Tuesday, 12 August 2025

The Mother of All!

MAYA/  माया

आवश्यकता आविष्कार की, और इसी प्रकार से कामना आवश्यकता की जननी होती है, अपूर्णता की भावना  कामना और अस्मिता ही अपूर्णता की। अविद्या अस्मिता की जननी होती है।

और यह अविद्या प्रमाद (In-attention) का ही दूसरा नाम है।

अविद्या अस्मिता राग-द्वेष तथा अभिनिवेश यही पाँचों क्लेश हैं जिनकी जननी है - माया और जिन्हें अज्ञान भी कहा जाता है।

समस्त प्रतीतियाँ बुद्धि में उत्पन्न होनेवाले आभास होते हैं और बुद्धि के सक्रिय होने के साथ ही मायारूपी प्रपञ्च प्रारम्भ होता है और बुद्धि का लय होते ही यह प्रपञ्च भी विलीन हुआ जान पड़ता है। बुद्धि का लय भी पुनः सुषुप्ति, मूर्च्छा, स्वप्न या समाधि (संप्रज्ञात या संप्रज्ञात, सविकल्प या निर्विकल्प, सविचारा या निर्विचारा) आदि स्थितियों  में से किसी भी स्थिति में हो जाया करता है। राग से आसक्ति और द्वेष से विरक्ति उत्पन्न होते हैं। राग तृष्णा को और विराग विरक्ति को जन्म देता है। राग-द्वेष की निवृत्ति होने का अर्थ है वैराग्य जागृत होना। जब यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्त दुःख और सुख दोनों ही एक दूसरे के ही भिन्न भिन्न प्रतीत होनेवाले प्रकार मात्र होते हैं और मूलतः क्लेश ही हैं, तभी वैराग्य का आविर्भाव होता है। किन्तु वैराग्य जागृत हो जाने मात्र से ही सारे क्लेशों का निवारण नहीं हो पाता है।

क्योंकि वैराग्य के जागृत हो जाने के बाद भी तितिक्षा रूपी तप करना होता है, क्योंकि -

मात्रा स्पर्शा तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्या ताँस्तिक्षस्व भारत।।१४।।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। 

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।

(गीता अध्याय २)

और, 

ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवतः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।२२।।

( गीता अध्याय ५)

तो, क्या किसी कर्म से कर्म की निवृत्ति हो सकती है?

ईश्वराज्ञया प्राप्यते फलम्। 

कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।

कृति महोदधौ पतनकारणम्। 

फलमशाश्वतम् गतिनिरोधकम्।।

ईश्वरार्पितं नेच्छया कृतं। 

चित्त-शोधकं मुक्तिसाधकम्।।

(उपदेश-सारः)

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

(गीता अध्याय २)

कुरुते गंगासागर गमनम् 

व्रतपरिपालनमथवा दानम्।

ज्ञानविहीनं सर्वमनेन

मुक्तिर्न भवति जन्मशतेन।।

(शंकराचार्य)

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Monday, 11 August 2025

U P I, N F T and

The Non-Convertible Assets.

These times are of

De-colonization and

De-Dollarization,

U P I (Universal Payment Instrument),

and the N F T (Non-fungible Tokens);

It's not easy to turn on and focus one's attention on the Non-Convertible Assets.

Instruments are instrumental, Tokens are subject to change according to the  conditions, Times, Place and valuations, but the Assets are ever so inconvertible, Real, invaluable, inexhaustible, and the Essential, Existential and the Timeless Dharma, the core-truth itself.

In Bharat -  भारत,  we call the Dharma as  the Indestructible, the Essential, the only Existential Principle -

अविनाशी, अव्यय।

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

[गीता अध्याय २]

Body is instrumental,

Mind / consciousness is Non-Fungible Token,

Self is indestructible, Non-Convertible Immutable Reality the Asset -

Dharma / धर्म ।

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Friday, 8 August 2025

3 I / Atles.

GOD, WORLD and Consciousness.

Could we possibly define what we may call -  God?

The World and the Consciousness are the obvious Realities and need not be defined. However, the God is always so uncertain and such a concept that one could only think of but never know if it exists really an essential Principle or is but a fictitious idea only in the mind.

Mind is consciousness, Or we could also say consciousness is mind as well.

The world is a continuity of experiences and perceptions in the consciousness.

The World and the consciousness are neither mutually different and distinct nor other than the perceptions.

Out of these Two principles, namely the World and the consciousness, emerges out the assumption of quite another an entity that is called the God.

Finding out, Exploring and Discovering the Underlying Essential Principle that is the Timeless and Ever Existent Truth implies there is consciousness where-in the Existence appears to be something like the World and all the Perception.

So God could easily be ruled out from this consideration.

Only because of the assumption and the erroneous idea of the "self" associated with the non-dual consciousness that is the only ignorance.

What is understood by this word - the Ignorance too is again only a name or a verbal situation and never a happening that could really be felt or experienced.

Ignorance as such is therefore only an abstract notion that becomes kind of a belief.

Even if there is something which or someone Who might be called God, a Superior Omniscient, Omnipotent and Omnipresent consciousness that is said to create, to maintain and ultimately to annihilate its creation, that may not be different and distinct other than this World and the consciousness. We can perhaps say this is the only Non-Dual Reality. It could therefore neither be a Superior nor inferior to the All That Is, is seen, known, and is experienced. We could further extend It to a so-called a Beginningless Time and an expanse in terms of limitless Space. 

In conclusion, no distinction any as the object and the subject in this perception of God and the "self " could be there. If this could be agreed upon, there is also neither the independent "Action" - the "Karma", nor a virtue or a sin and the consequences. But as soon as "self" is given reality, at once the idea of the one "Who" is supposed to perform such an  "Action" and has to experience, and go through the consequences assumes an apparent existence. This is verily the "Bondage" and has neither a beginning nor an end in sight. Though one may go on trying there is no release whatever.

तपस्विभ्योधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्योश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।४६।।

(गीता अध्याय ६, Shrimadbhagvad-gita 6/46)

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Friday, 1 August 2025

EGO and LET GO.

अभिमान और त्याग

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।२२।।

(गीता अध्याय ९)

निवृत्तिनाथ, सोपान, ज्ञानदेव और मुक्ता ये चारों थे तीन भाई और उनकी एक बहन। सबसे ज्येष्ठ थे निवृत्तिनाथ, उनसे छोटे सोपान, सोपान से छोटे ज्ञानदेव और तीनों से छोटी थी मुक्ता।

वे चारों ही अपने पूर्वजन्म में ही ब्रह्मनिष्ठ और आत्मनिष्ठ ज्ञानी की स्थिति प्राप्त कर चुके थे। संसार से उनके पिता का घोर वैराग्य होने पर भी प्रारब्ध से उनके माता पिता ने उनका विवाह कर दिया था और फिर शीघ्र ही वे घर से चले गये। घूमते हुए वे काशी पहुँचे और किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ तत्वज्ञानी संन्यासी से संन्यास दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्हें दीक्षा प्रदान करनेवाले गुरु से दीक्षा प्राप्त करने के बाद वे आध्यात्मिक साधना में संलग्न हो गए। उनकी धर्मपत्नी को जब पता चला कि वे काशी में हैं और उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया है, तो अपने पति की खोज करते हुए वे काशी जा पहुँची। अपने पति के संन्यास दीक्षा देनेवाले उस गुरु से वे मिली और उन्हें यह जानकारी दी। तब उन दीक्षागुरु ने उनके पति से कहा कि उनकी संन्यास दीक्षा में विधि का उल्लंघन हुआ है इसलिए वे इसके अधिकारी नहीं हैं। उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि पहले वह गृहस्थ आश्रम में लौट जाए और फिर उपयुक्त समय आने पर ही उन्हें संन्यास दीक्षा दी जा सकेगी। वे लौट आए और बहुत समय तक जैसे तैसे गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों का निर्वाह करने लगे। इस बीच उनके गाँव और समाज के लोग संन्यास ले लेने के बाद गृहस्थ आश्रम में लौट आने से उन्हें ताने देने और अपमानित करने लगे। इस तरह से जीवन व्यतीत करते हुए उन्हें ये चार संतानें प्राप्त हुईं। ये चारों अभी बच्चे ही थे कि उनके माता पिता ने गाँव और समाज में निरंतर हो रहे अपने अपमान से क्षुब्ध होकर जीते जी चिता प्रज्वलित कर आत्मदाह कर लिया।

उनकी इन चारों संतानों का जन्म और जीवन उनके लिए यद्यपि एक नाटक या लीला ही था क्योंकि वे पूर्वजन्म से ही ब्रह्मनिष्ठ और आत्मनिष्ठ होते हुए और अनन्य भाव से परमात्मा का चिन्तन करते हुए अनायास परमात्मा की अनन्य भक्ति में संलग्न थे।

चित्त में यह भक्ति जागृत होने के लिए यह आवश्यक है कि अभिमान का पूर्ण और स्वाभाविक रूप से त्याग हो चुका है। यह त्याग कौन करता है? त्याग स्वाभाविक न होने पर अभिमानपूर्वक किया जाता है और यह वस्तुतः त्याग नहीं होता। अभिमान शब्द अभि उपसर्ग से युक्त मान का द्योतक है। अभि उपसर्ग का प्रयोग अभिनव, अभिराम, अभियोग, अभियुक्त, अभिषेक, अभिधा आदि समासों में देखा जा सकता है।  ऊपर दिए गए श्लोक में भी इस उपसर्ग का प्रयोग "नित्याभियुक्तानां" पद में इसी अर्थ में है। यहाँ अभियोग का अर्थ आरोपी से भिन्न और यह है कि जो नित्य परमात्मा का अनन्य भाव से चिन्तन करता है और इस अर्थ में परमात्मा से अपनी अभिन्नता जानते हुए अपने आपके उससे भिन्न होने का अभिमान नहीं करता ऐसी भक्ति करनेवाला कोई भक्त। परमात्मा के प्रति ऐसी भक्ति उत्पन्न होने का कारण क्या हो सकता है यह तो नहीं कहा जा सकता है, किन्तु यह तो अवश्य सत्य है कि इससे पहले चित्त में अभिमान का पूर्ण नाश हो जाना चाहिए। यह नाश बाह्यतः तो आत्मानुसंधान से और प्रकारान्तर से संसार की अनित्यता का भान होने पर ही संभव होता है। इसे ही अनन्य निष्ठा भी कहा जा सकता है जिसे ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण होने का फल भी कह सकते हैं। तात्पर्य यह कि ऐसी निष्ठा जिसे ज्ञान और योग के दो भिन्न प्रतीत होनेवाले रूपों में एक ही फल प्रदान करनेवाला कहा जाता है।

प्रायः हर मनुष्य के मन में केवल दो ही कारणों से

"ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं?"

यह प्रश्न ही उठा करता है।

पहला कारण है केवल किसी से सुनकर विचार के रूप में जगत को बनानेवाले ऐसे किसी व्यक्ति, दिव्य शक्ति के अस्तित्व की कल्पना कर लेने पर, या दूसरा कारण होता है जीवन में दुःखों, पीड़ाओं और कष्टों से अत्यन्त त्रस्त और व्याकुल हो जाने पर इनसे अपना उद्धार करनेवाले किसी उद्धारकर्ता की कल्पना से। इन दोनों ही कारणों से ईश्वर के अस्तित्व को माननेवाले या अस्वीकार करनेवाले में अपने व्यक्ति विशेष होने का भाव विद्यमान होता है। यही अभिमान है।

क्या यह अभिमान स्वयं को मिटा सकता है? क्या ऐसा कोई और उपाय हो सकता है जिससे इस अभिमान का निवारण संभव हो?

ऐसे दो ही उपाय उस पात्र और अधिकारी मनुष्य के लिए हो सकते हैं जिसमें सीधे ही आत्मा के स्वरूप को जानने की उत्सुकता या गहरी उत्कंठा हो या जो अभ्यास करता हुआ अभ्यास योग का आश्रय लेकर सतत परमात्मा का स्मरण करता है। और किस कारण से वह परमात्मा का स्मरण करता है वह कारण नहीं, बल्कि महत्व इसका है कि चित्त या मन में वह उस किसी परमात्मा का निरंतर स्मरण करता है जो उसके कष्टों को सदा के लिए समाप्त कर सकता है। और उसके मन में शायद 

"ईश्वर का अस्तित्व  है या नहीं?"

यह प्रश्न भी कभी न उठा हो।

क्योंकि जीवन में दुःख, पीड़ाएँ और कष्ट तो निरंतर और नित्य अनुभव हो रहा तथा सत्य प्रतीत होनेवाली वस्तु है जिसके अस्तित्व पर किसी को कभी सन्देह हो ही नहीं सकता। और तब वह उन दुःखों, पीड़ाओं और कष्टों से मुक्ति पाना चाहता है। कभी कभी और प्रायः हमेशा ही वह यह तक नहीं देख पाता है कि वस्तुतः ये दुःख, कष्ट और पीड़ाएँ कम या अधिक भी होते हैं तो भी मृत्यु आने तक बने ही रहते हैं और मृत्यु की विचार तो दूर, कल्पना तक कोई नहीं करना चाहता है।

जीवन और संसार को केवल क्लेश ही समझ पाने पर जो त्याग मन में उत्पन्न होता है फिर उस त्याग का भी  अभिमान हो सकता और होता ही है और तब यह एक और भी अधिक कठिन प्रश्न या समस्या हो जाता है। 

***


 

JUST AS ...

Día de los Muertos

In Spanish, This means :

The Day of Dead. 

यथा हि 

शब्देनावरितं मौनं नित्यमनित्येन यथा।

रूपेण रूपमावरितं नैष्कर्म कर्मणा तथा।।

कालेन दृश्यं सर्वं सत्यमपि च मिथ्यया।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।

--

A couple of days ago I composed this.

This was incomplete, saved as a draft. 

Today I found this Spanish sentence.

Everyday is the Day of the Dead.

Those who are today alive too will die some day.

But again really no one ever does, for no one is born.

The birth and death happen never to one who never dies nor is born. 

The consciousness where-in and from where the sense of the existence of the world and the individual the one-self arise and subsequently disappears too, but the consciousness never arises nor disapears.

Though the memory of those who loved us and who we loved to causes the idea that they are no more.

In death the recognition of oneself and those who we knew comes to end, the consciousness remains unaffected. This is same as the collective consciousness, and is shared by all who appear to have been born and subsequently die too.

Another stanza comes to mind -

न जायते म्रियते वा कदाचन्नायं भूत्वाऽभविता च भूयः। 

अजो नित्यो शाश्वतमयं पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

So no need to grieve for the dead.

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। 

तथापि त्वं महाबाहो नैव शोचितुमर्हसि।।२६।।

(गीता अध्याय २)

Because :

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवो जन्म मृतस्य च। 

तस्मादपरिहार्यार्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।

(गीता अध्याय २)

***





 

Sunday, 27 July 2025

Vires Naturae

Forces of Nature

--

Unaware of themselves,

Interact with one-another

Giving rise to phenomenal Existence.

The Underlying Principle,

Latent behind them, however,

Shines up in the myriad reflections.

Giving rise to phenomenal individual, 

Who assumes the form of person.

The same Forces of Nature, 

Interacting with themselves,

Maintain for a spell of time, 

The brief continuity of the person, 

Who is but a temporary phase only. 

Soon the whole drama is wound up.

The Forces return to themselves,

Dissolving into the Great Void. 

Silent, Unaffected, Unaware, 

Of whatever happened.

***  


Wednesday, 23 July 2025

Automatic Divine Action.

ईश्वरीय संकल्प 

जब राजा दशरथ को ज्ञात हुआ कि प्रमादवश कितना बड़ा अनर्थ और अनिष्ट उनके हाथों से हुआ है तो राजा दशरथ बहुत ही व्यथित और अत्यन्त व्याकुल हो उठे।  लौटकर वे वन में स्थित उस स्थान पर पहुँचे जहाँ उनके साथ आए सैनिक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दो सैनिकों को उन्होंने तुरंत ही द्रुत गति से अयोध्या जाकर अपने कुलगुरु वसिष्ठ से इस वृत्तान्त का विवरण देने के लिए कहा। काँवडधारी श्रवण कुमार और उसके वृद्ध माता-पिता के शवों को सम्मान के साथ सुरक्षित रखने की व्यवस्था करने के बाद वे कुछ समय तक उद्वेलित मन से श्रीहरि से उनकी सद्गति और अपने अपराध के लिए क्षमा की प्रार्थना बारम्बार प्रार्थना करते रहे।

सुबह होते होते उनके कुलगुरु और कुलपुरोहित वसिष्ठ राज्य के दूसरे पुरोहितों के साथ आ पहुँचे जहाँ सरोवर के उस तट पर तीनों शवों का विधिपूर्वक दाह संस्कार कर दिया गया। फिर वे सभी अयोध्या लौट आए।

शीघ्र ही यह वार्ता संपूर्ण अयोध्या में जंगल की आग की भाँति फैल गई। प्रजा दुःखी तो थी, किन्तु हर किसी ने यही सोचा कि राजा के हाथों हुआ यह अपराध अनजाने में ही हुआ था, जिसमें वे नियति के क्रूर हाथों के एक यंत्र भर थे। इसके बाद उनके कुलगुरु के द्वारा पुनः पुनः दी गई सान्त्वना से भी उनके हृदय का क्षोभ तनिक भी कम न हो सका। ऐसे ही अनेक वर्ष बीत गए। राजा की तीनों रानियाँ भी राजा के दुःख से दुःखी रहती थी। बहुत वर्षों तक निःसंतान रहने के बाद एक दिन उनके कुलगुरु और राजपुरोहित ऋषि वसिष्ठ ने उनसे कहा :

महाराज! आपका तप पूर्ण हुआ। अब तक आपकी तीनों रानियों ने भी आपके दुःख को कम करने के लिए यथेष्ट प्रयत्न किया और यद्यपि निःसंतान होने का अभिशाप और उसकी पीड़ा आपके साथ उन्होंने भी झेली, किन्तु यह तो विधि का विधान था जिसे बदल पाना मनुष्य के वश की बात नहीं है। आप भी वेदों के तात्पर्य को जानते ही हैं। अब आप संकल्प-पूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान कीजिए ताकि साक्षात् भगवान् नारायण श्रीहरि आपको पुत्र की तरह संतान के रूप में प्राप्त हों।

तब से राजा दशरथ निरन्तर भगवान् नारायण श्रीहरि का मन ही मन स्मरण करने लगे।

इससे पहले भी अपनी तीनों रानियों से उनका अत्यधिक प्रेम था, किन्तु अब तक उस प्रेम में राग की ही अधिकता थी। अब कुलगुरु के वचनों को सुनते ही रानियों के प्रति उनके प्रेम से राग की अत्यन्त निवृत्ति हो गई और उसका स्थान भगवान् नारायण श्रीहरि के स्मरण ने ले लिया।

कुलगुरु का निर्देश प्राप्त होने पर नियत समय पर अपनी तीनों रानियों के साथ उन्होंने संकल्प-पूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ के अनुष्ठान की दीक्षा ली और फिर चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन भगवान् नारायण श्रीहरि ने उनकी तीनों रानियों से उनकी चार संतानों :

श्रीराम लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूप में जन्म लेकर उनके शोक का निवारण कर दिया, उन्हें हर्षविभोर और पुलकित कर दिया।

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Tuesday, 22 July 2025

Collective Consciousness

THE ONLY ISSUE :

WhatIsDharma / adharma / vidharma?

धर्म / अधर्म और विधर्म 

नेति नेति इति च ।

संसार में मनुष्य ही संभवतः एकमात्र विचारशील प्राणी है, जो न केवल अपने आप से, बल्कि अपने जैसे दूसरे मनुष्यों से शाब्दिक विचार के माध्यम का प्रयोग करते हुए अपने मन्तव्य का आदान-प्रदान करता है। और यह आदान-प्रदान भी किसी उस विशेष भाषा के माध्यम से ही किया जाता है, जिसका प्रयोग दोनों कर सकते हों।

शायद आपने कभी ध्यान दिया होगा कि जीवन के किसी भी क्षण में एकाएक अनपेक्षित रूप से कुछ ऐसा होता है और जो आपको अगले ही पल उस सबसे इतनी दूर ले जा सकता है जिसकी आपने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होती है।

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।।२४।।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व बीजम्।।२५।।

(पातञ्जल योगदर्शन - समाधिपाद) 

इसे शायद  

Automatic Divine Action / Will

ईश्वरीय संकल्प या आदेश

कहा जा सकता है। कुछ ऐसा लगभग हर किसी के ही  साथ प्रायः होता रहता है। अगर मन अतीत की स्मृतियों में डूबे रहने से और भविष्य की कल्पनाओं का अनुमान करते रहने की अभ्यस्तता से मुक्त हो तो इच्छा द्वेष और भय उस पर आधिपत्य नहीं कर सकते और तब वह - "जो होता है" उसका सामना करने के लिए उत्सुकता और उत्साहपूर्वक तैयार रह सकता है।

सवाल यह भी नहीं है कि अपने आपसे भिन्न और पृथक् किसी दूसरे ऐसे "ईश्वर" का अस्तित्व है या नहीं जिससे प्रार्थना की जा सकती हो, क्योंकि वैसे भी अभी तो हम ऐसे किसी संभावित "ईश्वर"  से अनभिज्ञ हैं, और इससे भी कि उसका अस्तित्व है या नहीं! किन्तु अगर अपने जीवन में क्षण प्रतिक्षण जो कुछ भी होते जा रहा है, उस घटनाक्रम पर दृष्टि डालते तो तत्काल ही देख और समझ सकते हैं कि किसी अज्ञात दिशा से, और किसी अज्ञात तथा दिव्य सत्ता के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि आगे क्या होने जा रहा है। उसे हम "ईश्वर"  यह नाम न भी दें तो भी "विधाता"  तो कह ही सकते हैं, और यह भी कि वह "विधाता" कोई व्यक्ति विशेष नहीं, बल्कि चेतन शक्ति विशेष है। चेतन का अर्थ है चेतना से युक्त, और शक्ति का अर्थ है प्राणवान। अर्थात् न तो वह कोई जड वस्तु है और हमारी तरह बुद्धि के सहारे कार्य करनेवाली सत्ता। कोई भी जड वस्तु स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकती बल्कि प्रकृति के नियमों से परिचालित होकर ही कार्य के होने में कारक होती है। जबकि दूसरी ओर, सभी चेतन / जीवनयुक्त और प्राणयुक्त वस्तुएँ या जीव हर समय अपनी बुद्धि से ही परिचालित होकर कार्य करने में संलग्न होने के लिए अपरिहार्यतः बाध्य होते हैं।  साथ ही यह भी सत्य है कि बुद्धि समय समय पर भिन्न भिन्न प्रकार से व्यक्त होती है। बुद्धि सदा स्मृति पर निर्भर होती है और स्मृति इन्द्रियानुभवों पर। और "जो होता है" या "होने जा रहा होता है" वह स्मृति या इन्द्रियों के किसी भी अनुभव से पूरी तरह से स्वतंत्र और निरपेक्ष होता है, जिसका पूर्वानुमान तो लगाया जा सकता है किन्तु ठीक ठीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

कुछ ऐसा ही वाकया आज दो घन्टे पहले हुआ जब मैं परमहंस योगानन्द 

(जिनकी लिखी पुस्तक : योगी कथामृत -

Autobiography of a Yogi 

आज से लगभग चालीस वर्ष पहले पढ़ी थी।)

जिससे संबंधित एक वीडियो यू-ट्यूब पर दिखाई पड़ा। यह मनुष्यों के रक्त-समूह / blood-groups , उनके स्वभाव और प्रेरणाओं, मनोवृत्तियों, उनके द्वारा किए जानेवाले कर्मों के बीच के संबंध के बारे में था। इस वीडियो में मनुष्य के चार रक्त-समूहों और उनकी विशेषताओं का वर्णन किया गया था। इस वर्णन में A,  B, AB और O रक्त-समूहों और उनकी विशिष्टताओं के बारे में जैसा कहा गया था उस बारे में मैं प्रायः उसी तरह सोचा करता था और उसे श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 4 के श्लोक 13 के परिप्रेक्ष्य में पूर्णतः सुसंगत पाता था -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं

गुण-कर्म-विभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धि-

अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

शायद उसे ही वह "विधाता / ईश्वर" कहा जा सकता है, जो अपनी दैवी, गुणमयी माया से परिचालित करता हुआ क्षण क्षण और प्रतिक्षण ही उन कर्मों के होने में हमें यंत्र की तरह प्रयुक्त करता है और हम चाहते या न चाहते हुए भी यंत्रवत् उन्हें करने के लिए बाध्य होते हैं। उत्तेजना या आवेश में, संशय, संकल्प, आशा, लालसा या भय से युक्त होकर, कर्तव्य या आदेश समझकर। 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।६१।।

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Monday, 9 June 2025

A Land-mark Mile-stone...

Why it's a New Beginning?
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The last post is a land-mark in the sense that I see a common thread between the teachings of

Sri Ramana Maharshi -
श्री रमण महर्षि,

Sri J. Krishnamurti  -
श्री जे. कृष्णमूर्ति

and

Sri Nisargadatt Maharaj -
श्री निसर्गदत्त महाराज.

Moreover, I also see how the very same teaching is there also in the -

Srimadbhagvadgita /-
श्रीमद्भगवद्गीता.

In order to elaborate and elucidate this point, I wish to write a few more verses in continuation in the next posts.

***

 





Friday, 6 June 2025

Another Beginning!!

भारद्वाजकृता

अष्टावक्रगीता

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत् त्यज।

विषयान् परित्यक्त्वा विषयिनमपि त्यज।।1।।

(The first line of the verse here as such is borrowed from the first verse of the :

संस्कृत अष्टावक्र गीता,

While the second line has been composed by myself.)

विषय-विषयिनौ वृृत्तिः द्विधैव अवगम्येते।

अहंवृत्तिर्हि एका या स्फुरति स्फुटिता तथा।।2।।

का एषा अत्र अहंवृत्तिः वर्तते विलीयते इति।

विषयान् सहोद्भवति विषयान् सह प्रविलीयते।।3।।

यस्मिन् बोधमये भाने विषय-विषयिनौ वर्तेते।

स भानः नैव उद्भवति न याति विलयं तथा।।4।।

एतद् विमर्ष्य परिवीक्षेण अवधानं तथा व्रजेत्।

अवधानो स्वरूपः स्यात् अवधानः मुक्तिः अपि।।5।।

कर्ता, भोक्ता वा स्वामी को, कस्य स्विद्धनमिदम्।

इति दृष्ट्वा त्यजेत्सर्वं त्यक्तारमपि ततः त्यजेत्।।6।।

यतो हि -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।14।।

नादत्ते कस्यचित् पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।15।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।16।।

--

इति श्रीमद्भगवद्गीतायां पञ्चमे अध्याये।।

अपि यावत्किञ्च संशोधनमपेक्ष्यते अत्र?

अवगन्तव्यम्।।

इति शं।।

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This may need further editing,

So please note!

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Saturday, 3 May 2025

The Itinerary

To be edited. 

मुकेशजी वत्स

एक रोचक  YouTube video. 

इस पर विस्तार से लिखने का मन है।

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Wednesday, 9 April 2025

The Evangelist.

समय, संबंध, संपत्ति और संकट

उनके संसार में, उनकी दृष्टि से, वे एक 'सफल' स्वनिर्मित (successful, self-made person) मनुष्य थे। 

उन्होंने और उनका परिवार जो पहले सनातन धर्म की परंपराओं का पालन करता था, सनातन धर्म की सभी परंपराओं और संस्कृति को पूरी तरह से त्याग दिया था। और तब से वे सनातन से भिन्न किसी अन्य परंपरा में मतान्तरित हो गए थे  क्योंकि यह सुविधाजनक भी था।

किसी भी मत या विश्वास में सिर्फ बाध्यता, प्रलोभन या भय से, सुरक्षित अनुभव करने से मतान्तरित हो जाना तात्कालिक रूप से यद्यपि लाभप्रद जान पड़ सकता है, किन्तु कभी न कभी इसके भयावह परिणामों का सामना भी अवश्य ही करना ही पड़ता है।

वे प्रायः अपनी ही पूर्व-संस्कृति, परंपराओं और मत का उपहास भी किया करते थे और मतान्तरण के शॉर्ट-कट से प्राप्त हुई सफलताओं पर उन्हें गर्व भी होता था। वैसे पहले वे शुद्ध शाकाहारी थे लेकिन मतान्तरित हो जाने के बाद उन्हें शाकाहार के दोष दिखाई देने लगे थे। 'अहिंसा' अब उनकी दृष्टि में डरपोक मानसिकता का ही लक्षण हो चुका था।

मैं उनके इस सब इतिहास से अनभिज्ञ था। उन्हें पता था कि मैं किन परंपराओं और संस्कृति को महत्व देता था। वे मुझे एक औसत 'बुद्धिजीवी' ही मानते थे, इसलिए भी उन्हें लगता था कि मुझसे मेल-जोल रखने पर भविष्य में मुझे भी उनके अपने उस विश्वास में वैसे ही मतान्तरित कर सकेंगे, जैसे कि अभी तक बहुत से लोगों को करते आए थे।

वे कभी कभी और प्रायः ही कहा करते थे -

हर व्यक्ति की एक 'फिलॉसाफी' होती है। उनका मतलब यह था कि हर व्यक्ति जन्म या संस्कार से, या सामाजिक परिस्थितियों के कारण, सोच-विचार के किसी तय साँचे में किसी 'विश्वास' से बँधा होता है। और हर कोई ही ऐसे ही किसी 'विश्वास' में संसार में, और अपनी मृत्यु के बाद भी स्थायी, अन्तहीन सुरक्षा और अनन्त सुख-भोगों को भी प्राप्त कर सकता है। उनका 'विश्वास', मत या मतलब या फिलॉसाफी यही थी। उनका मतलब, फिलॉसाफी या 'विश्वास' भी केवल उनकी 'स्मृति' पर आधारित उनकी एक मनोदशा भर ही थी, इस ओर उनका ध्यान न तो जा सका था, न ही वे इस बारे में जानने या समझने के लिए उत्सुक ही थे।

समय, संबंध, और संपत्ति इसी प्रकार से, हर मनुष्य की ही बुद्धि को मोहित कर लेते हैं कि वह किसी न किसी 'विश्वास' से ग्रस्त हो जाता है। यह 'विश्वास' किसी 'दिव्य' सत्ता के अस्तित्व के आग्रह का रूप भी ले सकता है जो कट्टरता की हद तक जा सकता है, जिसके लिए आप न केवल अपने बल्कि दूसरों के प्राण भी ले सकते हैं, और इससे भी बढ़कर दूसरों को अपने 'विश्वास' में मतान्तरित करने को एक ऐसा पुण्य-कार्य भी मान सकते हैं जिससे वह 'दिव्य' सत्ता आप पर प्रसन्न हो सकती है। आप उन सभी के प्राण लेने को भी अपना महानतम पावन कर्तव्य भी मान और समझ सकते हैं जो आपकी उस इष्ट 'दिव्य' सत्ता के अस्तित्व पर संशय करते हैं, संक्षेप में, वे सभी, जो 'नास्तिक' हैं, या जो आपके 'विश्वास' से भिन्न किसी अन्य मत को मानते हैं।

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Monday, 24 March 2025

What is (in) the Name?!

My Thoughts!

मेरे विचार!

किसी से भी परिचय और बातचीत प्रारंभ करने के लिए कोई न कोई बहाना होता है, और न हो तो बना भी लिया जा सकता है।

ऐसे ही आज एक नए, अब तक अपरिचित एक व्यक्ति ने मिलने का अनुरोध करने के लिए फोन किया।

नाम सुनकर क्षण भर को लगा कि यह या तो कोई बहुत विख्यात व्यक्ति है या इस नाम से जाना जानेवाला दूसरा कोई और है।

किसी परिचित मित्र का उल्लेख करते हुए उसने मुझसे कुछ प्रारंभिक बातचीत करने के बाद कहा -

"आपके विचारों के बारे में उनसे सुना। उम्मीद है आपसे कुछ सीखने को मिलेगा।"

"मेरे विचार?"

"जी"

फिर एक-दो दूसरी बातों के बाद तय हुआ कि एक या दो दिन में वे मुझसे मिलने आ रहे हैं।

उनके नाम से यह भी प्रतीत हुआ कि शायद इस नाम से पहले उनका कोई और नाम रहा होगा और जैसे बहुत से लोग किसी समय अपने माता पिता द्वारा प्राप्त हुए नाम को बदलकर किसी कारण या उद्देश्य से दूसरा कोई नाम अपनी नई एक और पहचान बनाने के लिए रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने यह नाम रख लिया होगा। 

क्या नाम और पहचान वास्तविक हो सकते हैं! क्या नाम और पहचान एक अस्थायी और सुविधाजनक स्मृति ही नहीं होती जो बहुत अधिक समय बीतने के बाद स्वयं ही मिट जाती है!

और विचार?

जैसे किसी का नाम एक कामचलाऊ और तात्कालिक पहचान और स्मृति भर होती है, न कि ऐसी कोई वस्तु जो वह स्वयं हो, वैसे ही क्या यह संभव है कि "विचार" भी किसी के "अपने" होते हों! और यद्यपि कोई दावा भी करे कि ये विचार उसके नितान्त निजि हैं उसके अपने ही और "स्वतंत्र" भी हैं, तो भी क्या उन्हें वह अक्षरशः उन्हीं शब्दों में हमेशा याद भी रख सकता है? क्या वह वैसे भी किसी भी क्षण उसकी इच्छा के अनुसार उन्हें बदल या त्याग नहीं सकता है? और अधिक संभव तो यही है कि जाने अनजाने या और भी किन्हीं कारणों तथा परिस्थिति में वह ऐसा करने के लिए बाध्य भी हो सकता है।

विडम्बना यह है कि किसी की औरों से भिन्न अपनी कोई विशेष पहचान होती ही नहीं है, न हो ही सकती है। और जो भी होती है वह केवल कामचलाऊ, तात्कालिक और क्षणिक होती है। और इस सरल तथ्य को समझ न पाने और स्वीकार न कर पाने से हर कोई अपनी कोई स्थायी, ठोस ऐसी पहचान बनाने या स्थापित करने के प्रयास में संलग्न हो जाता है जो मन में गढ़ी या रची गई हो, और जो उसे अत्यन्त प्रिय हो। यह कोई नाम हो सकता है या कोई सिद्धान्त, शब्द जो कि किसी आदर्श का द्योतक भी हो सकता है। क्या मन इस प्रकार स्वयं ही अपने ही द्वारा सृजित किए गए एक दुष्चक्र में नहीं फँस जाता?

जब किसी का नाम भी केवल एक औपचारिकता और उपयोगिता से अधिक कुछ नहीं हो सकता तो "उसके" उन "विचारों" के बारे में क्या कहा जाए जो दिन प्रतिदिन और समय समय पर नए नए रूपाकारों में बदलते और ढलते रहते हैं?

याद आया --

"नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा...

मेरी आवाज ही पहचान है,  गर याद रहे!"

मनुष्य की आवाज़ जरूर ऐसी अपेक्षाकृत स्थिर पहचान होती है जिसे न तो कोई बदल सकता है, न भूल सकता है, भले नाम और चेहरा भूल जाए।

और अपना कोई नाम और चेहरा कहीं होता ही कहाँ है! 

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Tuesday, 18 March 2025

A Short Story.

अन्तर्दर्शन

आज सुबह एक पोस्ट लिखा था जिसमें कल के प्रसंग का उल्लेख भर किया था -

बहुत समय से यह होता रहा है कि स्वप्न जैसी किसी अवस्था में किसी दूसरे लोक से संपर्क स्थापित हो जाता है। लगभग पूरी एक कहानी मैं पढ़ रहा होता हूँ या किसी से बात कर रहा होता हूँ। सामान्य जैसे कुछ लोग मुझसे जुड़े होते हैं। कभी कभी मुझे स्मरण रहता है कि यह जो मैं देख रहा हूँ वह स्वप्न है जबकि वस्तुतः मैं कहीं सोया हुआ होता हूँ और जाहिर है कि स्वप्न की उस अवस्था में मैं यह नहीं जान सकता हूँ कि मेरा शरीर जो सोया हुआ है वह इस समय कहाँ होगा। और यह भी लगता है कि मैं फिर भी स्वप्न से बाहर नहीं जा सकता। स्वप्न प्रिय हो या अप्रिय, रोचक हो या उबाऊ, भयानक हो या मनोरंजक, पूरा होने तक चलता रहता है। कभी कभी बीच में ही टूट भी जाता है और मुझे समझ में आ जाता है कि यह अब टूटने ही वाला है, और मैं जागने ही वाला हूँ। उसी समय मन में यह खयाल भी आता है कि इस स्वप्न को भूलना नहीं है। फिर भी बहुत बार यह भी होता है कि जाग जाने पर मैं उसे चाहकर भी याद नहीं कर पाता हूँ। अचानक मानो एक पर्दा बीच में आता है और उस स्वप्न की स्मृति पर पड़ जाता है। कभी कभी कुछ याद भी रह जाता है और मैं उसे लिख रखने के बारे में सोचने लगता हूँ। कभी कभी लिख भी लेता हूँ। कभी कभी लिख पाना नहीं भी हो पाता है। लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि उस स्वप्न में भविष्य में होनेवाली घटनाओं के संकेत भी दिखलाई देते हैं। कभी कभी कुछ ऐसा भी कि वह मेरे लिए किसी नए पोस्ट को लिखने की प्रेरणा बन जाता है। 

जैसे कि बहुत दिनों पहले ऐसे ही एक स्वप्न में मुझसे एक व्यक्ति ने पूछा था :

"प्रभु" और "विभु" के बीच क्या अंतर है?

तब उत्तर में मैंने उसे गीता के अध्याय १० का यह श्लोक सुनाया था --

यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।

और फिर तत्काल ही अध्याय ५ के यह श्लोक भी -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।१६।।

फिर मैंने उसे बतलाया कि प्रभु वह विश्वचैतन्य है जो कि विभूति की तरह प्रत्येक जड चेतन में बाह्यतः अभिव्यक्त होता है जबकि उस रूप में वह जड या चेतन भूत विभु वह जन्तु विशेष है जिस पर कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और व्यष्टि-स्मृति रूपी अज्ञान आवरित हो जाता है।

कोई व्यक्ति कभी कभी प्रारब्धवश उस समष्टि स्मृति से संपर्क में होता है जहाँ पर भूत, वर्तमान और भविष्य की स्मृति उसके सम्मुख होती है। तब उसे अनायास ही जिस भविष्य का दर्शन होता है वह वैश्विक समष्टि स्मृति से ही उसे दिखाई देता है। नॉस्ट्रेडेमस, बाबा वैंगा या ऐडवर्ड कैसी जैसे भविष्यदर्शी और दूसरे भविष्यवक्ता इसी तरह से भविष्यवाणियाँ करते हैं। उनके पास स्वेच्छया प्राप्त की जा सकनेवाली वह सिद्धि नहीं होती जो कि ऋषियों को योग साधना से प्राप्त होती है। और इसलिए कोई भी व्यक्ति कभी कभी तो अनायास ही भविष्य में होनेवाली किसी घटना को स्वप्न में या स्वप्न जैसी अवस्था में देख लिया करता है।

प्रभु के लिए सब कुछ अवतार रूप में उसके माध्यम से हो रही "लीला" भर होता है, जबकि विभु के लिए यही उसका प्रारब्ध होता है।

स्वप्न टूटने के बाद कुछ समय मैं इस अनुभव पर विस्मय में डूबा रहा कि इस स्वप्न ने किस प्रकार आकर मेरे मन को भावविभोर कर दिया।

यह भी थोड़ा विचित्र ही है कि इस पोस्ट में कल के जिस स्वप्न का उल्लेख मैं करना चाहता था वह नहीं कर पाया। शायद फिर कभी! 

समष्टि स्मृति या आकाशीय स्मृति

Cosmic Memory. 

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Monday, 17 March 2025

The Tradition.

शिक्षा भाषा और परंपरा

संस्कृत शास् - शासयति धातु से व्युत्पन्न शिक्षा शब्द का प्रयोग शासन करने और पर्याय से किसी और को उचित  आचरण करने के लिए मार्गदर्शन देने के अर्थ में होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् का प्रारंभ ही शीक्षा वल्ली से होता है। यह जानना रोचक होगा कि हिन्दी और समूचा भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित "शाह" उपनाम इस "शास्" का ही अपभ्रंश है जो फ़ारसी और संभवतः अरबी भाषा में "शाह" में परिणत हो गया। यह इसलिए भी हो सकता है कि इससे जुड़ा एक और शब्द "पाद" भी "पद" के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इन दोनों पदों के समास से बना शब्द "पादशास्" का प्रयोग उस पुरातन समय से प्रचलित है,  जब भगवान् श्रीराम के भाई भरत और शत्रुघ्न को मामा के घर से अयोध्या लौटने पर पता चला कि माता कैकेयी को महाराज दशरथ के द्वारा दिए गए दो वचनों को पूरा करने के लिए श्रीराम को चौदह वर्ष के लिए वनवास में भेज दिया गया है और माता सीता तथा भाई लक्ष्मण भी उनके साथ वन को चले गए हैं।

अनुनय विनय और आग्रह ने के बाद भी भगवान् श्रीराम ने जब अयोध्या लौटना अस्वीकार कर दिया तो भरत ने उनसे उनकी पादुकाएँ माँगी ताकि श्रीराम के वनवास की अवधि में उन्हें ही अयोध्या के राजसिंहासन पर रखकर अयोध्या पर शासन करने के श्रीराम के राज्याधिकार के दायित्व और कर्तव्य का निर्वाह भरत कर सकें।

पुनः चौदह(सौ) वर्षों के वनवास के बाद भगवान् श्रीराम अयोध्या में विराजमान हो चुके हैं, और अब आर्यावर्त के विद्वज्जन पुनः "सतयुग" के आगमन की चर्चा करने लगे है। यह कहाँ तक और कितना सत्य है यह तो समय आने पर ही पता चलेगा।

(कल ही सुबह अपने अन्तर्दर्शन में देखा था। कोई कुछ कह रहा था। उसे अगले पोस्ट में लिखने का विचार है।)

"पादशास्" शब्द का पुनः प्रयोग महाराज शिवाजी द्वारा उनके गुरु समर्थ श्री रामदास महाराज के खड़ाऊँ राज्य के राजसिंहासन पर रखकर उसी तरह शिवाजी ने किया। शिवाजी ने उसी परंपरा का अनुसरण किया जिसे भरत द्वारा स्थापित किया गया था। 

इसी "पादशास्" शब्द का फ़ारसी अपभ्रंश "बादशाह" हो गया क्योंकि अरबी भाषा के फ़ारसी भाषा में लिप्यन्तरण करने पर "प" के लिए "ब" का प्रयोग किया गया और जैसा कि हम जानते ही हैं कि किस प्रकार संस्कृत "स" वर्ण फ़ारसी / अरबी भाषा में "ह" हो गया और यही "स" लैटिन / अंग्रेजी में "s" हो गया होगा। लिपिसाम्य का यह भी एक उदाहरण है।

फ़ारसी का "बादशाह" फिर मुगलों के काल में राजा के अर्थ में प्रचलित हुआ।

महाराज शिवाजी के समय में उनकी परंपरा में भी इस शब्द के प्रयोग से इसकी ही पुष्टि होती है।

दूसरी ओर, "परंपरा" शब्द का अर्थ है पर से भी पर और इससे ही व्युत्पन्न "परंपरा" का अर्थ प्रकारान्तर से "रुढ़ि" भी हो गया।

मनुष्य चूँकि एक सामाजिक और विकासशील प्राणी है, इसलिए शासन और शिक्षा दोनों परंपरा और अनुशासन दोनों रूपों में ऐतिहासिक यथार्थ हैं। शिक्षा से परंपरा का और परंपरा से शिक्षा का विकास और विस्तार होता है। फिर विभिन्न समूहों में परस्पर संबंध और स्पर्धा होती है

पुनः अपनी जड़ों की तलाश शुरू होती है।

शाक्यमुनि गौतम, वाजश्रवा, भार्गव भृगु ऋषि की परंपरा के थे जिनका उल्लेख कठोपनिषद् में पाया जाता है। ये सभी ऋषि मूलतः वे सात ऋषि हैं जिन्हें हम उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की परिक्रमा करते हुए देखते हैं। पूरे संवत्सर में वे आकाश में दक्षिणावर्त (clockwise) स्वस्तिक के रूप में दृष्टिगत होते हैं। जैसे घड़ी के काँटे जिस दिशा में गति करते हैं, उसी प्रकार से।

वैदिक परंपरा की ही तरह बौद्ध, जैन आदि अवैदिक परंपराओं ने भी स्वस्तिक को यह स्थान दिया और इस प्रकार धर्म को वैदिक या अवैदिक दोनों रूपों में सनातन के ही अर्थ में मान्य किया गया।

बुद्धावतार के बाद तुर्कों और मंगोलों (मुगलों) के द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के बाद भगवान् श्रीराम को पुनः चौदह (सौ) वर्षों के लिए वनवास में रहना पड़ा। यह सब केवल संयोग ही है या विधि का विधान है, इसे कौन जान सकता है? इजिप्ट / अवज्ञप्ति, जिसे मिस्र भी कहा जाता है और जो मिशनरी परंपरा का प्रारंभिक रूप था, उससे उस कबीले के निष्कासन के बाद वह कबीला  मरुस्थल में भटकते रहा जहाँ अंगिरा (मुण्डकोपनिषद्)  ने शौनक को उस सत्य का उपदेश किया जिसे "अब्रह्म" या अब्राहम / इब्राहिम नामक प्रथम संदेशवाहक के नाम पर अब्राहमिक परंपरा कहा जाता है। "अंगिरा" का ही सजात / सज्ञात / cognate है - "Angel", और इसी परंपरा के  ऋषि जबाल / जाबाल ऋषि को ही, 

Abrahmic Tradition

में  Gabriel Angel  के रूप में ग्रहण किया गया। 

उल्लेखनीय है कि परशुराम भी इसी भृगु-वंश में उत्पन्न हुए थे जिनका साम्राज्य गोकर्ण (गोआ) से पार्श्व दिशा में फारस तक था ।

शाक्यमुनि स्पष्टतः शक परंपरा में उत्पन्न शुद्धोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ थे।

सिद्धार्थ को निरञ्जना नामक नदी के तट पर सुजाता नामक वनदेवी ने पीने के लिए दूध अर्पित किया था। यह भी शायद संयोग है कि सिद्धार्थ ही पूर्वजन्म में अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोड / कहोल / कहोळ थे जिन्हें वरुण ने अपहृत कर लिया था ताकि वह किसी यज्ञ में पुरोहित का कार्य कर सकें। वरुण पश्चिम दिशा के ही "वसु" हैं। इन सभी सन्दर्भों का उल्लेख मैंने अपने कुछ ब्लॉग्स में किया है,  लेकिन सब बिन्दुओं को जोड़ पाना मेरे लिए थोड़ा श्रमसाध्य तो है ही। हाँ, जिन्हें उत्सुकता हो शायद वे धैर्यपूर्वक इस सबका अध्ययन कर सकते हैं।

यहाँ यह सब केवल स्मृति-सूत्र (record) के रूप में संजो रखने के लिए है।

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Saturday, 15 March 2025

Quantum Fields are Conscious.

Thus said a Physicist.

This much I read today in the morning.

Now they are talking! 

Way back in 1976-77 when I was doing my Post-graduation in Mathematics I already knew how a "Space" differs from a "Field".

So this makes sense to me.

I can see they would sure "discover" -

There are 33 Quantum Conscious Fields in all, and there are 7 Quantum Spaces.

A Space and a Field are independent, disjoint and "Conscious" manifestations too,  yet they share the one and the same charecristics of being Conscious.

Reverse Engineering.

I was going through some videos about the classical scriptures.

Going through the scriptures involves the risk of misinterpretation and even the  sincere scholars most often get trapped into conflict and confusion.

The story was of Shrikrishna, Devaki Mata, Nanda Baba Yashoda Vasudeva and Kansa.

Most of the Hindu / SanAtana Dharma people know this scripture / story either in the form of KathA as narrated in the purANa of the various names that look quite different in their style and Time.

All the different purANa belong to the  different Times  / Era / Year / of the kind of Space and Time.

The 33 conscious Quantum Fields could be compared to the devatA Principle in the purANa and the Veda. 

There are Vedika devatA that find place in the four Veda(s) and in the purANa.

The Vedika devatA are the 33 Fields / Realms, while the pauraNika are of the manifest form.

For example when we talk about devatA - gaNapati, This could be either as in the Rgveda maNDala 2 : 21,22, 23,24 or as is in the gaNapati atharvasheerSha.

Or, maybe as is depicted in the gaNesha purANa, shiva purANa, agni purANa, devI PurANa and so on so forth.

Likewise are the rudra / रुद्र, skanda / स्कन्द, agni/ अग्नि , vAyu / वायु, Indra / इन्द्र, Surya / सूर्य, Soma / सोम, varuNa / वरुण , devI / देवी 

These Divine Entities are the examples of the Abstract Conscious Fields, but their depiction as is narrated in the purANa are their manifest forms.

Back to :

Krishna, DevakI, Vasudeva, Yashoda,  Nanda and Kansa.

All they are The Supreme Divine Reality that is the Unique Principle :

KrishNa / श्रीकृष्ण 

Either as in the potential unmanifest or as in the manifest one.

KrishNa is the sat / सत्  the Supreme and the absolute Reality, while cit / चित् / चिति  / DevakI, the Divine consciousness aspect of the same.

Vasudeva / वसुदेव  is the Divine Father Principle, and KrishNa as The son of DevakI and Vasudeva / वसुदेव  is Ishwara / व्यक्त ईश्वर - The same Supreme Reality as KrishNa as he manifest Principle, having a name and a form too.

DevakI / देवकी  and Vasudeva / वसुदेव  are thus the material aspect / Prakriti  and the consciousness together.

The Ishwara / ईश्वर  thus took the human form through the two - namely Devaki and Vasudeva.

Thereafter comes the parents - Nanda bAbA and YashodA.

Nanda means play, joy  while the word YashodA means the fame / glory.

Then comes Kansa  - a fictitious name and form who is brother of DevakI. The maternal Uncle of Ishwara / ईश्वर  as the sin of manifest Nanda and YashodA, who adopt Ishwara as their second son. They have already another named balarAma / बलराम .

बलराम - बल राम  is the power inherent and latent.

Kansa / कंसः 

is the fictitious human being the brother of DevakI,

The word "Uncle" comes from and us a cognate of  the Sanskrit word अंश / अंशलः which we again see in the "ounce"...

This Uncle is the ignorance of the Real Divine Who is KrishNa Himself. 

purANa is / are a literary epic and poetic narrative of :

the Creation / सृष्टि,

the Sustainance  / preservation / रक्षण 

and the consequent Dissolution  /  संहरण 

Existence as such is therefore really a cycle of :

Creation - Preservation - Dissolution. 

Time  काल  has also a Divine role to play either as a Reality in the form of the seed and also as the manifest existence which the individual calls one's own world.

There are as many innumerable worlds and each one is independent of all the other such words.

The Universe as such is the material manifest  व्यक्त प्रकृति,  while the  Ishwara / ईश्वर  is the son of the :

Divine Supreme : अध्यात्म 

In between is the :

Divine Nature / दैवी प्रकृति  - Dharma,  and in contrast and comparison there is the Evil  / आसुरी प्रकृति  - कं सः? 

Who  is the one this evil? 

He is appropriately pointed out as :

Kansa .

This is an example of :

Reverse Engineering.

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Monday, 10 March 2025

Mind Is The Matter.

The Exploration.

पहले अंडा या पहले मुर्गी?

विज्ञान के लिए यह प्रश्न एक पहेली हो सकता है, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रश्न का जन्म बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है। जबकि बुद्धि का स्वामित्व और साक्षित्व बुद्धि का विषय नहीं है।

पहले आचरण / उपयोग करें, फिर विश्वास करें!

धर्म पर चलने या धर्म का आचरण करने के लिए उसे न तो जानने और न ही मानने का प्रश्न होता है, क्योंकि धर्म तो प्रकृति के द्वारा पहले से सुनिश्चित वस्तु-स्वभाव होता है, जिसका बुद्धि से संबंध नहीं हो सकता। दूसरी ओर, बुद्धि स्वयं प्रकृति ही है जबकि बुद्धि का स्वामी होने का दावा करनेवाला अहंकार है, जो कि यद्यपि क्षण क्षण प्रकट और विलीन होता रहता है, यह आभासी क्रम ही कल्पित निरन्तरता / सातत्य है, न कि वास्तविकता / सत्यता।

यह क्रम अनित्य होने से निजता से भिन्न, आभास मात्र है, जो क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त होता रहता है, जबकि वास्तविक न तो प्रकट होता है न अप्रकट ही होता है।

बुद्धि को वास्तविक और अवास्तविक के बीच की क्षणिक सीमा-रेखा की तरह देखा जा सकता है।

यह "देखा जाना" ही साक्षित्व है जो दृश्य और देखनेवाले से न तो प्रभावित होता है, न उन्हें प्रभावित ही करता है।

पुनः अहंकार भी इसी साक्षित्व में विद्यमान निजता का प्रतिबिम्ब होता है जो कल्पित दृश्य और उसे देखनेवाले के बीच के सेतु का कार्य करता है और क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त / अप्रकट होता रहता है और साक्षित्व पर ही अवलंबित, आश्रित और निर्भर होता है।

इसलिए साक्षित्व स्वतंत्र वास्तविकता और निजता का सार है, जबकि अहंकार केवल इस निजता के प्रकाश में बनते मिटते रहने वाला छाया-अस्तित्व। 

मुर्गी और अंडे में से पहले कौन की तरह ही अहंकार और संसार का परस्पर संबंध है। वैज्ञानिक संभवतः मुर्गी पहले या अंडा पहले का कोई सैद्धान्तिक उत्तर खोज लें, लेकिन यह जानना कि अहंकार या संसार में से पहले कौन, इस प्रश्न का उत्तर शायद ही कभी कोई पा सकेगा!

"पहले ईश्वर या संसार?"

यह प्रश्न इसी प्रकार का एक प्रश्न है और  इस दृष्टि से यह भी पूछा जा सकता है कि संसार तो प्रत्यक्षतः अनुभव की जानेवाली वस्तु है जिसके अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती, जबकि ऐसा ईश्वर, जिसने इस संसार को बनाया होगा, जब उसे अनुभव कर पाना ही बहुत दूर की बात है, तो उसे इस्तेमाल कर पाना कल्पनातीत ही होगा।

सनातन धर्म वैदिक हो या वेदविरोधी या उससे भिन्न आस्तिक हो, ईश्वर की मान्यता का आग्रह नहीं करता और उसके अस्तित्व पर प्रश्न भी नहीं करता जबकि अब्राहमिक परंपरा में ईश्वर के बारे में -

"पहले विश्वास करें फिर इस्तेमाल करें!"

का आग्रह किया जाता है। ऐसे किसी ईश्वर के "एक" होने (की मान्यता) को अकाट्य और तर्कसंगत सत्य माने जाने का आग्रह भी किया जाता है। सांख्यनिष्ठा या बौद्ध / जैन मत में, यहाँ तक कि अद्वैत मत में भी, ईश्वर के "एक" होने या एक न होने के प्रश्न को गौण समझा जाता है क्योंकि "एक" और अनेक पुनः अस्तित्व या प्रकृति का "गुण" होता है न कि स्वरूप। एक टोकरी में तीन आम और चार संतरे रखे हों तो संख्या की दृष्टि से यद्यपि वे सात फल होते हैं, किन्तु फल की दृष्टि से दो ही होते हैं।  इसे और सरल तरीके से समझने के लिए उदाहरण कुरूप में यह भी कह सकते हैं कि तीन आम (या चार संतरे) भी फल की दृष्टि से "एक" किन्तु "संख्या" की दृष्टि से "अनेक" होते हैं। इसलिए जैसे अस्तित्व "एक" होते हुए भी उसे विविध प्रकार और रूपों में देखा जाता है "ईश्वर" भी "एक" होते हुए भी अनेक की तरह अभिव्यक्त  है और इससे उसके "एक" होने की सत्यता पर आँच नहीं आती। इसीलिए अद्वैत मत का प्रतिपादन करनेवाले दृश्य और दृष्टा के भेद को मिथ्या कहते हैं क्योंकि न तो दृश्य और न ही व्यक्ति के रूप में किसी पृथक्  दृष्टा का ईश्वर / अस्तित्व से अलग, स्वतंत्र कोई अस्तित्व हो सकता है।

यही व्यक्ति जब अपने आपको "साक्षी" मानता है तो अस्तित्व / ईश्वर का ही दृष्टा और दृश्य के रूप में काल्पनिक विभाजन कर लेता है। कल्पना क्षण क्षण आती और जाती रहती है अर्थात् "नित्य" नहीं, बल्कि आभास मात्र होती है, जबकि भान / बोध कल्पना पर आश्रित या उससे उत्पन्न नहीं हो सकता। इसके विपरीत, भान या बोध ही वह अधिष्ठान है जो स्वप्रमाणित निजता और नित्य सत्य ही है। वह "एक" है, ऐसा कहना अनुचित न होगा किन्तु उसे "एक" कहते ही केवल प्रमादवश, अपने आपसे भिन्न की तरह भी मान लिया जाता है। फिर उसे "ईश्वर" कहें या "परमात्मा", वही एकमात्र "पूज्य" हो जाता है। "पूज्य" होने के लिए "स्मरणीय" होना भी अपरिहार्यतः आवश्यक होता ही है। तब उसे "नाम" भी देना होता है, और तब एक नया ही दुष्चक्र पैदा हो जाता है जिसे मस्तिष्क का विकार भी कह सकते हैं।

यही मन है!

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Thursday, 6 March 2025

The Undercurrent.

यहाँ से जाना है कहीं!

जब मैं लगभग सात आठ वर्ष का था, तब से मन में यह विचार अकसर उठता रहता था कि

"यहाँ से जाना है।"

तब एक दिन घर से निकलकर एक रोड पर सड़क पर चलता हुआ दूर तक चला गया था और सड़क के किनारे एक मील के पत्थर पर लिखा देखा था -

विश्रामगृह!

तब मुझे आश्चर्य हुआ था कि यहाँ इस पत्थर पर यह क्या और क्यों लिखा है, किसके लिए, क्या जरूरत थी!

यह स्मृति अब तक वैसे ही तरोताजा है! 

इसका गूढ अभिप्राय क्या था इस ओर यद्यपि उस समय तो मेरा ध्यान बिलकुल नहीं जाता था, बस यह विचार यूँ ही मन में कभी कभी आता रहता था। उस समय में भी मैं अपने आपको अकसर वैसा ही निपट अकेला अनुभव किया करता था जैसा कि अब भी किया करता हूँ। बीते हुए इन पैंसठ वर्षों में यह विचार / अनुभव मेरे मन की गहराई में नींव की तरह स्थिर है। बीच के समय में मैं एक हद तक दुनिया में और भारत में काफी भ्रमण कर चुका हूँ। एक बार घर से चल पड़ने के बाद ही तात्कालिक रूप से यह तो पता होता था कि मुझे कहाँ जाना है, लेकिन वापस घर आने के बाद फिर वह विचार कि 

"यहाँ से जाना है।"

मन में आग्रहपूर्वक उठने लगता था।

शिक्षा काल में यह विचार तात्कालिक प्राथमिकताओं के नीचे दबकर विलुप्त सा हो गया, लेकिन फिर जॉब करते समय बार बार ध्यान खींचता रहता था और अन्ततः जब तक जॉब छोड़ ही नहीं दिया, तब तक बना ही रहा था।

जॉब छोड़ते समय मन भविष्य की चिन्ता से किसी हद तक मुक्त तो हो गया था क्योंकि अब मैं स्वतन्त्र रूप से यह सोच सकता था कि मुझे कैसे जीना है, आगे क्या करना है। जिस जीवन स्तर को मैं जी रहा था उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट था और जॉब करते समय लोग मुझे जिस दृष्टि से देखते थे वह भी अब मेरे लिए समस्या न रहा। विवाह न करने का निश्चय तो बचपन से ही मन में था क्योंकि मुझे स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों का तब न तो ज्ञान था और न इस बारे में मैं कोई अनुमान ही कर सकता था। स्कूल की शिक्षा पूरी होते होते और कॉलेज जॉइन कर लेने के बाद मन में साथ पढ़नेवाली हम-उम्र लड़कियों के प्रति आकर्षण पैदा हुआ और कॉलेज के सहपाठियों की कुसंगति में उम्र की स्वाभाविक उत्सुकता के साथ साथ मन उलझता चला गया। लेकिन यह स्पष्ट था कि पहले तो अपने पाँवों पर खड़ा होना आवश्यक है और बाद में ही प्रेम वगैरह के बारे में सोचा जा सकता है। सौभाग्य या दुर्भाग्य से न तो मैं न तो स्मार्ट था, न ही मेरे पास पैसे थे। और सबसे बड़ी बात यह थी कि मेरी स्कूल की शिक्षा छोटे से गाँव में हुई थी जहाँ मुझे मेरी परिचित कोई एक भी लड़की ऐसी न मिली जिससे मैं मिल जुल सकता था। 

और वहाँ से सीधे अपेक्षाकृत कुछ बड़े शहर में पहुँचने के बाद अचानक नए लोगों के बीच यही विचार मन में पुनः उठता था कि

"यहाँ से जाना है।"

जैसे तैसे कॉलेज की मेरी शिक्षा पूरी हुई और एक बेहतर जॉब मिलते ही घर पर मेरे माता पिता के पास हर रोज कोई ऐसा प्रस्ताव किसी कन्या के अभिभावकों की तरफ से आता जिसमें मेरे बारे में पूछताछ की जाती थी। मेरे मन में कुछ आक्रोश था तो इसलिए क्योंकि मैं महसूस करता था कि मैं नहीं मेरा जॉब ही वस्तुतः मूल्यवान था और जब तक मैं बेरोजगार था तब तक तो किसी लड़की या उसके अभिभावकों ने कभी मुझे घास तक नहीं डाली और अब वे यह उम्मीद करते हैं कि मैं उनकी लड़की से शादी कर लूँ। मैं न तो उन पर और न ऐसी किसी लड़की पर ही भरोसा कर सकता था।

और सामाजिक नैतिकता के प्रचलित तथाकथित मूल्यों के आधार पर भी मैं किसी लड़की से दोस्ती या प्रेम नहीं कर सकता था।

हाँ जिस बैंक में मैं कार्य करता था वहाँ कार्य करनेवाले मेरे सभी साथी वैसे ही दोहरे मापदण्डों को निर्लज्जता और ढीठता से जी रहे थे और मेरे बारे में ठीक से कुछ समझ पाना उनके बस से बाहर की बात थी।

उस जॉब में काम करते समय भी यही विचार बार बार मन में उठा करता था -

"मुझे यहाँ से जाना है।"

जब भी मैं किसी के सामने अपना यह विचार रखता, तो वह यही पूछता -

"तुम्हें कहाँ जाना है?"

क्योंकि वे इसी भाषा में सोचने के आदी थे।

"यहाँ से कहीं जाने" का मेरा मतलब यह था कि यहाँ से जाना अधिक महत्वपूर्ण है, कहीं किसी और जगह नहीं जो कि इतनी महत्वपूर्ण हो कि मैं वहाँ जाने के लिए यहाँ से जाने के बारे में सोच रहा हूँ।

"यहाँ से कहीं जाने" का मेरा मतलब यह भी नहीं था कि मुझे दुनिया या जीवन से बहुत दूर मरकर कहीं जाना है।

और शायद इसी मेरे जीवन में सबसे सुखद क्षण वे होते थे जब मैं ट्रेन में बैठा हुआ "यहाँ से कहीं जाने" के इस विचार से बहुत उल्लसित हो जाया करता था और प्रसन्न अनुभव किया करता था। लगता था बस ट्रेन में ही बैठा रहूँ और यात्रा का कभी अन्त ही न हो। ट्रेन की भीड़ से बचने के लिए मैं प्रायः पहले ही से रिजर्वेशन करा लिया करता था। और कभी कभी बस से भी सफर कर लिया करता था।

फिर कहीं लॉज में एक दो दिन रात गुजारकर कहीं दूसरी दिशा में जाने के बारे में सोचता। तब भी मेरे लिए कोई न कोई तात्कालिक लक्ष्य होते थे किन्तु वे गौण लक्ष्य होते थे,  प्रमुख लक्ष्य तो यही होता था -

"यहाँ से जाना है।"

यह विचार दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में अदृश्य ही छिपा होता था।

अब उम्र के इस पड़ाव पर

"यहाँ से कहीं जाने"

का विचार धीरे धीरे क्षीण और विलुप्तप्राय होता जा रहा है। अब तो बस नींद, भूख, थकान और दुर्बलता ही मन पर हावी रहते हैं। नींद टूटते ही बाकी तीन, भूख शान्त होते ही बाकी तीन, थकान मिटते ही बाकी तीन और दुर्बलता कुछ कम होते ही बाकी तीन मुझ पर हावी होने लगते हैं।

हाँ, मुझे यहाँ से जाना अवश्य है, जल्दी से जल्दी, शीघ्र से शीघ्र, किन्तु "कहाँ जाना है?" यह सोच पाना भी मेरे लिए असंभव सा हो चला है। और उस लक्ष्य का कोई मानसिक चित्र बना पाना भी मुझे बहुत श्रमपूर्ण महसूस होने लगा है। किन्तु फिर यह भी सत्य है कि यहाँ से कहीं जाना तो अवश्य ही है !!

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Monday, 3 March 2025

Indo-Specific

ऐन्दव-आख्यान 

क्या हिन्दू धर्म है?

अंग्रेजों के जमाने से ही यह भ्रान्त अवधारणा प्रस्तुत और स्थापित की गई है कि

हिन्दू

शब्द की उत्पत्ति मूलतः 'सिन्धु' शब्द के अपभ्रंश के रूप में हुई है।

'सिन्धु' शब्द का प्रयोग और उल्लेख वेदों में दो अर्थों में पाया जाता है पहला सिन्धु अर्थात् समुद्र के रूप में और दूसरा समुद्र जैसी विशालाकार नदी की तरह। 

किन्तु मेरा विचार / मत यह है कि

हिन्दू

शब्द की उत्पत्ति

इन्दु 

अर्थात् उस शब्द से हुई है जो चन्द्रमा का पर्याय है।

और हिन्दू या इन्दु धर्म केवल भारत-भूमि पर ही नहीं, इन्दोनेशिया / इन्डोनेशिया तक प्रचलित था / है।

इसे तो मैं नहीं जानता कि 

ऐन्दव आख्यान

का वर्णन किस ग्रन्थ में है, क्योंकि मुझे बस यही स्मरण है कि इसका उल्लेख किसी न किसी प्राचीन ग्रन्थ में है, जिसके बारे में मैंने किसी समय पढ़ा है।

इस विषय में गहराई से शोध किया जाए तो यह स्पष्ट हो सकेगा कि ऐन्दव शब्द संस्कृत इन्दु से अर्थात् 'चन्द्रमा' से व्युत्पन्न है।

और सूर्य तथा चन्द्रमा तो वैदिक ज्यौतिष् का आधार हैं। सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही वैदिक पञ्चाङ्ग में कालगणना के नियामक हैं।

इस प्रकार हिन्दु / हिन्दू, उसी धर्म की प्राचीन संज्ञा है जिसे सनातन या सनातन धर्म भी कहा जाता है।

एक प्रख्यात फ्रैन्च भविष्यवेत्ता नॉस्ट्रेडेमस की किसी भविष्यवाणी में भारतवर्ष का उल्लेख 

धर्म के नाम वाले समुद्र के देश

के रूप में किया गया है जिसका अभ्युत्थान इक्कीसवीं शताब्दी में होगा। 

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Sunday, 2 March 2025

प्रद्युम्न, संकर्षण और अनिरुद्ध

भगवान् विष्णु

के आठवें अवतार श्रीकृष्ण के तीन पुत्रों के उपरोक्त तीन नामों का संभावित रहस्य क्या यह हो सकता है? :

प्रद्युम्न का अर्थ है : द्युति -

Illumination,

जड पदार्थ पिण्ड में चित्त की स्फूर्ति का जागृत होना,

संकर्षण का अर्थ है : परस्पर आकर्षण -

Attraction,

गुरुत्वाकर्षण, विपरीत चुम्बकीय या विद्युत् आवेशयुक्त कणों का एक दूसरे के प्रति होनेवाला आकर्षण, 

और अनिरुद्ध का अर्थ है : अबाध गतिशीलता -

Unchecked Unobstructed Flow.

ब्रह्माण्ड का दूर से दूर होता रहनेवाला सतत विस्तार। 

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4/40 -Applied Gita.

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च

अध्याय ४

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

उपरोक्त श्लोक के सन्दर्भ में -

कत्रिम ज्ञान (Artificial Intelligence) और यंत्र(णा)-शिक्षा (Machine Learning) के बारे में विचार करें, तो यह कहा जा सकता है कि समस्त "विज्ञान" / Science अज्ञान का ही, अज्ञान में ही,  और अज्ञान की सीमा के भीतर ही होनेवाला उसका विकास, विकार और विस्तारमात्र होता है।

प्रारंभ में मनुष्य को पता नहीं होता कि उसे पता नहीं है। अर्थात् मनुष्य पशु की तरह ही प्रिय या अप्रिय विषयों से आकर्षित या विकर्षित होकर उन विषयों के अनुभवरूपी ज्ञान को स्मृति में एकत्रित करता है और उस अनुभव के रूप में संचित स्मृति के आधार पर "समय" या "काल" की अस्पष्ट मान्यता निर्मित कर लेता है जिसके आधार पर स्मृति में संचित अनुभवों के जोड़ को अतीत का तथा किसी भी नए अनुभव को वर्तमान का नाम देता है। इसी आधार पर वह काल्पनिक "समय" को भविष्य का नाम देकर उस भविष्य की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए भी उसका आकलन और अनुमान करने की चेष्टा करता है। यद्यपि शुद्ध भौतिक विषयों और वस्तुओं के बारे में तो यह आकलन और अनुमान लगभग 100% तक भी सत्य प्रतीत हो सकता है और इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं हो सकता, किन्तु दूसरी समस्त भौतिक घटनाओं के बारे में यह आकलन और अनुमान संदेहास्पद भी हो सकता है। क्योंकि "घटना" का अर्थ है काल / समय नामक उस वस्तु का व्यवधान, जो केवल मस्तिष्क की गतिविधि का ही कल्पित क्रम है।

काल / समय के चरित्र को ठीक ठीक समझने के लिए पातञ्जल योगसूत्र के इन तीन सूत्रों का आधार लिया जा सकता है -

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।। 

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

इनमें से प्रत्यक्ष तो स्पष्ट ही इन्द्रियज्ञान पर आधारित वह अनुभव है जो अवश्य ही जागृत दशा में तात्कालिक रूप से होता है, और जो पुनः अनुमानपरक या निष्कर्षात्मक हो सकता है। जब एक ही विषय का अनुभवरूपी ज्ञान, ज्ञान की एक ही इन्द्रिय-विशेष के माध्यम से प्राप्त किया जाता है तो वह उससे भिन्न प्रकार का होता है जिसे एक साथ एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। जैसे नमक के टुकड़े को देखने पर उसका रंग रूप शक्कर या फिटकरी के टुकड़े जैसा प्रतीत होता है किन्तु उसे चखने पर उस टुकड़े के बारे में यह स्पष्ट हो जाता है कि वह नमक है, शक्कर है या फिटकरी है। यह समस्त ज्ञान अनुभव की स्मृति के रूप में मस्तिष्क में संचित हो जाता है और ऐसी अनेक स्मृतियों का समूह ऐसे एक स्वतंत्र और इन्द्रियगम्य संसार के अस्तित्व में होने का आभास पैदा करता है। और फिर भी निस्सन्देह प्रत्येक मनुष्य का अपना संसार किसी भी दूसरे मनुष्य के द्वारा अनुभव किए जानेवाले और उसे प्रतीत होनेवाले संसार से पूरी तरह अलग होता है। क्या भौतिक जगत् सभी के लिए पदार्थ या द्रव्य से बनी एक वस्तु ही नहीं है?

इस प्रकार से, जिसे कि "वैज्ञानिक प्रमाण" कहा जाता है वह इन्द्रियज्ञान पर आधारित अनुभवों की स्मृतियों का संग्रहमात्र होता है और इस रूप में प्रत्यक्ष, अनुमान तथा उनसे प्राप्त किसी निष्कर्ष से अधिक कुछ नहीं होता। भ्रान्तियुक्त और त्रुटियुक्त होता है और सन्देहास्पद भी। विषयों का ज्ञान जिसे होता है, क्या यह संभव है कि उस ज्ञाता को विषय के रूप में जाना जा सके? और क्या वह ज्ञाता विषय की तरह ज्ञेय हो सके? स्पष्ट है कि संपूर्ण तकनीकी और बौद्धिक ज्ञान (machine learning and Artificial Intelligence) इसी तरह इन्द्रियानुभूति तथा उन अनुभवों की स्मृतियों पर आधारित विविध जानकारियों का प्रणालीबद्ध एक समूह भर होता है।

इसलिए समस्त वैज्ञानिक प्रमाण

(Scientific Evidence)

अज्ञान का ही प्रकार होता है जो कि सदैव, अधूरा और संदेहास्पद होता है और उस ज्ञाता को जानने में कभी सहायक नहीं हो सकता जो कि सदैव अखंडित, परिपूर्ण और अकाट्यतः आधारभूत स्वयंसिद्ध है।

***





Saturday, 1 March 2025

Fate and Destiny.

Nought/ Naught

शून्य 

Destiny or Fate is, 

The Consequential, 

That is perceived in the mind, 

As a form of the "known",

That happens or appears to happen,

That may happen or may appear to happen,

In the sphere of "Time", 

That happens or appears to happen,

That may happen or may appear to happen, as 

An event that takes place or appears to take place simultaneously with  assumed "Time".

The two are inter-dependent and none of the two could take place in the absence of the other.

Obviously,  there is the "observer" who claims to observe this happening.

The event or this "happening" is neither real or unreal, but is the undisputed and undeniable evidence of the reality of the "observer".

The event is in Time, and Time is in the event, though the "observer" is never a part or subject of Time.

All happening could be attributed to the another that is supposed to have taken place in the assumed "past".

So the supposed "past" generates in the thought a "present" one.

And the "present" one gives rise to yet one, that could be thought of in the form of a happening in the assumed "future".

This "past", "future" and the "present" that is the the "now", independent of the two, is again (wrongly) thought of as the assumed movement of "Time", though in reality, they are not!

What about the "observer"?

Is the "observer" subject to this assumed "past","future" or the "present"?

Does this movement of "Time" affect the "observer" or, 

Does this "observer" affect the " Time"?

Does this "observer" affect The "past", "the "future" or the assumed "present", - the totality of the "observed" in any way?

Obviously the movement of the "Time" has nothing to do with the status of the "observer".

What again then could be referred to as the "Destiny" or the "Fate"?

The "observer" is in no way related to the "Time", to Destiny or to Fate. 

What about the sense of "I"; that appears and disappears repeatedly again and again in a body-mind existence?

Isn't this sense of "I" a conjured up vain  idea only and has no valid and legitimate evidence any, either to substantiate or to prove it's reality?

As such this idea itself is the "observed" on one hand and the wrongly identified - the "observer" also, on the other hand.

Unless and until - the validity of this idea of "oneself" as a person is not examined, doubted, and enquired into, it covers up the field of attention and one is caught in the trap of ignorance about the Reality / true nature of the "observer" who is ever so free from all dualities like "Time and Space", the "Thinker" and the "Thought", the "Experiencer" and the "Experienced".

So, let's ask again :

What is Destiny or Fate, and exactly who is a victim of this concept of the Destiny and Fate? 

Of course, the body and mind could go through all their respective functions so long as they are alive, but the "person" who appeares and disappears during and through this happening, - what is otherwise referred to as the Destiny  or the Fate, has no existence whatsoever in Reality.

Being keenly aware of this whole drama is freedom from the Destiny or the Fate.

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Monday, 24 February 2025

Is That True?

क्या यह सत्य है?

"भविष्य भी वर्तमान को उतना ही प्रभावित करता है जितना कि वर्तमान भविष्य को!"

यह वक्तव्य अविश्वसनीयता की सीमा तक रहस्यात्मक, त्रुटिपूर्ण या शायद हास्यास्पद भी प्रतीत हो सकता है।

यह कल्पना तक कर पाना हमारे लिए असंभव नहीं, तो बहुत कठिन अवश्य है कि यह कैसे हो सकता है कि जो अभी कहीं नहीं दिखलाई पड़ता, और अभी जिसे ठीक से हम जानते तक नहीं हैं, वह हमारे वर्तमान / अभी को कैसे प्रभावित कर सकता है?

अब उपरोक्त वक्तव्य की तुलना इस वक्तव्य से करें :

"अतीत भी वर्तमान को उतना ही प्रभावित करता है, जितना कि वर्तमान अतीत को!"

इस वक्तव्य पर शायद ही किसी को कोई आपत्ति या इस पर किसी का कोई विरोध हो सकता है। क्योंकि अतीत तो किसी चट्टान की तरह ऐसा अचल, अटल और ठोस अनुभव होता है कि उसे बदल पाने की बात तक करना हास्यास्पद लगता है।

फिर भी, जिसे हम अतीत कहते हैं वह अनिवार्य रूप से  किसी न किसी सन्दर्भ पर आश्रित होता है, इसमें संदेह नहीं है। और सन्दर्भ के बदलते ही वह अतीत जो कि हमें सर्वाधिक ठोस, अचल, अटल और अपरिवर्तनीय सा जान पड़ता था, तत्क्षण ही रेत की कच्ची दीवार जैसा ढह जाता है।

तात्पर्य यह कि हम अतीत को नहीं बल्कि अतीत के बारे में अपने उस विचार को ही जानते हैं जो कि अभी / इस समय, वर्तमान में हमारे मन में होता है। और उस सन्दर्भ में शायद यह कहना गलत भी नहीं है कि वह अतीत उस संपूर्ण और समूचे अतीत का एक नगण्यप्राय अंशमात्र है, जिसे कि हम जानते हैं।

फिर आसन्न और तात्कालिक भविष्य के अतिरिक्त ऐसा कोई भविष्य कहाँ होता है जिसे कि हम सुनिश्चित रूप से और वस्तुतः अक्षरशः वैसा ही जान सकें जैसा वह घटित होने जा रहा है? 

अतः स्पष्ट है कि भविष्य तो नहीं, भविष्य के बारे में उस भविष्य की कल्पना और उस कल्पना के आधार पर हम जैसा और जो कुछ सोचते हैं वैसा और वह विचार हमारे वर्तमान को अत्यन्त गहराई से प्रभावित करता है। यहाँ तक कि कभी कभी और अकसर ही जब भी हम भविष्य को बनाने, बिगाड़ने या बदलने के बारे में सोचते हैं तब तो यह "विचार" ही होता है जो कि हमारे "वर्तमान" या अभी पर हावी होता है, और उससे प्रभावित होकर वह सब करने हेतु हम तत्पर हो उठते हैं जिसे भी करना हमें  आवश्यक प्रतीत होता है।

क्या यह सत्य नहीं है?

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Why This Blog?

In the e-blogger I started writing the blogs from hindi-ka-blog.

Thereafter I began writing others.

Most often I write a new post in a blog that is relevant to the subject of the context.

The first criteria is the language.

I prefer writting in a language that appears most suitable for the topic.

Either Hindi and / or the English.

These two are the languages I use as the medium.

Other languages like The Sanskrit, creep in according to the requirement, situation or the need.

My four blogs, namly :

hindi-ka-blog, swaadhyaaya, vinayvaidya and geetaasandarbh are almost swollen up-to the brim. So from time to time I have to start writing in a New blog like this one.

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 situation. 

 


Monday, 17 February 2025

The Future.

प्रातिभ

प्रातिभाद्वा सर्वम्।।३३।। 

(विभूतिपाद)

उसकी स्मृति धीरे धीरे विकसित, परिवर्धित और स्थिर होने लगी थी। यद्यपि अब भी वह विभिन्न वस्तुओं और  घटनाओं की चित्रमय आकृति की ही तरह थी, जिनमें कि कोई विशिष्ट क्रम नहीं था और कब कौन सी स्मृति किस अन्य से जागृत हो उठती थी और कौन सी स्मृति विलुप्त हो जाती थी इस ओर उसका ध्यान नहीं जा पाता था। फिर भी जैसे विभिन्न वस्तुओं की किसी स्मृति के उठने पर उनसे जुड़ी घटना भी उसे याद आने लगती थी, वैसे ही एक वस्तु से दूसरी वस्तु, और दूसरी से किसी अन्य की तारतम्य-रहित स्मृतियों के उठने और विलुप्त होने के क्रम में उसमें उस गतिविधि की आभासी पहचान उभरने लगी जिसे हम "समय" का नाम देते हैं। संस्कृत भाषा में इसे ही "प्रत्यय" कहा जाता है -

व्याकरण के सन्दर्भ में -

प्रतीयते विधीयते वा ग्राह्यते च स्मृत्याम् इति प्रत्ययः।।

न नित्यो न अनित्यो न क्षणिको न स्थिरो इति प्रत्ययः।।

और योगदर्शन (साधनपाद) के सन्दर्भ में -

विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि।।१९।।

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

किन्तु अभी तो उसमें स्मृति नामक वृत्ति / प्रत्यय का प्रस्फुटन प्रारंभ ही हुआ था जो धीरे धीरे उसके हृदय,  मन और मस्तिष्क में बेतरतीब क्रम में एकत्रित हो चला था। उसके लिए यह सारी गतिविधि उत्सुकता का विषय था जो अनायास उसके मन में प्रकट और विलीन होता रहता था।

तब उसमें स्मृति ने ही "समय" की सृष्टि की।

"समय" स्मृति की ही स्मृति थी किन्तु उसकी कोई ऐसी आकृति नहीं थी, जिसे वह चित्रित कर पाती। एक अमूर्त (abstract notion) की तरह का प्रत्यय। वह वस्तुओं और घटनाओं को तो चित्रित कर सकती थी उदाहरण के लिए सूरज का उगना, पेड़ से पत्तियों का गिरना, चिड़ियों का उड़ना इत्यादि, किन्तु "समय" नामक जिस वस्तु से उसका परिचय अभी अभी हुआ था और जो उसके मन से ही प्रकट होकर अस्तित्व में आता हुआ और व्यतीत होता हुआ प्रतीत होने लगा था, उसके बिम्ब को ग्रहण करते ही उसे "भविष्य" नामक एक अद्भुत् संवेदन हुआ। "भविष्य" की अपरिहार्यता और फिर भी उसकी कोई "पहचान" न बन पाने से वह स्तब्ध रह गई।

ज्ञान के फल का आस्वाद लेते ही, अर्थात् विभिन्न वस्तुओं, स्थितियों और घटनाओं को सार्थक शब्द से संबद्ध करते ही उसमें यह उत्सुकता पैदा हुई कि "भविष्य" के लिए कौन सा शब्द प्रयुक्त किया जाए, कौन से शब्द को वह "समय" और "भविष्य" तथा इसी तरह से "वर्तमान" के रूप में जानी जाने वाली स्मृति के पर्याय की तरह प्रयुक्त कर सकतीथी? जैसे अतीत और वर्तमान को वह किसी विशेष घटनाक्रम की तरह जान रही थी, "भविष्य" को वह उस तरह से कहाँ जान पा रही थी?

तब देवताओं को उस पर तरस आया और वे उसे उनका परिचय भावनाओं और कल्पनाओं के रूप में देने लगे। तब उस आभासी "भविष्य" के अमूर्त और अज्ञात होते हुए भी इच्छा, लोभ, भय, राग, द्वेष, जुगुप्सा, घृणा, प्रेम, लालसा, कामना आदि उन भावनाएँ उसके हदय में जाग उठी जो "समय-समय" पर भिन्न भिन्न प्रकार की समय के अनुसार अलग अलग प्रतीत होती थीं। 

ज्ञान के फल की प्राप्ति के पश्चात् उन भावनाओं ने परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए उसमें उस वस्तु को अस्तित्व प्रदान किया जिसे "अन्तःकरण" या "मन" कहा जाता है। अब उसका मन पूरी तरह से "ज्ञान" के वशीभूत था। ज्ञान के ही प्रभाव से वह अपने आपको व्यक्ति-विशेष मानने लगी थी। शायद यह एक नया "जन्म" था जब हर बार नींद से जागते ही उसका पुनः नया जन्म हो जाता था और नींद के आते ही वह उसे विस्मृत कर कहीं लौट जाया करती थी,  - किन्तु कहाँ, इस पर उसका ध्यान कभी न जा सका।

अपने अस्तित्व की स्मृति पर आधारित इस नित नये जन्म के क्रम को ही उसने अपने आपके परिचय के रूप में सच मान लिया।

भाषा के इस प्रकार के विकास और संस्कार के साथ साथ वह परिपक्व होती चली गई। और जैसे कोई सुकोमल लता समय के साथ साथ बढ़ती हुई क्रमशः दृढ़ और शक्तिशाली, कठोर और सुरक्षित हो जाती है और परिस्थितियों तथा वातावरण से अप्रभावित रहती है, वह भी जीवन के उल्लास से भरी भरी थी। 

***


Dragon's Head

राहु

Someone has asked  :

राहु के क्या इम्पैक्ट होते हैं? 

So I'm prompted to write this post.

भगवान् आदि शंकराचार्य के द्वारा रचित :

श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् के निम्न श्लोक के अनुसार :

राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादितः

व्यावृत्त्यानुवर्तमानमिति अन्तःस्फुरन्तं सदा।

यः साक्षात्करणात् भवेन्न पुनरावृत्तिः भवाम्भोनिधौ

तस्मिन्श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये।।

--

जैसे माया के प्रभाव से सूर्य और चन्द्र आदि ग्रह राहु के द्वारा ग्रसित जान पड़ते हैं (जबकि वस्तुतः यह केवल दृष्टि के भ्रम से ही होता है और पृथ्वी के सूर्य और चन्द्र के मध्य आ जाने के परिणाम से चन्द्रग्रहण तथा चन्द्र के सूर्य और पृथ्वी के मध्य आ जाने से सूर्य-ग्रहण के रूप में यह भ्रम पैदा होता है) उसी प्रकार मनुष्य की अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा (सूर्य) और देह (पृथ्वी) तथा मन (चन्द्र) के बीच सतत उत्पन्न होनेवाली असंख्य वृत्तियों के परिणामस्वरूप और मन के उनसे आच्छादित हो जाने से अपनी वास्तविक आत्मा के स्वरूप के अज्ञानरूपी भ्रम के रूप में मनुष्य में घटित होता है।

संस्कृत धातु √ रह् - जिसे कि 'रहने', 'रहस्य' के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है, से बनी "राहु" संज्ञा छाया, अज्ञान, प्रमाद की द्योतक है।

गीता में इस धातु का प्रयोग 'रहसि स्थितः' के रूप में है कि योग साधना अत्यन्त एकान्त स्थान में रहते हुए ही जाती है।

इसी संस्कृत धातु / पद 'रहिं' का अरबी सजात सज्ञात अर्थात्  cognate रूप है रहिम या रहीम / رحیم. 

जिसे परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है, जो अत्यन्त गूढ है और गीता के अनुसार प्राणिमात्र के हृदय में ही वास करता है। 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। 

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।६१।।

अध्याय १८

किस रूप में?

"भूतानामस्मि चेतना"

इसलिए नवग्रहों के रूप में सर्वत्र व्याप्त ईश्वर की पूजा आदि के लिए उन्हें शिवलिङ्ग के स्वरूप में स्थापित कर उपासना की जाती है।

संभवतः

ॐ रं राहवे नमः

इस मंत्र का १८००० जप करने से राहु के प्रभाव से उत्पन्न होनेवाली बाबाओं का शमन किया जाता है।

इसीलिए राहु ग्रह की विंशोत्तरी महादशा १८ वर्ष कही गई है।

यह हुआ राहु माहात्म्यम्।।

***

 

 






Sunday, 16 February 2025

As on 18-05-2012

Edited and Re-written.

पुनश्च

Wrote this post on this date on my blog at

https://vinaykvaidya.blogspot.com

Rewritng here for those who are somehow unable to find the post written earlier.

कलनकलनाभ्याम् तु कालसर्पोऽभिबभूव।

कलकुलस् वा कलकुलः ततो एवाभिधा मतो।।१।।

सुधापाने समारम्भे असुरो कपट-प्रेरितो। 

धृत्वा वेषं छद्मं सुरपंक्तिं प्राविवेश।।२।।

दृष्टे शशिसूर्याभ्याम् अथ च इङ्गितेऽपि।

विष्णुना क्षिप्ते चक्रे तदाऽसौ खण्डितो बभूव।।३।।

परं पीत्वा सुधाबिन्दुं न तत्याजासुरोऽसून्।

अपि च अमरो भूत्वा राहुकेतुरूपिणो पुनः।।४।।

कालस्थानरूपेण व्याप्तो ताभ्याम् चराचरः। 

एवं शशिसूर्याभ्याम् गणनाऽधारो तयोः।।५।।

भवेताम् प्रत्यक्षाधारौ कुतो प्राक्सृष्टे तु तौ।

कालसर्पत्वे सरन्तौ द्वौ परमे ब्रह्मणि आत्मनि।।६।।

कस्मिन् काले च स्थाने अतिपृच्छा शङ्का चैति। 

कालस्थानौ हि सञ्जातौ आत्मनि परब्रह्मणि।।७।।

कालो तु सर्व भूताभ्याम् आद्यन्तवत् प्रतीयते। 

मर्यादितो तस्मिन्नेव परब्रह्मणि स्वात्मनि।।८।।

स्थानोऽपि भासते तद्वत् पृथक्त्वेन सर्वभूतेभ्यः।

सदात्मनि परब्रह्मणि कुतोऽवकाशो तयोर्द्वयोः।।९।।

राहू शीर्षो केतु पुच्छो कालसर्पो इति कथ्यते। 

तदन्तरे हि जीवेभ्यो भुक्तिर्मुक्तिर्द्वयी वसेत्।।१०।।

--

आदिष्टवान् यथा स्वप्ने स्तोत्रमिदमद्भुतम्।

रचितवान् विनायकेन भारद्वाज-स्वामिना।।११।।

ये पठन्ति नरा भक्त्या स्तोत्रमिदमद्भुतम्।।

लभन्ति शान्तिं मुक्त्वा कालसर्पदोषेन ते।।१२।।

अद्य पुनरीक्षितं लिखितं च।।

***