Monday, 29 September 2025

The Seed

जिज्ञासा : बीजमंत्र क्या होता है, कभी समय मिले तो इस विषय पर अपने ब्लॉग में प्रकाश डालिएगा।

उत्तर : संस्कृत भाषा में निम्नलिखित ३३ बीजाक्षर अर्थात् मूल वर्ण होते है -

क ख ग घ ङ

च छ ज झ ञ

ट ठ ड ढ ण

त थ द ध न

प फ ब भ म

य र ल व श

ष स ह

इनके साथ कोई लघुप्राण या महाप्राण स्वर लगाने पर बीजमंत्र बनता है।

ये ३३ वर्णाक्षर ही ३३ कोटि के देवता हैं। स्वर ही प्राण हैं।  प्राण (शक्ति) और चेतना (ज्ञान) मिलने पर ही देवता तत्व सक्रिय हो सकता है। एक विशेष वर्ण ॐ है जिसमें केवल स्वर होते हैं।

इस प्रकार कोई बीजाक्षर या बीजमंत्र उस विशिष्ट देवता का मंत्रात्मक स्वरूप होता है, जिसके और भी नाम हो सकते हैं जैसे

ॐ गं गणपतये नमः।। 

इस मंत्र में ॐ व्याहृति है, गं बीजाक्षर या बीजमंत्र है जिसका देवता गणपति है।

इस प्रकार कोटि कोटि मंत्र हैं।

यदि संस्कृत के मूल वर्णों के स्थान पर लौकिक वर्णों का प्रयोग किया जाए तो ऐसे भी बहुत मंत्र हर भाषा में पाए जाते हैं। उनके देवता भी आधिभौतिक होते हैं न कि आधिदैविक जो कि ३३ कोटि के होते हैं। इन्हें डाबर, शाबर, डाकिनी, शाकिनी कहा जाता है। इनकी संख्या अनगिनत है।

सवाल यह है,

आप इस जानकारी का क्या उपयोग करेंगे?

संस्कृत भाषा  में "सीद्" धातु का प्रयोग "बैठने" के अर्थ में होता है जैसे गीता अध्याय १ में दृष्टव्य है -

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यते।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।२९।।

अंग्रेजी के  sit, sedan, sedantery,  इसी के सज्ञात / सजात,  अपभ्रंश  cognate  हैं। 

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Saturday, 27 September 2025

Name and Form

नाम-रूपात्मकमिदं

नाम-रूपात्मकमिदं यच्च श्रूयते दृश्यते वा सर्वम्।

जागृतिस्वप्नसुषुप्त्यां वृत्तिरूपात्मके जगति।।१

नाम श्रूयते ध्वनिभिः रूपं दृश्यते आकृतिभिः।

द्वयोर्संघातं प्राणश्चेतनाद्वयी गमयति अत्र तत्र।।२।।

रंध्रमये अस्मिञ्जगति विचरत्यसौ कालस्थाने।

देहे नाडीभिर्मनसि वृत्तिभिः आत्मभिश्च हृदये।।३।।

अतो हि लोके लोके मनसि नामरूपौ वर्तेते।

यथा हि सर्पिणी संचरति विचरति बिलसहस्रे।।४।।

एवं नाड्यां नाड्यां सहस्र्यां सञ्चरति यत्र तत्र

तथा हि जीवो अनुसरति संचरति जगति रंध्रे।।५।।

एको हि रंध्रं व्याप्तं अपि सहस्रेषु रंध्रेषु तेषु।

ब्रह्मरंध्रमुच्यते इति नाम्ना ज्ञायते कथ्यतेऽपि।।६।।

व्यष्टिः पिण्डे पिण्डं ब्रह्माण्डे, ब्रह्माण्डं ब्रह्मणि।

जन्मनि जन्मनि गच्छति विरति सञ्चरति।।७।।

क्लेशं भजत्यनुभूयते अनुभवत्यपि सर्वत्र।

वा अपि ब्राह्ममुहूर्ते लब्ध्वा व्यावृत्तं ब्रह्मरंध्रम्।।८।।

प्रविशत्यनवधाने तत्र यदा सुषुप्तिमपि कदापि। 

अथ वा अवधानं भजत्वा यदा ब्रह्मरंध्रे तदापि।।९।।

न पुनरावर्तति अस्मिञ्जगति मनसि वा पिण्डे।

प्रलीयते तस्मिन् ब्रह्मणि एवं तथा ब्रह्मभूत्वा।।१०।।

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Friday, 26 September 2025

The Desires

इच्छा की उम्र 
गीता अध्याय ७
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -

हे अर्जुन! सभी भूत प्राणी उनके अपने संसार में इच्छा और द्वेष से ही प्रेरित / बाध्य होकर किसी  व्यक्ति-विशेष के रूप में जन्म लेते हैं। अर्थात् हर कोई इस प्रकार उसके अपने जन्म से ही किसी न किसी इच्छा को साथ लेकर ही जन्म लेता है और जीवन में किसी समय पर उसे और अधिक जीते रहने की इच्छा नहीं रह जाती है। तात्पर्य यह कि यद्यपि वह मर जाना तो नहीं चाहता पर उसकी कोई ऐसी इच्छा फिर भी शेष रह जाती है जो अपूर्ण रह गई होती है। उसकी जो भी ऐसी इच्छाएं अपूर्ण रह जाती हैं, वे सभी मृत्यु आने पर मर जाती हैं, या उनमें से कुछ या कम से कम एक यह इच्छा तो रह ही जाती है कि मुझे पुनः जन्म लेना है। इसी प्रकार जिन किन्हीं वस्तुओं और स्थितियों से वह असंतुष्ट होता है, उनसे उसे फिर सामना न करना पड़े, उसकी यह इच्छा भी शेष रह जाती है, क्योंकि इन इच्छाओं की उम्र उसकी उम्र से अधिक होती है। यदि मृत्यु होने के समय उसकी सभी इच्छाएं समाप्त हो जाती हों, तो फिर उसके पुनः जन्म लेने की संभावना भी समाप्त हो जाती है। तब वह परमात्मा में विलीन हो जाता होगा और उस व्यक्ति की तरह शेष नहीं रह जाता होगा जिसका पुनः जन्म (और मृत्यु) हो सके। शायद इसे ही मुक्ति या मोक्ष कह सकते हैं।
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Thursday, 25 September 2025

~~ UNTITLED ~~

Caption this!


यहाँ की आग तुम तक भी तो पहुँचेगी जरूर, 

जलाओ इससे अपना घर, या तुम अपना दिया!!

*** 

Saturday, 20 September 2025

WORD IS THE WORLD.

P O E T R Y

--

There Is The Void,

The Great Endless and,

The Beginningless Vast,

Where There Is, 

Neither The World,

Nor The Word,

And The Attention Only, 

Reins Supreme.

Neither Lonely, Nor Alone,

For It Knows Nothing, 

Apart From Itself.

But Then In An awkward Moment,

Appears The Twin, 

The Word And The World,

Entwined Together, 

So Close, So Distant, 

From One-Another,

Like A Twin-star In The Dark Sky. 

And One Tends To Believe, 

The Two Are But One And The Same.

As The One Appears, 

The Another is List Of Sight, 

And One Just Forgets, 

The Two Are But One! 

Just Like You,

I Too Have Heard,

In The Beginning,

There Was But God (Alone?),

I Just Wander,

If God (Alone?) Was There,

Wasn't There The Other, 

The So-called Past!,

Beside The God? 

So I Think,

There Is Nver, 

Either A Past, 

Or A Future,

That Was Or Will Be Ever! 

And The God Utters A Word, 

In His Extreme Utter Solitude, 

And The Word Appears,

And At Once Becomes The World. 

And Though,

The Word Replicates Itself, 

In Infinitely, A Myriad Forms,

It's None Other Indeed, 

The God (Alone?).

Replicating Himself

Time And Again, 

Moment To Moment. 

The Moment, The Word, 

And The World Too, 

Appear And Disappear,

And The God Too Apoears

And Disappears With Them!

It's The One-Man Show, 

That Appears To Go on, 

Endless And Beginningless.

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

(गीता अध्याय २)

सर्वमिदं अतो हि वासुदेव यत्किञ्च जगत्यां जगत्।। 

(UN-EDITED)

***






 


Friday, 19 September 2025

ANAMETACATA.

Jungle House Scrolls

This is perhaps the third and the last Jungle House in my life. 

They visit me, and I really don't know exactly Who brought me here for what purpose.

When they visit me there may be reason for them, but I just meet them with no objections any. I'm neither disturbed nor bothered. Occasionally someone puts a question about why I'm here, what is my purpose behind coming and staying here. I smile but say nothing. Thinking about me they too just keep silent.

I try not to interfere in their activities. Still they keep asking me, and I tell them whatever I feel like telling.

This midnight I coined a new word :

ANAMETACATA

It's perhaps an acronym, made up of three prefixes.

Ana is about analogy, analysis,

Meta is about Meta, Metal,

Cata is about Catalysis.

Here my role consists in helping them perform their work in as much in good way as they can.

Whenever and if they ask, I do tell them what I feel like telling.

So I play the role of an analyst.

Then I try to understand what help they may expect from me and I suggest them whatever I think is proper, and should be done at the material, Metaphysical, Meta - elemental Metal level.

Then though I may look participating in their activities, I am quite unconcerned and unattached.

My role is perhaps that of a Catalyst - a substance that helps in furthering and happening of a chemical process but it is not sure if it is really involved in; takes part in it.

I assembled these three words in a single word  - ANAMETACATA.

I AM ALIVE.

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Tuesday, 16 September 2025

MahAlaya

श्राद्धपक्ष

महालय श्राद्धपक्ष की अंतिम तिथि होती है। इसे ही सर्वपितृ अमावस्या भी कहा जाता है। अमा का अर्थ है :

अमाप immeasurable / अंतरहित अंधकार, अरि का अर्थ है : शत्रु।

सूर्य अर्थात् आदित्य के बारह रूपों में से अंतिम है : अमा-अरि अर्थात् अरि-अमा, अर्थात् अर्यमा।

अर्यमा सूर्य का वह रूप है जो पितृलोक अर्थात् पितरं का लोक है जहाँ मृत्युलोक में मृत्यु को प्राप्त आत्माएँ पुनः मृत्युलोक में पृथ्वी पर नया शरीर प्राप्त करने तक प्रतीक्षारत रहती हैं। पृथ्वी पर वर्षा ऋतु के विदा होने पर और शारदीय नवरात्र के प्रारंभ होने पर वे पुनः पितृलोक में लौट जाती हैं और फिर वहां नियत समय व्यतीत करने के बाद पृथ्वी पर मनुष्य या किसी अन्य प्राणी के रूप में जन्म लेती हैं। पितृलोक में रहते हुए भी उन्हें मानसिक / आधिदैविक चेतना के sub-conscious रूप में अपने पूर्व जीवन की स्मृतियों से सुखों-दुखों की प्रतीति होती रहती है और नियत काल के उपरांत उन्हीं लोगों के बीच मनुष्य या किसी और योनि में वे जन्म लेती हैं जहाँ पूर्व जन्म से संबंधित अपने लोगों से पुनः संपर्क कर सकें। इसकी विवेचना और वर्णन वेद, उपनिषद्, पुराणों और इतिहास के ग्रन्थों अर्थात् रामायण और महाभारत में भी भिन्न भिन्न रीतियों और प्रयोजन के अनुसार भिन्न भिन्न शैली में किया गया है।

संक्षेप में, सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन होने और चंद्रमा के शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष में गति करते हुए बीतनेवाले समय का प्रभाव भिन्न भिन्न आत्माओं पर भिन्न भिन्न होता है। और इसलिए पितृलोक में आत्माओं को शांति प्राप्त हो इस उद्देश्य से इस लोक में परिजनों के द्वारा कुछ अनुष्ठान, जैसे उनके लिए तर्पण और पिंडदान आदि किए जाने का निर्देश शास्त्रों में दिया जाता है। इस समस्त कर्मकाण्ड का प्रयोजन, औचित्य हर मनुष्य की अपनी श्रद्धा के अनुसार सुनिश्चित होता है। इसलिए इसे श्राद्धपक्ष कहा जाता है क्योंकि इसी पक्ष में इन अनुष्ठानों को पूर्ण किया जाता है। यदि कोई अपने आपको एक देह-विशेष तक सीमित व्यक्ति मानता है तो मृत्यु-भय तो उसे होगा ही। फिर यह भी सत्य है कि यह भय शरीर को नहीं, मन को ही होता है, जबकि मन की मृत्यु होती है या नहीं इसबारे में हर कोई ही नितान्त अनभिज्ञ है। इसलिए वह जो कि अपने-आपके व्यक्ति विशेष होने की मान्यता से बंधा है मृत्यु और मृत्यु होने के बाद की स्थिति के बारे में कल्पनाएँ करता है, उन मान्यताओं को स्वीकार कर उन पर विश्वास करने लगता है। और रोचक बात यह भी है कि उसकी कोई भी मान्यता और विश्वास भी किसी भी क्षण गलत सिद्ध हो सकते हैं, और होते ही रहते हैं। इस दृष्टि से श्राद्ध और इससे जुड़ी मान्यताएँ भी इसका अपवाद नहीं हैं। वेदों और पुराणों में इसका वर्णन किया गया है, उपनिषद् विशेष कर कठोपनिषद् में और पुराणों में विशेष रूप से गरुड पुराण में। किन्तु जब किसी के साथ ऐसी घटनाएँ घटने लगें और जब उसके परिचित और दिवंगत संबंधी, परिजन या कोई दूसरे लोग उससे स्वप्नों के माध्यम से संपर्क करने लगें, या जब कोई नया जन्मा शिशु, दावा करने लगे कि वह पूर्व जन्म में उसका संबंधी था, तो मनुष्य के लिए इस सच्चाई को अस्वीकार कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। तब परंपरागत रूप में उसके द्वारा स्वीकार किए गए विश्वासों पर चोट पड़ती है और वह संशय और दुविधा अनुभव करने लगता है। वेद, उपनिषद्, रामायण आदि  तथा शास्त्र ग्रन्थ मनुष्य की परिपक्वता के अनुसार उसे इस स्थिति को समझने में सहायता देते हैं। किन्तु एक कसौटी महर्षि कपिल का सांख्य दर्शन भी है।

यह तथ्य कि सिद्धार्थ नामक राजकुमार जो कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन का पुत्र था, जिसने कि जीवन, संसार, जन्म, मृत्यु तथा आत्मा आदि के संबंध में सत्य क्या है इसकी खोज की, केवल एक संयोग भर नहीं है। उसके अनुयायी ही उसे ईश्वर या भगवान  कहने लगे, तो इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं है। जबकि संबुद्ध हो जाने अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति हो जाने पर भी उसने "ईश्वर" नामक किसी ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व के विषय में कभी कुछ नहीं कहा। बुद्ध या सांख्य दर्शन भी ऐसे किसी "ईश्वर" के होने या न होने के बारे में, उस ईश्वर के अस्तित्व के बारे में निश्चयात्मक कुछ नहीं कहता। शायद इसीलिए इन्हें नास्तिक दर्शन भी कहा या समझा जाता है, किन्तु उल्लेखनीय है कि दोनों ही दर्शन तथा जिन / जैन दर्शन भी "आत्मा" को जानने और उसे बंधन से मुक्त करने की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। एक ओर सांख्य दर्शन  यद्यपि इस वर्तमान जन्म की अवधारणा तक पर संदेह करता हुआ प्रतीत होता है, तो दूसरी ओर जैन और बौद्ध दर्शन अनेक जन्मों की शृँखला पर बल देते हैं। इसलिए यद्यपि अपने पूर्वजों और पितरों को हम जन्म जन्म के बंधनों से मुक्त न भी करा सकें तो भी उनकी आत्मा के पितृलोक के कष्टों को दूर करने के लिए शायद कुछ कर सकते हैं। सनातन धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी परंपरा में न तो पुनर्जन्म की और न ही जन्मों जन्मों की शृँखला से मुक्ति होने की भी कोई धारणा या मान्यता है। इसलिए उन परंपराओं में जन्म लिया हुआ कोई व्यक्ति जब ऐसे अनुभवों से गुजरता है जिनके बारे में उसे कुछ पता ही नहीं होता तो वह उद्विग्न, व्याकुल और संशयग्रस्त होने लगता है। तब न तो उसकी परंपरा में उसे इसका कोई समाधान मिलता है और न ही वह अपनी उस परंपरा के धार्मिक शिक्षकों से ही इस बारे में कोई विचार विमर्श ही कर सकता है। दूसरी ओर, सनातन धर्म भी इस विषय में उसकी कोई सहायता नहीं करता क्योंकि सनातन धर्म प्रत्येक व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का पूर्ण सम्मान करता है। गीता के इस श्लोक से भी इसकी पुष्टि होती है -

श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

*** 





Tuesday, 19 August 2025

PERPLEXITY and THE COMET

उल्का पुच्छलो धूमकेतुः ग्रह उपग्रह मण्डलः

तारा नक्षत्र राशयः रवयः ध्रुवाध्रुवौ तथा।।

पञ्चस्थूलभूतानि पञ्चसूक्ष्मभूतानि

पञ्चमहाभूतानि इत्येव जडचेतनौ।।

The Three Paths of the heavenly bodies in The Cosmos follow :

The Hyperbolic, Parabolic, Elliptical and the Circular paths within their respective and individual planes / (मण्डलः) and all go along a non-linear curvilinear path.

This is so because each and everyone of all them are confined within their planes.

The Planes are however :

भूः भुवः स्वः महः जनः महः सत्यम् च।

ते हि सप्ताः लोकाः नित्या च सनातनः।। 

These are the seven Spheres where at any time all and everyone goes through the experience of being in life.

These seven Cosmic Spheres are all the material and the conscious elements. Just as either a very small or a very big magnet has essentially the North Pole and the South Pole both together, every  smallest and the biggest particle has the two characteristic mutually inseparable aspects of existing as well as knowing.

Who-so-ever and What-so-ever that Is and knows is likewise a couple of just being and knowing only.

The concept of Coherent Emergentalism presupposes there is a state prior to the emergence of multiplicity of the world. this assumption rests upon the idea that the manifestation of all things is latent in a potential state of existence prior to this emergence. That is why it talks about the coherent emergence of the multiplicity.

Only after such a so-called emerging has happened there is someone - a conscious being who appears to be the knower, and things known could be called objects if perception in the consciousness of the knower. The emergence of the knower / someone and the known / something is a simultaneous happening irrespective of TIME, that is neither the subject nor the object but exists in the form of a thought or the idea which because of In-attention is at once taken to assume indepent of both the object and the subject.

This conscious "Who" and the "What" are but two faces of essentially the one and the same non-dual unique existence, the Principle.

Only after having accepted the existence of "oneself" as the knower, the thing that is known assumes a separate objective form and the multiplicity of innumerable such objects too assumes the name and the form of a "World".

I was always fascinated by the Sanskrit texts of all kinds. Be it Veda, Upanishad, Purana, ItihAsa or Literary texts of so many sects like the Jainism, the Charvak, the Buddhism or purely Classic like the works of Kalidasa, ShUdrak. and others.

Living at the Jungle house, I had been pondering and wondering about the Life. Not about the purpose or meaning but its significance only. Obviously, the one who lives the Life unfortunately begins with the sense of a self that is assumed to have one's existence distinct and other than the Life. However, no one doubts if this dichotomy is really valid as well as true.

The Sanskrit texts of the kinds as above mentioned begin in yet another context.

The Life as a whole is thought of and is considered as the subject and also as the object while describing the Life, without emphasizing the individual as one who has an object, mission or goal to achieve in any hypothetical Future.

The Sanskrit Laureates however try to describe What Is in the timeless now. It's neither of an individual and nor of the collective, though may be identified with a culture-specific angle.

They don't impose some God nor deny the possibility of existence of such a God Who is supposed to manifest in the form of this world that appears different to different individuals.

मृच्छकटिकम्  was written by  शूद्रक.

Another such a work was attributed to one  विशाखदत्त.

However later on one Hindi Writer took this name as his assumed identity.

There was another one named  नागार्जुन.

who might have been borrowed from a historical person, originally belonging to the Buddhist tradition.

All these great persons have their own independent style and genre of writing.

They don't limit their skill and talent to "Philosophy" but are open to all in many streams of knowledge.

While going through my individual Life, I arrived at this conclusion that the very idea of accepting oneself as a person is basically paradoxical and also contrary to logical reasoning.

Even if for the sake of conversation it is though helpful, causes notions leading to further confusion and conflict.

The revelation that Life as a Totality has no purpose, goal or meaning but maybe has significance only came to me while I came to live in the Jungle House.

For a whole one and half an year I was kind of homeless. However on the 5-th of September 2024, destiny brought me to this new Jungle House where I started to see how the things couldn't be planned. If there is Someone who really looks after the happenings and takes care of the Life of each and every individual, I can say that collectively we are only instruments in His hands. Such a Someone may have His designs but individually no one can see or understand about it in advance.

So, when I came here on the 5 -th of the  September 2024, I was informed that there is a proposed

"Home for the Old-Aged" /  वृद्धाश्रम 

to be constructed on this place.

So apparently, I felt I might be the first inmate if this project!

The construction work has now started and going in with a steady manner and pace.

Today when I glanced over I had other thoughts in mind.

This looked like a perfect place where a school could be started instead of a 

"Home for the Old-Aged" /  वृद्धाश्रम,

Where I can perhaps fit in as a teacher during the school sessions and also as in the holidays when I could help those who may be interested and are willing to seek spiritual guidance from me.

I think, at least at the scholarly level I can teach the Sanskrit Sanatan Dharma scriptures to them.

These are presently but my dreams only. It never matters what the destiny or the Future has in store for me and the world.

I had started writing this post to write about Perplexity / Comet.

But have come to this end! 

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Tuesday, 12 August 2025

The Mother of All!

MAYA/  माया

आवश्यकता आविष्कार की, और इसी प्रकार से कामना आवश्यकता की जननी होती है, अपूर्णता की भावना  कामना और अस्मिता ही अपूर्णता की। अविद्या अस्मिता की जननी होती है।

और यह अविद्या प्रमाद (In-attention) का ही दूसरा नाम है।

अविद्या अस्मिता राग-द्वेष तथा अभिनिवेश यही पाँचों क्लेश हैं जिनकी जननी है - माया और जिन्हें अज्ञान भी कहा जाता है।

समस्त प्रतीतियाँ बुद्धि में उत्पन्न होनेवाले आभास होते हैं और बुद्धि के सक्रिय होने के साथ ही मायारूपी प्रपञ्च प्रारम्भ होता है और बुद्धि का लय होते ही यह प्रपञ्च भी विलीन हुआ जान पड़ता है। बुद्धि का लय भी पुनः सुषुप्ति, मूर्च्छा, स्वप्न या समाधि (संप्रज्ञात या संप्रज्ञात, सविकल्प या निर्विकल्प, सविचारा या निर्विचारा) आदि स्थितियों  में से किसी भी स्थिति में हो जाया करता है। राग से आसक्ति और द्वेष से विरक्ति उत्पन्न होते हैं। राग तृष्णा को और विराग विरक्ति को जन्म देता है। राग-द्वेष की निवृत्ति होने का अर्थ है वैराग्य जागृत होना। जब यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्त दुःख और सुख दोनों ही एक दूसरे के ही भिन्न भिन्न प्रतीत होनेवाले प्रकार मात्र होते हैं और मूलतः क्लेश ही हैं, तभी वैराग्य का आविर्भाव होता है। किन्तु वैराग्य जागृत हो जाने मात्र से ही सारे क्लेशों का निवारण नहीं हो पाता है।

क्योंकि वैराग्य के जागृत हो जाने के बाद भी तितिक्षा रूपी तप करना होता है, क्योंकि -

मात्रा स्पर्शा तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्या ताँस्तिक्षस्व भारत।।१४।।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। 

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।

(गीता अध्याय २)

और, 

ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवतः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।२२।।

( गीता अध्याय ५)

तो, क्या किसी कर्म से कर्म की निवृत्ति हो सकती है?

ईश्वराज्ञया प्राप्यते फलम्। 

कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।

कृति महोदधौ पतनकारणम्। 

फलमशाश्वतम् गतिनिरोधकम्।।

ईश्वरार्पितं नेच्छया कृतं। 

चित्त-शोधकं मुक्तिसाधकम्।।

(उपदेश-सारः)

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

(गीता अध्याय २)

कुरुते गंगासागर गमनम् 

व्रतपरिपालनमथवा दानम्।

ज्ञानविहीनं सर्वमनेन

मुक्तिर्न भवति जन्मशतेन।।

(शंकराचार्य)

*** 



Monday, 11 August 2025

U P I, N F T and

The Non-Convertible Assets.

These times are of

De-colonization and

De-Dollarization,

U P I (Universal Payment Instrument),

and the N F T (Non-fungible Tokens);

It's not easy to turn on and focus one's attention on the Non-Convertible Assets.

Instruments are instrumental, Tokens are subject to change according to the  conditions, Times, Place and valuations, but the Assets are ever so inconvertible, Real, invaluable, inexhaustible, and the Essential, Existential and the Timeless Dharma, the core-truth itself.

In Bharat -  भारत,  we call the Dharma as  the Indestructible, the Essential, the only Existential Principle -

अविनाशी, अव्यय।

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

[गीता अध्याय २]

Body is instrumental,

Mind / consciousness is Non-Fungible Token,

Self is indestructible, Non-Convertible Immutable Reality the Asset -

Dharma / धर्म ।

***


Friday, 8 August 2025

3 I / Atles.

GOD, WORLD and Consciousness.

Could we possibly define what we may call -  God?

The World and the Consciousness are the obvious Realities and need not be defined. However, the God is always so uncertain and such a concept that one could only think of but never know if it exists really an essential Principle or is but a fictitious idea only in the mind.

Mind is consciousness, Or we could also say consciousness is mind as well.

The world is a continuity of experiences and perceptions in the consciousness.

The World and the consciousness are neither mutually different and distinct nor other than the perceptions.

Out of these Two principles, namely the World and the consciousness, emerges out the assumption of quite another an entity that is called the God.

Finding out, Exploring and Discovering the Underlying Essential Principle that is the Timeless and Ever Existent Truth implies there is consciousness where-in the Existence appears to be something like the World and all the Perception.

So God could easily be ruled out from this consideration.

Only because of the assumption and the erroneous idea of the "self" associated with the non-dual consciousness that is the only ignorance.

What is understood by this word - the Ignorance too is again only a name or a verbal situation and never a happening that could really be felt or experienced.

Ignorance as such is therefore only an abstract notion that becomes kind of a belief.

Even if there is something which or someone Who might be called God, a Superior Omniscient, Omnipotent and Omnipresent consciousness that is said to create, to maintain and ultimately to annihilate its creation, that may not be different and distinct other than this World and the consciousness. We can perhaps say this is the only Non-Dual Reality. It could therefore neither be a Superior nor inferior to the All That Is, is seen, known, and is experienced. We could further extend It to a so-called a Beginningless Time and an expanse in terms of limitless Space. 

In conclusion, no distinction any as the object and the subject in this perception of God and the "self " could be there. If this could be agreed upon, there is also neither the independent "Action" - the "Karma", nor a virtue or a sin and the consequences. But as soon as "self" is given reality, at once the idea of the one "Who" is supposed to perform such an  "Action" and has to experience, and go through the consequences assumes an apparent existence. This is verily the "Bondage" and has neither a beginning nor an end in sight. Though one may go on trying there is no release whatever.

तपस्विभ्योधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्योश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।४६।।

(गीता अध्याय ६, Shrimadbhagvad-gita 6/46)

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Friday, 1 August 2025

EGO and LET GO.

अभिमान और त्याग

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।२२।।

(गीता अध्याय ९)

निवृत्तिनाथ, सोपान, ज्ञानदेव और मुक्ता ये चारों थे तीन भाई और उनकी एक बहन। सबसे ज्येष्ठ थे निवृत्तिनाथ, उनसे छोटे सोपान, सोपान से छोटे ज्ञानदेव और तीनों से छोटी थी मुक्ता।

वे चारों ही अपने पूर्वजन्म में ही ब्रह्मनिष्ठ और आत्मनिष्ठ ज्ञानी की स्थिति प्राप्त कर चुके थे। संसार से उनके पिता का घोर वैराग्य होने पर भी प्रारब्ध से उनके माता पिता ने उनका विवाह कर दिया था और फिर शीघ्र ही वे घर से चले गये। घूमते हुए वे काशी पहुँचे और किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ तत्वज्ञानी संन्यासी से संन्यास दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्हें दीक्षा प्रदान करनेवाले गुरु से दीक्षा प्राप्त करने के बाद वे आध्यात्मिक साधना में संलग्न हो गए। उनकी धर्मपत्नी को जब पता चला कि वे काशी में हैं और उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया है, तो अपने पति की खोज करते हुए वे काशी जा पहुँची। अपने पति के संन्यास दीक्षा देनेवाले उस गुरु से वे मिली और उन्हें यह जानकारी दी। तब उन दीक्षागुरु ने उनके पति से कहा कि उनकी संन्यास दीक्षा में विधि का उल्लंघन हुआ है इसलिए वे इसके अधिकारी नहीं हैं। उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि पहले वह गृहस्थ आश्रम में लौट जाए और फिर उपयुक्त समय आने पर ही उन्हें संन्यास दीक्षा दी जा सकेगी। वे लौट आए और बहुत समय तक जैसे तैसे गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों का निर्वाह करने लगे। इस बीच उनके गाँव और समाज के लोग संन्यास ले लेने के बाद गृहस्थ आश्रम में लौट आने से उन्हें ताने देने और अपमानित करने लगे। इस तरह से जीवन व्यतीत करते हुए उन्हें ये चार संतानें प्राप्त हुईं। ये चारों अभी बच्चे ही थे कि उनके माता पिता ने गाँव और समाज में निरंतर हो रहे अपने अपमान से क्षुब्ध होकर जीते जी चिता प्रज्वलित कर आत्मदाह कर लिया।

उनकी इन चारों संतानों का जन्म और जीवन उनके लिए यद्यपि एक नाटक या लीला ही था क्योंकि वे पूर्वजन्म से ही ब्रह्मनिष्ठ और आत्मनिष्ठ होते हुए और अनन्य भाव से परमात्मा का चिन्तन करते हुए अनायास परमात्मा की अनन्य भक्ति में संलग्न थे।

चित्त में यह भक्ति जागृत होने के लिए यह आवश्यक है कि अभिमान का पूर्ण और स्वाभाविक रूप से त्याग हो चुका है। यह त्याग कौन करता है? त्याग स्वाभाविक न होने पर अभिमानपूर्वक किया जाता है और यह वस्तुतः त्याग नहीं होता। अभिमान शब्द अभि उपसर्ग से युक्त मान का द्योतक है। अभि उपसर्ग का प्रयोग अभिनव, अभिराम, अभियोग, अभियुक्त, अभिषेक, अभिधा आदि समासों में देखा जा सकता है।  ऊपर दिए गए श्लोक में भी इस उपसर्ग का प्रयोग "नित्याभियुक्तानां" पद में इसी अर्थ में है। यहाँ अभियोग का अर्थ आरोपी से भिन्न और यह है कि जो नित्य परमात्मा का अनन्य भाव से चिन्तन करता है और इस अर्थ में परमात्मा से अपनी अभिन्नता जानते हुए अपने आपके उससे भिन्न होने का अभिमान नहीं करता ऐसी भक्ति करनेवाला कोई भक्त। परमात्मा के प्रति ऐसी भक्ति उत्पन्न होने का कारण क्या हो सकता है यह तो नहीं कहा जा सकता है, किन्तु यह तो अवश्य सत्य है कि इससे पहले चित्त में अभिमान का पूर्ण नाश हो जाना चाहिए। यह नाश बाह्यतः तो आत्मानुसंधान से और प्रकारान्तर से संसार की अनित्यता का भान होने पर ही संभव होता है। इसे ही अनन्य निष्ठा भी कहा जा सकता है जिसे ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण होने का फल भी कह सकते हैं। तात्पर्य यह कि ऐसी निष्ठा जिसे ज्ञान और योग के दो भिन्न प्रतीत होनेवाले रूपों में एक ही फल प्रदान करनेवाला कहा जाता है।

प्रायः हर मनुष्य के मन में केवल दो ही कारणों से

"ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं?"

यह प्रश्न ही उठा करता है।

पहला कारण है केवल किसी से सुनकर विचार के रूप में जगत को बनानेवाले ऐसे किसी व्यक्ति, दिव्य शक्ति के अस्तित्व की कल्पना कर लेने पर, या दूसरा कारण होता है जीवन में दुःखों, पीड़ाओं और कष्टों से अत्यन्त त्रस्त और व्याकुल हो जाने पर इनसे अपना उद्धार करनेवाले किसी उद्धारकर्ता की कल्पना से। इन दोनों ही कारणों से ईश्वर के अस्तित्व को माननेवाले या अस्वीकार करनेवाले में अपने व्यक्ति विशेष होने का भाव विद्यमान होता है। यही अभिमान है।

क्या यह अभिमान स्वयं को मिटा सकता है? क्या ऐसा कोई और उपाय हो सकता है जिससे इस अभिमान का निवारण संभव हो?

ऐसे दो ही उपाय उस पात्र और अधिकारी मनुष्य के लिए हो सकते हैं जिसमें सीधे ही आत्मा के स्वरूप को जानने की उत्सुकता या गहरी उत्कंठा हो या जो अभ्यास करता हुआ अभ्यास योग का आश्रय लेकर सतत परमात्मा का स्मरण करता है। और किस कारण से वह परमात्मा का स्मरण करता है वह कारण नहीं, बल्कि महत्व इसका है कि चित्त या मन में वह उस किसी परमात्मा का निरंतर स्मरण करता है जो उसके कष्टों को सदा के लिए समाप्त कर सकता है। और उसके मन में शायद 

"ईश्वर का अस्तित्व  है या नहीं?"

यह प्रश्न भी कभी न उठा हो।

क्योंकि जीवन में दुःख, पीड़ाएँ और कष्ट तो निरंतर और नित्य अनुभव हो रहा तथा सत्य प्रतीत होनेवाली वस्तु है जिसके अस्तित्व पर किसी को कभी सन्देह हो ही नहीं सकता। और तब वह उन दुःखों, पीड़ाओं और कष्टों से मुक्ति पाना चाहता है। कभी कभी और प्रायः हमेशा ही वह यह तक नहीं देख पाता है कि वस्तुतः ये दुःख, कष्ट और पीड़ाएँ कम या अधिक भी होते हैं तो भी मृत्यु आने तक बने ही रहते हैं और मृत्यु की विचार तो दूर, कल्पना तक कोई नहीं करना चाहता है।

जीवन और संसार को केवल क्लेश ही समझ पाने पर जो त्याग मन में उत्पन्न होता है फिर उस त्याग का भी  अभिमान हो सकता और होता ही है और तब यह एक और भी अधिक कठिन प्रश्न या समस्या हो जाता है। 

***


 

JUST AS ...

Día de los Muertos

In Spanish, This means :

The Day of Dead. 

यथा हि 

शब्देनावरितं मौनं नित्यमनित्येन यथा।

रूपेण रूपमावरितं नैष्कर्म कर्मणा तथा।।

कालेन दृश्यं सर्वं सत्यमपि च मिथ्यया।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।

--

A couple of days ago I composed this.

This was incomplete, saved as a draft. 

Today I found this Spanish sentence.

Everyday is the Day of the Dead.

Those who are today alive too will die some day.

But again really no one ever does, for no one is born.

The birth and death happen never to one who never dies nor is born. 

The consciousness where-in and from where the sense of the existence of the world and the individual the one-self arise and subsequently disappears too, but the consciousness never arises nor disapears.

Though the memory of those who loved us and who we loved to causes the idea that they are no more.

In death the recognition of oneself and those who we knew comes to end, the consciousness remains unaffected. This is same as the collective consciousness, and is shared by all who appear to have been born and subsequently die too.

Another stanza comes to mind -

न जायते म्रियते वा कदाचन्नायं भूत्वाऽभविता च भूयः। 

अजो नित्यो शाश्वतमयं पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

So no need to grieve for the dead.

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। 

तथापि त्वं महाबाहो नैव शोचितुमर्हसि।।२६।।

(गीता अध्याय २)

Because :

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवो जन्म मृतस्य च। 

तस्मादपरिहार्यार्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।

(गीता अध्याय २)

***





 

Sunday, 27 July 2025

Vires Naturae

Forces of Nature

--

Unaware of themselves,

Interact with one-another

Giving rise to phenomenal Existence.

The Underlying Principle,

Latent behind them, however,

Shines up in the myriad reflections.

Giving rise to phenomenal individual, 

Who assumes the form of person.

The same Forces of Nature, 

Interacting with themselves,

Maintain for a spell of time, 

The brief continuity of the person, 

Who is but a temporary phase only. 

Soon the whole drama is wound up.

The Forces return to themselves,

Dissolving into the Great Void. 

Silent, Unaffected, Unaware, 

Of whatever happened.

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Wednesday, 23 July 2025

Automatic Divine Action.

ईश्वरीय संकल्प 

जब राजा दशरथ को ज्ञात हुआ कि प्रमादवश कितना बड़ा अनर्थ और अनिष्ट उनके हाथों से हुआ है तो राजा दशरथ बहुत ही व्यथित और अत्यन्त व्याकुल हो उठे।  लौटकर वे वन में स्थित उस स्थान पर पहुँचे जहाँ उनके साथ आए सैनिक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दो सैनिकों को उन्होंने तुरंत ही द्रुत गति से अयोध्या जाकर अपने कुलगुरु वसिष्ठ से इस वृत्तान्त का विवरण देने के लिए कहा। काँवडधारी श्रवण कुमार और उसके वृद्ध माता-पिता के शवों को सम्मान के साथ सुरक्षित रखने की व्यवस्था करने के बाद वे कुछ समय तक उद्वेलित मन से श्रीहरि से उनकी सद्गति और अपने अपराध के लिए क्षमा की प्रार्थना बारम्बार प्रार्थना करते रहे।

सुबह होते होते उनके कुलगुरु और कुलपुरोहित वसिष्ठ राज्य के दूसरे पुरोहितों के साथ आ पहुँचे जहाँ सरोवर के उस तट पर तीनों शवों का विधिपूर्वक दाह संस्कार कर दिया गया। फिर वे सभी अयोध्या लौट आए।

शीघ्र ही यह वार्ता संपूर्ण अयोध्या में जंगल की आग की भाँति फैल गई। प्रजा दुःखी तो थी, किन्तु हर किसी ने यही सोचा कि राजा के हाथों हुआ यह अपराध अनजाने में ही हुआ था, जिसमें वे नियति के क्रूर हाथों के एक यंत्र भर थे। इसके बाद उनके कुलगुरु के द्वारा पुनः पुनः दी गई सान्त्वना से भी उनके हृदय का क्षोभ तनिक भी कम न हो सका। ऐसे ही अनेक वर्ष बीत गए। राजा की तीनों रानियाँ भी राजा के दुःख से दुःखी रहती थी। बहुत वर्षों तक निःसंतान रहने के बाद एक दिन उनके कुलगुरु और राजपुरोहित ऋषि वसिष्ठ ने उनसे कहा :

महाराज! आपका तप पूर्ण हुआ। अब तक आपकी तीनों रानियों ने भी आपके दुःख को कम करने के लिए यथेष्ट प्रयत्न किया और यद्यपि निःसंतान होने का अभिशाप और उसकी पीड़ा आपके साथ उन्होंने भी झेली, किन्तु यह तो विधि का विधान था जिसे बदल पाना मनुष्य के वश की बात नहीं है। आप भी वेदों के तात्पर्य को जानते ही हैं। अब आप संकल्प-पूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान कीजिए ताकि साक्षात् भगवान् नारायण श्रीहरि आपको पुत्र की तरह संतान के रूप में प्राप्त हों।

तब से राजा दशरथ निरन्तर भगवान् नारायण श्रीहरि का मन ही मन स्मरण करने लगे।

इससे पहले भी अपनी तीनों रानियों से उनका अत्यधिक प्रेम था, किन्तु अब तक उस प्रेम में राग की ही अधिकता थी। अब कुलगुरु के वचनों को सुनते ही रानियों के प्रति उनके प्रेम से राग की अत्यन्त निवृत्ति हो गई और उसका स्थान भगवान् नारायण श्रीहरि के स्मरण ने ले लिया।

कुलगुरु का निर्देश प्राप्त होने पर नियत समय पर अपनी तीनों रानियों के साथ उन्होंने संकल्प-पूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ के अनुष्ठान की दीक्षा ली और फिर चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन भगवान् नारायण श्रीहरि ने उनकी तीनों रानियों से उनकी चार संतानों :

श्रीराम लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूप में जन्म लेकर उनके शोक का निवारण कर दिया, उन्हें हर्षविभोर और पुलकित कर दिया।

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Tuesday, 22 July 2025

Collective Consciousness

THE ONLY ISSUE :

WhatIsDharma / adharma / vidharma?

धर्म / अधर्म और विधर्म 

नेति नेति इति च ।

संसार में मनुष्य ही संभवतः एकमात्र विचारशील प्राणी है, जो न केवल अपने आप से, बल्कि अपने जैसे दूसरे मनुष्यों से शाब्दिक विचार के माध्यम का प्रयोग करते हुए अपने मन्तव्य का आदान-प्रदान करता है। और यह आदान-प्रदान भी किसी उस विशेष भाषा के माध्यम से ही किया जाता है, जिसका प्रयोग दोनों कर सकते हों।

शायद आपने कभी ध्यान दिया होगा कि जीवन के किसी भी क्षण में एकाएक अनपेक्षित रूप से कुछ ऐसा होता है और जो आपको अगले ही पल उस सबसे इतनी दूर ले जा सकता है जिसकी आपने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होती है।

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।।२४।।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व बीजम्।।२५।।

(पातञ्जल योगदर्शन - समाधिपाद) 

इसे शायद  

Automatic Divine Action / Will

ईश्वरीय संकल्प या आदेश

कहा जा सकता है। कुछ ऐसा लगभग हर किसी के ही  साथ प्रायः होता रहता है। अगर मन अतीत की स्मृतियों में डूबे रहने से और भविष्य की कल्पनाओं का अनुमान करते रहने की अभ्यस्तता से मुक्त हो तो इच्छा द्वेष और भय उस पर आधिपत्य नहीं कर सकते और तब वह - "जो होता है" उसका सामना करने के लिए उत्सुकता और उत्साहपूर्वक तैयार रह सकता है।

सवाल यह भी नहीं है कि अपने आपसे भिन्न और पृथक् किसी दूसरे ऐसे "ईश्वर" का अस्तित्व है या नहीं जिससे प्रार्थना की जा सकती हो, क्योंकि वैसे भी अभी तो हम ऐसे किसी संभावित "ईश्वर"  से अनभिज्ञ हैं, और इससे भी कि उसका अस्तित्व है या नहीं! किन्तु अगर अपने जीवन में क्षण प्रतिक्षण जो कुछ भी होते जा रहा है, उस घटनाक्रम पर दृष्टि डालते तो तत्काल ही देख और समझ सकते हैं कि किसी अज्ञात दिशा से, और किसी अज्ञात तथा दिव्य सत्ता के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि आगे क्या होने जा रहा है। उसे हम "ईश्वर"  यह नाम न भी दें तो भी "विधाता"  तो कह ही सकते हैं, और यह भी कि वह "विधाता" कोई व्यक्ति विशेष नहीं, बल्कि चेतन शक्ति विशेष है। चेतन का अर्थ है चेतना से युक्त, और शक्ति का अर्थ है प्राणवान। अर्थात् न तो वह कोई जड वस्तु है और हमारी तरह बुद्धि के सहारे कार्य करनेवाली सत्ता। कोई भी जड वस्तु स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकती बल्कि प्रकृति के नियमों से परिचालित होकर ही कार्य के होने में कारक होती है। जबकि दूसरी ओर, सभी चेतन / जीवनयुक्त और प्राणयुक्त वस्तुएँ या जीव हर समय अपनी बुद्धि से ही परिचालित होकर कार्य करने में संलग्न होने के लिए अपरिहार्यतः बाध्य होते हैं।  साथ ही यह भी सत्य है कि बुद्धि समय समय पर भिन्न भिन्न प्रकार से व्यक्त होती है। बुद्धि सदा स्मृति पर निर्भर होती है और स्मृति इन्द्रियानुभवों पर। और "जो होता है" या "होने जा रहा होता है" वह स्मृति या इन्द्रियों के किसी भी अनुभव से पूरी तरह से स्वतंत्र और निरपेक्ष होता है, जिसका पूर्वानुमान तो लगाया जा सकता है किन्तु ठीक ठीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

कुछ ऐसा ही वाकया आज दो घन्टे पहले हुआ जब मैं परमहंस योगानन्द 

(जिनकी लिखी पुस्तक : योगी कथामृत -

Autobiography of a Yogi 

आज से लगभग चालीस वर्ष पहले पढ़ी थी।)

जिससे संबंधित एक वीडियो यू-ट्यूब पर दिखाई पड़ा। यह मनुष्यों के रक्त-समूह / blood-groups , उनके स्वभाव और प्रेरणाओं, मनोवृत्तियों, उनके द्वारा किए जानेवाले कर्मों के बीच के संबंध के बारे में था। इस वीडियो में मनुष्य के चार रक्त-समूहों और उनकी विशेषताओं का वर्णन किया गया था। इस वर्णन में A,  B, AB और O रक्त-समूहों और उनकी विशिष्टताओं के बारे में जैसा कहा गया था उस बारे में मैं प्रायः उसी तरह सोचा करता था और उसे श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 4 के श्लोक 13 के परिप्रेक्ष्य में पूर्णतः सुसंगत पाता था -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं

गुण-कर्म-विभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धि-

अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

शायद उसे ही वह "विधाता / ईश्वर" कहा जा सकता है, जो अपनी दैवी, गुणमयी माया से परिचालित करता हुआ क्षण क्षण और प्रतिक्षण ही उन कर्मों के होने में हमें यंत्र की तरह प्रयुक्त करता है और हम चाहते या न चाहते हुए भी यंत्रवत् उन्हें करने के लिए बाध्य होते हैं। उत्तेजना या आवेश में, संशय, संकल्प, आशा, लालसा या भय से युक्त होकर, कर्तव्य या आदेश समझकर। 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।६१।।

***





Monday, 9 June 2025

A Land-mark Mile-stone...

Why it's a New Beginning?
--
The last post is a land-mark in the sense that I see a common thread between the teachings of

Sri Ramana Maharshi -
श्री रमण महर्षि,

Sri J. Krishnamurti  -
श्री जे. कृष्णमूर्ति

and

Sri Nisargadatt Maharaj -
श्री निसर्गदत्त महाराज.

Moreover, I also see how the very same teaching is there also in the -

Srimadbhagvadgita /-
श्रीमद्भगवद्गीता.

In order to elaborate and elucidate this point, I wish to write a few more verses in continuation in the next posts.

***

 





Friday, 6 June 2025

Another Beginning!!

भारद्वाजकृता

अष्टावक्रगीता

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत् त्यज।

विषयान् परित्यक्त्वा विषयिनमपि त्यज।।1।।

(The first line of the verse here as such is borrowed from the first verse of the :

संस्कृत अष्टावक्र गीता,

While the second line has been composed by myself.)

विषय-विषयिनौ वृृत्तिः द्विधैव अवगम्येते।

अहंवृत्तिर्हि एका या स्फुरति स्फुटिता तथा।।2।।

का एषा अत्र अहंवृत्तिः वर्तते विलीयते इति।

विषयान् सहोद्भवति विषयान् सह प्रविलीयते।।3।।

यस्मिन् बोधमये भाने विषय-विषयिनौ वर्तेते।

स भानः नैव उद्भवति न याति विलयं तथा।।4।।

एतद् विमर्ष्य परिवीक्षेण अवधानं तथा व्रजेत्।

अवधानो स्वरूपः स्यात् अवधानः मुक्तिः अपि।।5।।

कर्ता, भोक्ता वा स्वामी को, कस्य स्विद्धनमिदम्।

इति दृष्ट्वा त्यजेत्सर्वं त्यक्तारमपि ततः त्यजेत्।।6।।

यतो हि -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।14।।

नादत्ते कस्यचित् पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।15।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।16।।

--

इति श्रीमद्भगवद्गीतायां पञ्चमे अध्याये।।

अपि यावत्किञ्च संशोधनमपेक्ष्यते अत्र?

अवगन्तव्यम्।।

इति शं।।

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This may need further editing,

So please note!

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Saturday, 3 May 2025

The Itinerary

To be edited. 

मुकेशजी वत्स

एक रोचक  YouTube video. 

इस पर विस्तार से लिखने का मन है।

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Wednesday, 9 April 2025

The Evangelist.

समय, संबंध, संपत्ति और संकट

उनके संसार में, उनकी दृष्टि से, वे एक 'सफल' स्वनिर्मित (successful, self-made person) मनुष्य थे। 

उन्होंने और उनका परिवार जो पहले सनातन धर्म की परंपराओं का पालन करता था, सनातन धर्म की सभी परंपराओं और संस्कृति को पूरी तरह से त्याग दिया था। और तब से वे सनातन से भिन्न किसी अन्य परंपरा में मतान्तरित हो गए थे  क्योंकि यह सुविधाजनक भी था।

किसी भी मत या विश्वास में सिर्फ बाध्यता, प्रलोभन या भय से, सुरक्षित अनुभव करने से मतान्तरित हो जाना तात्कालिक रूप से यद्यपि लाभप्रद जान पड़ सकता है, किन्तु कभी न कभी इसके भयावह परिणामों का सामना भी अवश्य ही करना ही पड़ता है।

वे प्रायः अपनी ही पूर्व-संस्कृति, परंपराओं और मत का उपहास भी किया करते थे और मतान्तरण के शॉर्ट-कट से प्राप्त हुई सफलताओं पर उन्हें गर्व भी होता था। वैसे पहले वे शुद्ध शाकाहारी थे लेकिन मतान्तरित हो जाने के बाद उन्हें शाकाहार के दोष दिखाई देने लगे थे। 'अहिंसा' अब उनकी दृष्टि में डरपोक मानसिकता का ही लक्षण हो चुका था।

मैं उनके इस सब इतिहास से अनभिज्ञ था। उन्हें पता था कि मैं किन परंपराओं और संस्कृति को महत्व देता था। वे मुझे एक औसत 'बुद्धिजीवी' ही मानते थे, इसलिए भी उन्हें लगता था कि मुझसे मेल-जोल रखने पर भविष्य में मुझे भी उनके अपने उस विश्वास में वैसे ही मतान्तरित कर सकेंगे, जैसे कि अभी तक बहुत से लोगों को करते आए थे।

वे कभी कभी और प्रायः ही कहा करते थे -

हर व्यक्ति की एक 'फिलॉसाफी' होती है। उनका मतलब यह था कि हर व्यक्ति जन्म या संस्कार से, या सामाजिक परिस्थितियों के कारण, सोच-विचार के किसी तय साँचे में किसी 'विश्वास' से बँधा होता है। और हर कोई ही ऐसे ही किसी 'विश्वास' में संसार में, और अपनी मृत्यु के बाद भी स्थायी, अन्तहीन सुरक्षा और अनन्त सुख-भोगों को भी प्राप्त कर सकता है। उनका 'विश्वास', मत या मतलब या फिलॉसाफी यही थी। उनका मतलब, फिलॉसाफी या 'विश्वास' भी केवल उनकी 'स्मृति' पर आधारित उनकी एक मनोदशा भर ही थी, इस ओर उनका ध्यान न तो जा सका था, न ही वे इस बारे में जानने या समझने के लिए उत्सुक ही थे।

समय, संबंध, और संपत्ति इसी प्रकार से, हर मनुष्य की ही बुद्धि को मोहित कर लेते हैं कि वह किसी न किसी 'विश्वास' से ग्रस्त हो जाता है। यह 'विश्वास' किसी 'दिव्य' सत्ता के अस्तित्व के आग्रह का रूप भी ले सकता है जो कट्टरता की हद तक जा सकता है, जिसके लिए आप न केवल अपने बल्कि दूसरों के प्राण भी ले सकते हैं, और इससे भी बढ़कर दूसरों को अपने 'विश्वास' में मतान्तरित करने को एक ऐसा पुण्य-कार्य भी मान सकते हैं जिससे वह 'दिव्य' सत्ता आप पर प्रसन्न हो सकती है। आप उन सभी के प्राण लेने को भी अपना महानतम पावन कर्तव्य भी मान और समझ सकते हैं जो आपकी उस इष्ट 'दिव्य' सत्ता के अस्तित्व पर संशय करते हैं, संक्षेप में, वे सभी, जो 'नास्तिक' हैं, या जो आपके 'विश्वास' से भिन्न किसी अन्य मत को मानते हैं।

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Monday, 24 March 2025

What is (in) the Name?!

My Thoughts!

मेरे विचार!

किसी से भी परिचय और बातचीत प्रारंभ करने के लिए कोई न कोई बहाना होता है, और न हो तो बना भी लिया जा सकता है।

ऐसे ही आज एक नए, अब तक अपरिचित एक व्यक्ति ने मिलने का अनुरोध करने के लिए फोन किया।

नाम सुनकर क्षण भर को लगा कि यह या तो कोई बहुत विख्यात व्यक्ति है या इस नाम से जाना जानेवाला दूसरा कोई और है।

किसी परिचित मित्र का उल्लेख करते हुए उसने मुझसे कुछ प्रारंभिक बातचीत करने के बाद कहा -

"आपके विचारों के बारे में उनसे सुना। उम्मीद है आपसे कुछ सीखने को मिलेगा।"

"मेरे विचार?"

"जी"

फिर एक-दो दूसरी बातों के बाद तय हुआ कि एक या दो दिन में वे मुझसे मिलने आ रहे हैं।

उनके नाम से यह भी प्रतीत हुआ कि शायद इस नाम से पहले उनका कोई और नाम रहा होगा और जैसे बहुत से लोग किसी समय अपने माता पिता द्वारा प्राप्त हुए नाम को बदलकर किसी कारण या उद्देश्य से दूसरा कोई नाम अपनी नई एक और पहचान बनाने के लिए रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने यह नाम रख लिया होगा। 

क्या नाम और पहचान वास्तविक हो सकते हैं! क्या नाम और पहचान एक अस्थायी और सुविधाजनक स्मृति ही नहीं होती जो बहुत अधिक समय बीतने के बाद स्वयं ही मिट जाती है!

और विचार?

जैसे किसी का नाम एक कामचलाऊ और तात्कालिक पहचान और स्मृति भर होती है, न कि ऐसी कोई वस्तु जो वह स्वयं हो, वैसे ही क्या यह संभव है कि "विचार" भी किसी के "अपने" होते हों! और यद्यपि कोई दावा भी करे कि ये विचार उसके नितान्त निजि हैं उसके अपने ही और "स्वतंत्र" भी हैं, तो भी क्या उन्हें वह अक्षरशः उन्हीं शब्दों में हमेशा याद भी रख सकता है? क्या वह वैसे भी किसी भी क्षण उसकी इच्छा के अनुसार उन्हें बदल या त्याग नहीं सकता है? और अधिक संभव तो यही है कि जाने अनजाने या और भी किन्हीं कारणों तथा परिस्थिति में वह ऐसा करने के लिए बाध्य भी हो सकता है।

विडम्बना यह है कि किसी की औरों से भिन्न अपनी कोई विशेष पहचान होती ही नहीं है, न हो ही सकती है। और जो भी होती है वह केवल कामचलाऊ, तात्कालिक और क्षणिक होती है। और इस सरल तथ्य को समझ न पाने और स्वीकार न कर पाने से हर कोई अपनी कोई स्थायी, ठोस ऐसी पहचान बनाने या स्थापित करने के प्रयास में संलग्न हो जाता है जो मन में गढ़ी या रची गई हो, और जो उसे अत्यन्त प्रिय हो। यह कोई नाम हो सकता है या कोई सिद्धान्त, शब्द जो कि किसी आदर्श का द्योतक भी हो सकता है। क्या मन इस प्रकार स्वयं ही अपने ही द्वारा सृजित किए गए एक दुष्चक्र में नहीं फँस जाता?

जब किसी का नाम भी केवल एक औपचारिकता और उपयोगिता से अधिक कुछ नहीं हो सकता तो "उसके" उन "विचारों" के बारे में क्या कहा जाए जो दिन प्रतिदिन और समय समय पर नए नए रूपाकारों में बदलते और ढलते रहते हैं?

याद आया --

"नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा...

मेरी आवाज ही पहचान है,  गर याद रहे!"

मनुष्य की आवाज़ जरूर ऐसी अपेक्षाकृत स्थिर पहचान होती है जिसे न तो कोई बदल सकता है, न भूल सकता है, भले नाम और चेहरा भूल जाए।

और अपना कोई नाम और चेहरा कहीं होता ही कहाँ है! 

***


  



Tuesday, 18 March 2025

A Short Story.

अन्तर्दर्शन

आज सुबह एक पोस्ट लिखा था जिसमें कल के प्रसंग का उल्लेख भर किया था -

बहुत समय से यह होता रहा है कि स्वप्न जैसी किसी अवस्था में किसी दूसरे लोक से संपर्क स्थापित हो जाता है। लगभग पूरी एक कहानी मैं पढ़ रहा होता हूँ या किसी से बात कर रहा होता हूँ। सामान्य जैसे कुछ लोग मुझसे जुड़े होते हैं। कभी कभी मुझे स्मरण रहता है कि यह जो मैं देख रहा हूँ वह स्वप्न है जबकि वस्तुतः मैं कहीं सोया हुआ होता हूँ और जाहिर है कि स्वप्न की उस अवस्था में मैं यह नहीं जान सकता हूँ कि मेरा शरीर जो सोया हुआ है वह इस समय कहाँ होगा। और यह भी लगता है कि मैं फिर भी स्वप्न से बाहर नहीं जा सकता। स्वप्न प्रिय हो या अप्रिय, रोचक हो या उबाऊ, भयानक हो या मनोरंजक, पूरा होने तक चलता रहता है। कभी कभी बीच में ही टूट भी जाता है और मुझे समझ में आ जाता है कि यह अब टूटने ही वाला है, और मैं जागने ही वाला हूँ। उसी समय मन में यह खयाल भी आता है कि इस स्वप्न को भूलना नहीं है। फिर भी बहुत बार यह भी होता है कि जाग जाने पर मैं उसे चाहकर भी याद नहीं कर पाता हूँ। अचानक मानो एक पर्दा बीच में आता है और उस स्वप्न की स्मृति पर पड़ जाता है। कभी कभी कुछ याद भी रह जाता है और मैं उसे लिख रखने के बारे में सोचने लगता हूँ। कभी कभी लिख भी लेता हूँ। कभी कभी लिख पाना नहीं भी हो पाता है। लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि उस स्वप्न में भविष्य में होनेवाली घटनाओं के संकेत भी दिखलाई देते हैं। कभी कभी कुछ ऐसा भी कि वह मेरे लिए किसी नए पोस्ट को लिखने की प्रेरणा बन जाता है। 

जैसे कि बहुत दिनों पहले ऐसे ही एक स्वप्न में मुझसे एक व्यक्ति ने पूछा था :

"प्रभु" और "विभु" के बीच क्या अंतर है?

तब उत्तर में मैंने उसे गीता के अध्याय १० का यह श्लोक सुनाया था --

यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।

और फिर तत्काल ही अध्याय ५ के यह श्लोक भी -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।१६।।

फिर मैंने उसे बतलाया कि प्रभु वह विश्वचैतन्य है जो कि विभूति की तरह प्रत्येक जड चेतन में बाह्यतः अभिव्यक्त होता है जबकि उस रूप में वह जड या चेतन भूत विभु वह जन्तु विशेष है जिस पर कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और व्यष्टि-स्मृति रूपी अज्ञान आवरित हो जाता है।

कोई व्यक्ति कभी कभी प्रारब्धवश उस समष्टि स्मृति से संपर्क में होता है जहाँ पर भूत, वर्तमान और भविष्य की स्मृति उसके सम्मुख होती है। तब उसे अनायास ही जिस भविष्य का दर्शन होता है वह वैश्विक समष्टि स्मृति से ही उसे दिखाई देता है। नॉस्ट्रेडेमस, बाबा वैंगा या ऐडवर्ड कैसी जैसे भविष्यदर्शी और दूसरे भविष्यवक्ता इसी तरह से भविष्यवाणियाँ करते हैं। उनके पास स्वेच्छया प्राप्त की जा सकनेवाली वह सिद्धि नहीं होती जो कि ऋषियों को योग साधना से प्राप्त होती है। और इसलिए कोई भी व्यक्ति कभी कभी तो अनायास ही भविष्य में होनेवाली किसी घटना को स्वप्न में या स्वप्न जैसी अवस्था में देख लिया करता है।

प्रभु के लिए सब कुछ अवतार रूप में उसके माध्यम से हो रही "लीला" भर होता है, जबकि विभु के लिए यही उसका प्रारब्ध होता है।

स्वप्न टूटने के बाद कुछ समय मैं इस अनुभव पर विस्मय में डूबा रहा कि इस स्वप्न ने किस प्रकार आकर मेरे मन को भावविभोर कर दिया।

यह भी थोड़ा विचित्र ही है कि इस पोस्ट में कल के जिस स्वप्न का उल्लेख मैं करना चाहता था वह नहीं कर पाया। शायद फिर कभी! 

समष्टि स्मृति या आकाशीय स्मृति

Cosmic Memory. 

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Monday, 17 March 2025

The Tradition.

शिक्षा भाषा और परंपरा

संस्कृत शास् - शासयति धातु से व्युत्पन्न शिक्षा शब्द का प्रयोग शासन करने और पर्याय से किसी और को उचित  आचरण करने के लिए मार्गदर्शन देने के अर्थ में होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् का प्रारंभ ही शीक्षा वल्ली से होता है। यह जानना रोचक होगा कि हिन्दी और समूचा भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित "शाह" उपनाम इस "शास्" का ही अपभ्रंश है जो फ़ारसी और संभवतः अरबी भाषा में "शाह" में परिणत हो गया। यह इसलिए भी हो सकता है कि इससे जुड़ा एक और शब्द "पाद" भी "पद" के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इन दोनों पदों के समास से बना शब्द "पादशास्" का प्रयोग उस पुरातन समय से प्रचलित है,  जब भगवान् श्रीराम के भाई भरत और शत्रुघ्न को मामा के घर से अयोध्या लौटने पर पता चला कि माता कैकेयी को महाराज दशरथ के द्वारा दिए गए दो वचनों को पूरा करने के लिए श्रीराम को चौदह वर्ष के लिए वनवास में भेज दिया गया है और माता सीता तथा भाई लक्ष्मण भी उनके साथ वन को चले गए हैं।

अनुनय विनय और आग्रह ने के बाद भी भगवान् श्रीराम ने जब अयोध्या लौटना अस्वीकार कर दिया तो भरत ने उनसे उनकी पादुकाएँ माँगी ताकि श्रीराम के वनवास की अवधि में उन्हें ही अयोध्या के राजसिंहासन पर रखकर अयोध्या पर शासन करने के श्रीराम के राज्याधिकार के दायित्व और कर्तव्य का निर्वाह भरत कर सकें।

पुनः चौदह(सौ) वर्षों के वनवास के बाद भगवान् श्रीराम अयोध्या में विराजमान हो चुके हैं, और अब आर्यावर्त के विद्वज्जन पुनः "सतयुग" के आगमन की चर्चा करने लगे है। यह कहाँ तक और कितना सत्य है यह तो समय आने पर ही पता चलेगा।

(कल ही सुबह अपने अन्तर्दर्शन में देखा था। कोई कुछ कह रहा था। उसे अगले पोस्ट में लिखने का विचार है।)

"पादशास्" शब्द का पुनः प्रयोग महाराज शिवाजी द्वारा उनके गुरु समर्थ श्री रामदास महाराज के खड़ाऊँ राज्य के राजसिंहासन पर रखकर उसी तरह शिवाजी ने किया। शिवाजी ने उसी परंपरा का अनुसरण किया जिसे भरत द्वारा स्थापित किया गया था। 

इसी "पादशास्" शब्द का फ़ारसी अपभ्रंश "बादशाह" हो गया क्योंकि अरबी भाषा के फ़ारसी भाषा में लिप्यन्तरण करने पर "प" के लिए "ब" का प्रयोग किया गया और जैसा कि हम जानते ही हैं कि किस प्रकार संस्कृत "स" वर्ण फ़ारसी / अरबी भाषा में "ह" हो गया और यही "स" लैटिन / अंग्रेजी में "s" हो गया होगा। लिपिसाम्य का यह भी एक उदाहरण है।

फ़ारसी का "बादशाह" फिर मुगलों के काल में राजा के अर्थ में प्रचलित हुआ।

महाराज शिवाजी के समय में उनकी परंपरा में भी इस शब्द के प्रयोग से इसकी ही पुष्टि होती है।

दूसरी ओर, "परंपरा" शब्द का अर्थ है पर से भी पर और इससे ही व्युत्पन्न "परंपरा" का अर्थ प्रकारान्तर से "रुढ़ि" भी हो गया।

मनुष्य चूँकि एक सामाजिक और विकासशील प्राणी है, इसलिए शासन और शिक्षा दोनों परंपरा और अनुशासन दोनों रूपों में ऐतिहासिक यथार्थ हैं। शिक्षा से परंपरा का और परंपरा से शिक्षा का विकास और विस्तार होता है। फिर विभिन्न समूहों में परस्पर संबंध और स्पर्धा होती है

पुनः अपनी जड़ों की तलाश शुरू होती है।

शाक्यमुनि गौतम, वाजश्रवा, भार्गव भृगु ऋषि की परंपरा के थे जिनका उल्लेख कठोपनिषद् में पाया जाता है। ये सभी ऋषि मूलतः वे सात ऋषि हैं जिन्हें हम उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की परिक्रमा करते हुए देखते हैं। पूरे संवत्सर में वे आकाश में दक्षिणावर्त (clockwise) स्वस्तिक के रूप में दृष्टिगत होते हैं। जैसे घड़ी के काँटे जिस दिशा में गति करते हैं, उसी प्रकार से।

वैदिक परंपरा की ही तरह बौद्ध, जैन आदि अवैदिक परंपराओं ने भी स्वस्तिक को यह स्थान दिया और इस प्रकार धर्म को वैदिक या अवैदिक दोनों रूपों में सनातन के ही अर्थ में मान्य किया गया।

बुद्धावतार के बाद तुर्कों और मंगोलों (मुगलों) के द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के बाद भगवान् श्रीराम को पुनः चौदह (सौ) वर्षों के लिए वनवास में रहना पड़ा। यह सब केवल संयोग ही है या विधि का विधान है, इसे कौन जान सकता है? इजिप्ट / अवज्ञप्ति, जिसे मिस्र भी कहा जाता है और जो मिशनरी परंपरा का प्रारंभिक रूप था, उससे उस कबीले के निष्कासन के बाद वह कबीला  मरुस्थल में भटकते रहा जहाँ अंगिरा (मुण्डकोपनिषद्)  ने शौनक को उस सत्य का उपदेश किया जिसे "अब्रह्म" या अब्राहम / इब्राहिम नामक प्रथम संदेशवाहक के नाम पर अब्राहमिक परंपरा कहा जाता है। "अंगिरा" का ही सजात / सज्ञात / cognate है - "Angel", और इसी परंपरा के  ऋषि जबाल / जाबाल ऋषि को ही, 

Abrahmic Tradition

में  Gabriel Angel  के रूप में ग्रहण किया गया। 

उल्लेखनीय है कि परशुराम भी इसी भृगु-वंश में उत्पन्न हुए थे जिनका साम्राज्य गोकर्ण (गोआ) से पार्श्व दिशा में फारस तक था ।

शाक्यमुनि स्पष्टतः शक परंपरा में उत्पन्न शुद्धोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ थे।

सिद्धार्थ को निरञ्जना नामक नदी के तट पर सुजाता नामक वनदेवी ने पीने के लिए दूध अर्पित किया था। यह भी शायद संयोग है कि सिद्धार्थ ही पूर्वजन्म में अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोड / कहोल / कहोळ थे जिन्हें वरुण ने अपहृत कर लिया था ताकि वह किसी यज्ञ में पुरोहित का कार्य कर सकें। वरुण पश्चिम दिशा के ही "वसु" हैं। इन सभी सन्दर्भों का उल्लेख मैंने अपने कुछ ब्लॉग्स में किया है,  लेकिन सब बिन्दुओं को जोड़ पाना मेरे लिए थोड़ा श्रमसाध्य तो है ही। हाँ, जिन्हें उत्सुकता हो शायद वे धैर्यपूर्वक इस सबका अध्ययन कर सकते हैं।

यहाँ यह सब केवल स्मृति-सूत्र (record) के रूप में संजो रखने के लिए है।

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Saturday, 15 March 2025

Quantum Fields are Conscious.

Thus said a Physicist.

This much I read today in the morning.

Now they are talking! 

Way back in 1976-77 when I was doing my Post-graduation in Mathematics I already knew how a "Space" differs from a "Field".

So this makes sense to me.

I can see they would sure "discover" -

There are 33 Quantum Conscious Fields in all, and there are 7 Quantum Spaces.

A Space and a Field are independent, disjoint and "Conscious" manifestations too,  yet they share the one and the same charecristics of being Conscious.

Reverse Engineering.

I was going through some videos about the classical scriptures.

Going through the scriptures involves the risk of misinterpretation and even the  sincere scholars most often get trapped into conflict and confusion.

The story was of Shrikrishna, Devaki Mata, Nanda Baba Yashoda Vasudeva and Kansa.

Most of the Hindu / SanAtana Dharma people know this scripture / story either in the form of KathA as narrated in the purANa of the various names that look quite different in their style and Time.

All the different purANa belong to the  different Times  / Era / Year / of the kind of Space and Time.

The 33 conscious Quantum Fields could be compared to the devatA Principle in the purANa and the Veda. 

There are Vedika devatA that find place in the four Veda(s) and in the purANa.

The Vedika devatA are the 33 Fields / Realms, while the pauraNika are of the manifest form.

For example when we talk about devatA - gaNapati, This could be either as in the Rgveda maNDala 2 : 21,22, 23,24 or as is in the gaNapati atharvasheerSha.

Or, maybe as is depicted in the gaNesha purANa, shiva purANa, agni purANa, devI PurANa and so on so forth.

Likewise are the rudra / रुद्र, skanda / स्कन्द, agni/ अग्नि , vAyu / वायु, Indra / इन्द्र, Surya / सूर्य, Soma / सोम, varuNa / वरुण , devI / देवी 

These Divine Entities are the examples of the Abstract Conscious Fields, but their depiction as is narrated in the purANa are their manifest forms.

Back to :

Krishna, DevakI, Vasudeva, Yashoda,  Nanda and Kansa.

All they are The Supreme Divine Reality that is the Unique Principle :

KrishNa / श्रीकृष्ण 

Either as in the potential unmanifest or as in the manifest one.

KrishNa is the sat / सत्  the Supreme and the absolute Reality, while cit / चित् / चिति  / DevakI, the Divine consciousness aspect of the same.

Vasudeva / वसुदेव  is the Divine Father Principle, and KrishNa as The son of DevakI and Vasudeva / वसुदेव  is Ishwara / व्यक्त ईश्वर - The same Supreme Reality as KrishNa as he manifest Principle, having a name and a form too.

DevakI / देवकी  and Vasudeva / वसुदेव  are thus the material aspect / Prakriti  and the consciousness together.

The Ishwara / ईश्वर  thus took the human form through the two - namely Devaki and Vasudeva.

Thereafter comes the parents - Nanda bAbA and YashodA.

Nanda means play, joy  while the word YashodA means the fame / glory.

Then comes Kansa  - a fictitious name and form who is brother of DevakI. The maternal Uncle of Ishwara / ईश्वर  as the sin of manifest Nanda and YashodA, who adopt Ishwara as their second son. They have already another named balarAma / बलराम .

बलराम - बल राम  is the power inherent and latent.

Kansa / कंसः 

is the fictitious human being the brother of DevakI,

The word "Uncle" comes from and us a cognate of  the Sanskrit word अंश / अंशलः which we again see in the "ounce"...

This Uncle is the ignorance of the Real Divine Who is KrishNa Himself. 

purANa is / are a literary epic and poetic narrative of :

the Creation / सृष्टि,

the Sustainance  / preservation / रक्षण 

and the consequent Dissolution  /  संहरण 

Existence as such is therefore really a cycle of :

Creation - Preservation - Dissolution. 

Time  काल  has also a Divine role to play either as a Reality in the form of the seed and also as the manifest existence which the individual calls one's own world.

There are as many innumerable worlds and each one is independent of all the other such words.

The Universe as such is the material manifest  व्यक्त प्रकृति,  while the  Ishwara / ईश्वर  is the son of the :

Divine Supreme : अध्यात्म 

In between is the :

Divine Nature / दैवी प्रकृति  - Dharma,  and in contrast and comparison there is the Evil  / आसुरी प्रकृति  - कं सः? 

Who  is the one this evil? 

He is appropriately pointed out as :

Kansa .

This is an example of :

Reverse Engineering.

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Monday, 10 March 2025

Mind Is The Matter.

The Exploration.

पहले अंडा या पहले मुर्गी?

विज्ञान के लिए यह प्रश्न एक पहेली हो सकता है, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रश्न का जन्म बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है। जबकि बुद्धि का स्वामित्व और साक्षित्व बुद्धि का विषय नहीं है।

पहले आचरण / उपयोग करें, फिर विश्वास करें!

धर्म पर चलने या धर्म का आचरण करने के लिए उसे न तो जानने और न ही मानने का प्रश्न होता है, क्योंकि धर्म तो प्रकृति के द्वारा पहले से सुनिश्चित वस्तु-स्वभाव होता है, जिसका बुद्धि से संबंध नहीं हो सकता। दूसरी ओर, बुद्धि स्वयं प्रकृति ही है जबकि बुद्धि का स्वामी होने का दावा करनेवाला अहंकार है, जो कि यद्यपि क्षण क्षण प्रकट और विलीन होता रहता है, यह आभासी क्रम ही कल्पित निरन्तरता / सातत्य है, न कि वास्तविकता / सत्यता।

यह क्रम अनित्य होने से निजता से भिन्न, आभास मात्र है, जो क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त होता रहता है, जबकि वास्तविक न तो प्रकट होता है न अप्रकट ही होता है।

बुद्धि को वास्तविक और अवास्तविक के बीच की क्षणिक सीमा-रेखा की तरह देखा जा सकता है।

यह "देखा जाना" ही साक्षित्व है जो दृश्य और देखनेवाले से न तो प्रभावित होता है, न उन्हें प्रभावित ही करता है।

पुनः अहंकार भी इसी साक्षित्व में विद्यमान निजता का प्रतिबिम्ब होता है जो कल्पित दृश्य और उसे देखनेवाले के बीच के सेतु का कार्य करता है और क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त / अप्रकट होता रहता है और साक्षित्व पर ही अवलंबित, आश्रित और निर्भर होता है।

इसलिए साक्षित्व स्वतंत्र वास्तविकता और निजता का सार है, जबकि अहंकार केवल इस निजता के प्रकाश में बनते मिटते रहने वाला छाया-अस्तित्व। 

मुर्गी और अंडे में से पहले कौन की तरह ही अहंकार और संसार का परस्पर संबंध है। वैज्ञानिक संभवतः मुर्गी पहले या अंडा पहले का कोई सैद्धान्तिक उत्तर खोज लें, लेकिन यह जानना कि अहंकार या संसार में से पहले कौन, इस प्रश्न का उत्तर शायद ही कभी कोई पा सकेगा!

"पहले ईश्वर या संसार?"

यह प्रश्न इसी प्रकार का एक प्रश्न है और  इस दृष्टि से यह भी पूछा जा सकता है कि संसार तो प्रत्यक्षतः अनुभव की जानेवाली वस्तु है जिसके अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती, जबकि ऐसा ईश्वर, जिसने इस संसार को बनाया होगा, जब उसे अनुभव कर पाना ही बहुत दूर की बात है, तो उसे इस्तेमाल कर पाना कल्पनातीत ही होगा।

सनातन धर्म वैदिक हो या वेदविरोधी या उससे भिन्न आस्तिक हो, ईश्वर की मान्यता का आग्रह नहीं करता और उसके अस्तित्व पर प्रश्न भी नहीं करता जबकि अब्राहमिक परंपरा में ईश्वर के बारे में -

"पहले विश्वास करें फिर इस्तेमाल करें!"

का आग्रह किया जाता है। ऐसे किसी ईश्वर के "एक" होने (की मान्यता) को अकाट्य और तर्कसंगत सत्य माने जाने का आग्रह भी किया जाता है। सांख्यनिष्ठा या बौद्ध / जैन मत में, यहाँ तक कि अद्वैत मत में भी, ईश्वर के "एक" होने या एक न होने के प्रश्न को गौण समझा जाता है क्योंकि "एक" और अनेक पुनः अस्तित्व या प्रकृति का "गुण" होता है न कि स्वरूप। एक टोकरी में तीन आम और चार संतरे रखे हों तो संख्या की दृष्टि से यद्यपि वे सात फल होते हैं, किन्तु फल की दृष्टि से दो ही होते हैं।  इसे और सरल तरीके से समझने के लिए उदाहरण कुरूप में यह भी कह सकते हैं कि तीन आम (या चार संतरे) भी फल की दृष्टि से "एक" किन्तु "संख्या" की दृष्टि से "अनेक" होते हैं। इसलिए जैसे अस्तित्व "एक" होते हुए भी उसे विविध प्रकार और रूपों में देखा जाता है "ईश्वर" भी "एक" होते हुए भी अनेक की तरह अभिव्यक्त  है और इससे उसके "एक" होने की सत्यता पर आँच नहीं आती। इसीलिए अद्वैत मत का प्रतिपादन करनेवाले दृश्य और दृष्टा के भेद को मिथ्या कहते हैं क्योंकि न तो दृश्य और न ही व्यक्ति के रूप में किसी पृथक्  दृष्टा का ईश्वर / अस्तित्व से अलग, स्वतंत्र कोई अस्तित्व हो सकता है।

यही व्यक्ति जब अपने आपको "साक्षी" मानता है तो अस्तित्व / ईश्वर का ही दृष्टा और दृश्य के रूप में काल्पनिक विभाजन कर लेता है। कल्पना क्षण क्षण आती और जाती रहती है अर्थात् "नित्य" नहीं, बल्कि आभास मात्र होती है, जबकि भान / बोध कल्पना पर आश्रित या उससे उत्पन्न नहीं हो सकता। इसके विपरीत, भान या बोध ही वह अधिष्ठान है जो स्वप्रमाणित निजता और नित्य सत्य ही है। वह "एक" है, ऐसा कहना अनुचित न होगा किन्तु उसे "एक" कहते ही केवल प्रमादवश, अपने आपसे भिन्न की तरह भी मान लिया जाता है। फिर उसे "ईश्वर" कहें या "परमात्मा", वही एकमात्र "पूज्य" हो जाता है। "पूज्य" होने के लिए "स्मरणीय" होना भी अपरिहार्यतः आवश्यक होता ही है। तब उसे "नाम" भी देना होता है, और तब एक नया ही दुष्चक्र पैदा हो जाता है जिसे मस्तिष्क का विकार भी कह सकते हैं।

यही मन है!

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Thursday, 6 March 2025

The Undercurrent.

यहाँ से जाना है कहीं!

जब मैं लगभग सात आठ वर्ष का था, तब से मन में यह विचार अकसर उठता रहता था कि

"यहाँ से जाना है।"

तब एक दिन घर से निकलकर एक रोड पर सड़क पर चलता हुआ दूर तक चला गया था और सड़क के किनारे एक मील के पत्थर पर लिखा देखा था -

विश्रामगृह!

तब मुझे आश्चर्य हुआ था कि यहाँ इस पत्थर पर यह क्या और क्यों लिखा है, किसके लिए, क्या जरूरत थी!

यह स्मृति अब तक वैसे ही तरोताजा है! 

इसका गूढ अभिप्राय क्या था इस ओर यद्यपि उस समय तो मेरा ध्यान बिलकुल नहीं जाता था, बस यह विचार यूँ ही मन में कभी कभी आता रहता था। उस समय में भी मैं अपने आपको अकसर वैसा ही निपट अकेला अनुभव किया करता था जैसा कि अब भी किया करता हूँ। बीते हुए इन पैंसठ वर्षों में यह विचार / अनुभव मेरे मन की गहराई में नींव की तरह स्थिर है। बीच के समय में मैं एक हद तक दुनिया में और भारत में काफी भ्रमण कर चुका हूँ। एक बार घर से चल पड़ने के बाद ही तात्कालिक रूप से यह तो पता होता था कि मुझे कहाँ जाना है, लेकिन वापस घर आने के बाद फिर वह विचार कि 

"यहाँ से जाना है।"

मन में आग्रहपूर्वक उठने लगता था।

शिक्षा काल में यह विचार तात्कालिक प्राथमिकताओं के नीचे दबकर विलुप्त सा हो गया, लेकिन फिर जॉब करते समय बार बार ध्यान खींचता रहता था और अन्ततः जब तक जॉब छोड़ ही नहीं दिया, तब तक बना ही रहा था।

जॉब छोड़ते समय मन भविष्य की चिन्ता से किसी हद तक मुक्त तो हो गया था क्योंकि अब मैं स्वतन्त्र रूप से यह सोच सकता था कि मुझे कैसे जीना है, आगे क्या करना है। जिस जीवन स्तर को मैं जी रहा था उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट था और जॉब करते समय लोग मुझे जिस दृष्टि से देखते थे वह भी अब मेरे लिए समस्या न रहा। विवाह न करने का निश्चय तो बचपन से ही मन में था क्योंकि मुझे स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों का तब न तो ज्ञान था और न इस बारे में मैं कोई अनुमान ही कर सकता था। स्कूल की शिक्षा पूरी होते होते और कॉलेज जॉइन कर लेने के बाद मन में साथ पढ़नेवाली हम-उम्र लड़कियों के प्रति आकर्षण पैदा हुआ और कॉलेज के सहपाठियों की कुसंगति में उम्र की स्वाभाविक उत्सुकता के साथ साथ मन उलझता चला गया। लेकिन यह स्पष्ट था कि पहले तो अपने पाँवों पर खड़ा होना आवश्यक है और बाद में ही प्रेम वगैरह के बारे में सोचा जा सकता है। सौभाग्य या दुर्भाग्य से न तो मैं न तो स्मार्ट था, न ही मेरे पास पैसे थे। और सबसे बड़ी बात यह थी कि मेरी स्कूल की शिक्षा छोटे से गाँव में हुई थी जहाँ मुझे मेरी परिचित कोई एक भी लड़की ऐसी न मिली जिससे मैं मिल जुल सकता था। 

और वहाँ से सीधे अपेक्षाकृत कुछ बड़े शहर में पहुँचने के बाद अचानक नए लोगों के बीच यही विचार मन में पुनः उठता था कि

"यहाँ से जाना है।"

जैसे तैसे कॉलेज की मेरी शिक्षा पूरी हुई और एक बेहतर जॉब मिलते ही घर पर मेरे माता पिता के पास हर रोज कोई ऐसा प्रस्ताव किसी कन्या के अभिभावकों की तरफ से आता जिसमें मेरे बारे में पूछताछ की जाती थी। मेरे मन में कुछ आक्रोश था तो इसलिए क्योंकि मैं महसूस करता था कि मैं नहीं मेरा जॉब ही वस्तुतः मूल्यवान था और जब तक मैं बेरोजगार था तब तक तो किसी लड़की या उसके अभिभावकों ने कभी मुझे घास तक नहीं डाली और अब वे यह उम्मीद करते हैं कि मैं उनकी लड़की से शादी कर लूँ। मैं न तो उन पर और न ऐसी किसी लड़की पर ही भरोसा कर सकता था।

और सामाजिक नैतिकता के प्रचलित तथाकथित मूल्यों के आधार पर भी मैं किसी लड़की से दोस्ती या प्रेम नहीं कर सकता था।

हाँ जिस बैंक में मैं कार्य करता था वहाँ कार्य करनेवाले मेरे सभी साथी वैसे ही दोहरे मापदण्डों को निर्लज्जता और ढीठता से जी रहे थे और मेरे बारे में ठीक से कुछ समझ पाना उनके बस से बाहर की बात थी।

उस जॉब में काम करते समय भी यही विचार बार बार मन में उठा करता था -

"मुझे यहाँ से जाना है।"

जब भी मैं किसी के सामने अपना यह विचार रखता, तो वह यही पूछता -

"तुम्हें कहाँ जाना है?"

क्योंकि वे इसी भाषा में सोचने के आदी थे।

"यहाँ से कहीं जाने" का मेरा मतलब यह था कि यहाँ से जाना अधिक महत्वपूर्ण है, कहीं किसी और जगह नहीं जो कि इतनी महत्वपूर्ण हो कि मैं वहाँ जाने के लिए यहाँ से जाने के बारे में सोच रहा हूँ।

"यहाँ से कहीं जाने" का मेरा मतलब यह भी नहीं था कि मुझे दुनिया या जीवन से बहुत दूर मरकर कहीं जाना है।

और शायद इसी मेरे जीवन में सबसे सुखद क्षण वे होते थे जब मैं ट्रेन में बैठा हुआ "यहाँ से कहीं जाने" के इस विचार से बहुत उल्लसित हो जाया करता था और प्रसन्न अनुभव किया करता था। लगता था बस ट्रेन में ही बैठा रहूँ और यात्रा का कभी अन्त ही न हो। ट्रेन की भीड़ से बचने के लिए मैं प्रायः पहले ही से रिजर्वेशन करा लिया करता था। और कभी कभी बस से भी सफर कर लिया करता था।

फिर कहीं लॉज में एक दो दिन रात गुजारकर कहीं दूसरी दिशा में जाने के बारे में सोचता। तब भी मेरे लिए कोई न कोई तात्कालिक लक्ष्य होते थे किन्तु वे गौण लक्ष्य होते थे,  प्रमुख लक्ष्य तो यही होता था -

"यहाँ से जाना है।"

यह विचार दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में अदृश्य ही छिपा होता था।

अब उम्र के इस पड़ाव पर

"यहाँ से कहीं जाने"

का विचार धीरे धीरे क्षीण और विलुप्तप्राय होता जा रहा है। अब तो बस नींद, भूख, थकान और दुर्बलता ही मन पर हावी रहते हैं। नींद टूटते ही बाकी तीन, भूख शान्त होते ही बाकी तीन, थकान मिटते ही बाकी तीन और दुर्बलता कुछ कम होते ही बाकी तीन मुझ पर हावी होने लगते हैं।

हाँ, मुझे यहाँ से जाना अवश्य है, जल्दी से जल्दी, शीघ्र से शीघ्र, किन्तु "कहाँ जाना है?" यह सोच पाना भी मेरे लिए असंभव सा हो चला है। और उस लक्ष्य का कोई मानसिक चित्र बना पाना भी मुझे बहुत श्रमपूर्ण महसूस होने लगा है। किन्तु फिर यह भी सत्य है कि यहाँ से कहीं जाना तो अवश्य ही है !!

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