श्राद्धपक्ष
महालय श्राद्धपक्ष की अंतिम तिथि होती है। इसे ही सर्वपितृ अमावस्या भी कहा जाता है। अमा का अर्थ है :
अमाप immeasurable / अंतरहित अंधकार, अरि का अर्थ है : शत्रु।
सूर्य अर्थात् आदित्य के बारह रूपों में से अंतिम है : अमा-अरि अर्थात् अरि-अमा, अर्थात् अर्यमा।
अर्यमा सूर्य का वह रूप है जो पितृलोक अर्थात् पितरं का लोक है जहाँ मृत्युलोक में मृत्यु को प्राप्त आत्माएँ पुनः मृत्युलोक में पृथ्वी पर नया शरीर प्राप्त करने तक प्रतीक्षारत रहती हैं। पृथ्वी पर वर्षा ऋतु के विदा होने पर और शारदीय नवरात्र के प्रारंभ होने पर वे पुनः पितृलोक में लौट जाती हैं और फिर वहां नियत समय व्यतीत करने के बाद पृथ्वी पर मनुष्य या किसी अन्य प्राणी के रूप में जन्म लेती हैं। पितृलोक में रहते हुए भी उन्हें मानसिक / आधिदैविक चेतना के sub-conscious रूप में अपने पूर्व जीवन की स्मृतियों से सुखों-दुखों की प्रतीति होती रहती है और नियत काल के उपरांत उन्हीं लोगों के बीच मनुष्य या किसी और योनि में वे जन्म लेती हैं जहाँ पूर्व जन्म से संबंधित अपने लोगों से पुनः संपर्क कर सकें। इसकी विवेचना और वर्णन वेद, उपनिषद्, पुराणों और इतिहास के ग्रन्थों अर्थात् रामायण और महाभारत में भी भिन्न भिन्न रीतियों और प्रयोजन के अनुसार भिन्न भिन्न शैली में किया गया है।
संक्षेप में, सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन होने और चंद्रमा के शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष में गति करते हुए बीतनेवाले समय का प्रभाव भिन्न भिन्न आत्माओं पर भिन्न भिन्न होता है। और इसलिए पितृलोक में आत्माओं को शांति प्राप्त हो इस उद्देश्य से इस लोक में परिजनों के द्वारा कुछ अनुष्ठान, जैसे उनके लिए तर्पण और पिंडदान आदि किए जाने का निर्देश शास्त्रों में दिया जाता है। इस समस्त कर्मकाण्ड का प्रयोजन, औचित्य हर मनुष्य की अपनी श्रद्धा के अनुसार सुनिश्चित होता है। इसलिए इसे श्राद्धपक्ष कहा जाता है क्योंकि इसी पक्ष में इन अनुष्ठानों को पूर्ण किया जाता है। यदि कोई अपने आपको एक देह-विशेष तक सीमित व्यक्ति मानता है तो मृत्यु-भय तो उसे होगा ही। फिर यह भी सत्य है कि यह भय शरीर को नहीं, मन को ही होता है, जबकि मन की मृत्यु होती है या नहीं इसबारे में हर कोई ही नितान्त अनभिज्ञ है। इसलिए वह जो कि अपने-आपके व्यक्ति विशेष होने की मान्यता से बंधा है मृत्यु और मृत्यु होने के बाद की स्थिति के बारे में कल्पनाएँ करता है, उन मान्यताओं को स्वीकार कर उन पर विश्वास करने लगता है। और रोचक बात यह भी है कि उसकी कोई भी मान्यता और विश्वास भी किसी भी क्षण गलत सिद्ध हो सकते हैं, और होते ही रहते हैं। इस दृष्टि से श्राद्ध और इससे जुड़ी मान्यताएँ भी इसका अपवाद नहीं हैं। वेदों और पुराणों में इसका वर्णन किया गया है, उपनिषद् विशेष कर कठोपनिषद् में और पुराणों में विशेष रूप से गरुड पुराण में। किन्तु जब किसी के साथ ऐसी घटनाएँ घटने लगें और जब उसके परिचित और दिवंगत संबंधी, परिजन या कोई दूसरे लोग उससे स्वप्नों के माध्यम से संपर्क करने लगें, या जब कोई नया जन्मा शिशु, दावा करने लगे कि वह पूर्व जन्म में उसका संबंधी था, तो मनुष्य के लिए इस सच्चाई को अस्वीकार कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। तब परंपरागत रूप में उसके द्वारा स्वीकार किए गए विश्वासों पर चोट पड़ती है और वह संशय और दुविधा अनुभव करने लगता है। वेद, उपनिषद्, रामायण आदि तथा शास्त्र ग्रन्थ मनुष्य की परिपक्वता के अनुसार उसे इस स्थिति को समझने में सहायता देते हैं। किन्तु एक कसौटी महर्षि कपिल का सांख्य दर्शन भी है।
यह तथ्य कि सिद्धार्थ नामक राजकुमार जो कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन का पुत्र था, जिसने कि जीवन, संसार, जन्म, मृत्यु तथा आत्मा आदि के संबंध में सत्य क्या है इसकी खोज की, केवल एक संयोग भर नहीं है। उसके अनुयायी ही उसे ईश्वर या भगवान कहने लगे, तो इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं है। जबकि संबुद्ध हो जाने अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति हो जाने पर भी उसने "ईश्वर" नामक किसी ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व के विषय में कभी कुछ नहीं कहा। बुद्ध या सांख्य दर्शन भी ऐसे किसी "ईश्वर" के होने या न होने के बारे में, उस ईश्वर के अस्तित्व के बारे में निश्चयात्मक कुछ नहीं कहता। शायद इसीलिए इन्हें नास्तिक दर्शन भी कहा या समझा जाता है, किन्तु उल्लेखनीय है कि दोनों ही दर्शन तथा जिन / जैन दर्शन भी "आत्मा" को जानने और उसे बंधन से मुक्त करने की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। एक ओर सांख्य दर्शन यद्यपि इस वर्तमान जन्म की अवधारणा तक पर संदेह करता हुआ प्रतीत होता है, तो दूसरी ओर जैन और बौद्ध दर्शन अनेक जन्मों की शृँखला पर बल देते हैं। इसलिए यद्यपि अपने पूर्वजों और पितरों को हम जन्म जन्म के बंधनों से मुक्त न भी करा सकें तो भी उनकी आत्मा के पितृलोक के कष्टों को दूर करने के लिए शायद कुछ कर सकते हैं। सनातन धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी परंपरा में न तो पुनर्जन्म की और न ही जन्मों जन्मों की शृँखला से मुक्ति होने की भी कोई धारणा या मान्यता है। इसलिए उन परंपराओं में जन्म लिया हुआ कोई व्यक्ति जब ऐसे अनुभवों से गुजरता है जिनके बारे में उसे कुछ पता ही नहीं होता तो वह उद्विग्न, व्याकुल और संशयग्रस्त होने लगता है। तब न तो उसकी परंपरा में उसे इसका कोई समाधान मिलता है और न ही वह अपनी उस परंपरा के धार्मिक शिक्षकों से ही इस बारे में कोई विचार विमर्श ही कर सकता है। दूसरी ओर, सनातन धर्म भी इस विषय में उसकी कोई सहायता नहीं करता क्योंकि सनातन धर्म प्रत्येक व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का पूर्ण सम्मान करता है। गीता के इस श्लोक से भी इसकी पुष्टि होती है -
श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
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