, -कर्म किसके द्वारा और क्यों किए जाते हैं, यह जिज्ञासा की जाती है, यह समझा जा सकता है कि आत्मा अकर्ता और दृष्टामात्र है। और इस प्रकार कर्तृत्व के भ्रम और मिथ्या अहंकार से भी छुटकारा हो सकता है। और मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य के व्रत से भी अनायास मुक्त हो जाता है, क्योंकि तब यह देख लिया जाता है कि अहंकार केवल अनित्य कल्पना-मात्र है और अकर्ता आत्मा ही नित्य सत्य है।
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ಅಧ್ಯಾಯ ೯
ಶ್ಲೋಕ ೧
ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಉವಾಚ
ಕೃತಾಕೃತೇ ಚ ದ್ವನ್ದ್ವಾನಿ ಕದಾ ಶಾನ್ತಾನಿ ಕಾರ್ಯ ವಾ||
ಏವಂ ಚ್ಟಾತ್ವೇಹ ನಿರ್ವೇದಾಭವ ತ್ಯಾಗಪರೋऽವ್ರತೀ||೧||
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Ashtavakra Gita
Chapter 9
Stanza 1
Ashtavakra said : Duties done and not done as well as the pairs of opposites -- when do they cease and for whom! Knowing this, be intent on renunciation and be desire-less through complete indifference to the world.
Only because of In-attention to the reality that everything that happens is done by the attributes (गुण) of Prakriti (प्रकृति), and the Self is ever so Non-doer; relinquishing this sense of doer-ship, one can attain indifference to the world and what-so-ever that is done by the body, the mind and the 3 attributes (गुण).
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