गीता अध्याय ७
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे अर्जुन! सभी भूत प्राणी उनके अपने संसार में इच्छा और द्वेष से ही प्रेरित / बाध्य होकर किसी व्यक्ति-विशेष के रूप में जन्म लेते हैं। अर्थात् हर कोई इस प्रकार उसके अपने जन्म से ही किसी न किसी इच्छा को साथ लेकर ही जन्म लेता है और जीवन में किसी समय पर उसे और अधिक जीते रहने की इच्छा नहीं रह जाती है। तात्पर्य यह कि यद्यपि वह मर जाना तो नहीं चाहता पर उसकी कोई ऐसी इच्छा फिर भी शेष रह जाती है जो अपूर्ण रह गई होती है। उसकी जो भी ऐसी इच्छाएं अपूर्ण रह जाती हैं, वे सभी मृत्यु आने पर मर जाती हैं, या उनमें से कुछ या कम से कम एक यह इच्छा तो रह ही जाती है कि मुझे पुनः जन्म लेना है। इसी प्रकार जिन किन्हीं वस्तुओं और स्थितियों से वह असंतुष्ट होता है, उनसे उसे फिर सामना न करना पड़े, उसकी यह इच्छा भी शेष रह जाती है, क्योंकि इन इच्छाओं की उम्र उसकी उम्र से अधिक होती है। यदि मृत्यु होने के समय उसकी सभी इच्छाएं समाप्त हो जाती हों, तो फिर उसके पुनः जन्म लेने की संभावना भी समाप्त हो जाती है। तब वह परमात्मा में विलीन हो जाता होगा और उस व्यक्ति की तरह शेष नहीं रह जाता होगा जिसका पुनः जन्म (और मृत्यु) हो सके। शायद इसे ही मुक्ति या मोक्ष कह सकते हैं।
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